नदी फिर से बहना
डॉ. भगवान सहाय मीना
जयपुर, (राजस्थान)
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कलम बोलती कागज से,
आओ मन की कह दूं।
झूठे जग के चलचित्रों में,
सत् के रंग बतला दूं।
सूख गया रिश्तों का सागर,
संबंधो में थार मरूस्थल।
स्वार्थ के वशीभूत जगत है,
बहरूपिया सा अंतस्थल।
ज़र जोरू जमीन खास है,
रत्तीभर स्नेह कहां सहोदर में।
शुष्क लुप्त है आत्मियता,
रिसती दरार गहरी आंगन में।
बोल चाल बंद अपनों से,
कुंठित गैरों से भ्रमित हुए।
दूध में तलवार चलती,
संस्कार सब धूमिल हुए।
वात्सल्य शल्य से ग्रसित,
रोये अपनापन संन्यास लिए।
मात-पिता में अनबन बडी,
बच्चें पढ़ने को वनवास लिए।
पति पत्नी के गठबंधन में,
निरस गाँठों की भरमार घनी।
अलगाव विखंडित मोहब्बत,
झूठी शान जिए प्रणय के धनी।
कब समरसता को सीखेंगे,
अपनेपन में कटे कटे से रहना।
यूं विस्तापित जग जीवन में,
ममता की नदी फिर से बहना।
परिचय :- डॉ...

