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धोखा

महिमा शुक्ल
इंदौर (मध्य प्रदेश)
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रमा और राज साथ ही पढ़ते थे, रमा उसकी लच्छेदार बातों पर खूब हँसती जल्द ही बीस साला प्यार के गिरफ्त में आ गए दोनों।
कस्मे-वादों की फेहरिस्त भी बना ली दोनों ने। रमा ने उसे अपना सब कुछ मान लिया, राज पर ऐतबार उसे इतना कि एक दिन घर से चुपचाप उसके साथ चल दी, सब कुछ छोड़-छाड़ कर अपना अशियाना सजाने के लिए।

प्यार में डूबे दोनों ने रजत के एक दोस्त के यहॉँ पनाह ली। सपनों में खोयी रमा को अपना घर बनाने की तमन्ना थी, दो दिन बाद ही रमा बोली अब आगे? चलें कहीं और? नौकरी करनी होगी वरना कैसे चलेगा काम? रजत ने लापरवाही से कहा क्या जल्दी है? अभी आराम से रहो रमा ने फिर पूछा “पैसे कहाँ से आएंगे जो मैं लायी थी वो ख़त्म हो गए” अब रजत झटके से तुरंत बोला ये है ना सुरेश ये देगा।
रमा को शंका होने लगी अरे तो चुकाओगे कैसे? रजत ने धीरे से कहा तुम चुकाओगी ना, नौकरी करो या फिर….
या फिर? रमा आगे सोच ना सकी। मेरे और उसमें कोई फर्क नहीं, तुम्हें उसके साथ भी रह सकती हो… काम कहाँ है मेरे पास? “सुन कर रमा सन्न रह गयी ये क्या? पूछ बैठी सौदा करोगे”? रजत बेशर्मी से बोला “ना तो ऐसे ही खिलाने रखा है उसने हमें? कल दो दिन के लिए गाँव जा रहा हूँ तुम यहीं रहना सब वहाँ ठीक करके आऊँगा”
रमा चुपचाप कमरे में चली गयी। कुछ सोचा फिर अपने सहेली बेला को फोन कर सब बताया, बेला बोली “अभी कुछ मत बोलना रजत से कुछ करती हूँ”
शाम की चाय पीने बैठी ही थी कि बेला को आते देख रमा बाहर भागी। पीछे से रजत रमा को पकड़ता उससे पहले ही एक सिपाही ने रजत को धक्का देकर गिरा दिया, दोनों थाने ले जाये गए जहाँ रमा के पिता बैठे थे। दोनों की आँखों में सवाल ही सवाल थे, भरोसे और धोखे के कुचक्र के।

परिचय :- महिमा शुक्ल
निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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