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मैं मुर्दों के शहर में रहती हूँ

डॉ. अर्चना मिश्रा
दिल्ली

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मैं मुर्दों के शहर में रहती हूँ
जहाँ सिर्फ़ आरोप और आरोप
सिर्फ़ और सिर्फ़ इल्ज़ाम
स्त्री मन क्या चाहता है
कोई परवाह नहीं
कोई इतना भी बुरा
कैसे हो सकता है
कोई पास फटके ही ना
सिर्फ़ और सिर्फ़ आरोप
दिमाग़ जैसे फट के कई
टुकड़ों में विभाजित हो गया
क्या क्या उम्मीद उस से
सब बेकार
जैसे वो सिर्फ़ एक
सड़ी हुई बीमार लाश
सिर्फ़ बदबूदार
इतनी सड़न की जहाँ जायें
सब जगह बीमारी फैला आयें
वो इतनी बेबस है आज
सबके हाथ में
ज़ुबान रूपी पत्थर
कैसे-कैसे कहाँ-कहाँ फेकें सबने
खून के रिश्तें भी बेकार
किसी को नहीं वो स्वीकार
ऐसे में कहाँ वो जाएँ
कहाँ अपना सिर छुपाये
सबके लिए अब वो बेकार
नहीं किसी को वो स्वीकार
कोई तो, कहीं नहीं
किसी का नामोनिशान
जिसे वो हो एक
प्रतिशत भी स्वीकार
मरी हुई लाश सी पड़ी है,
बदबू ही बदबू, कटे फटे अंग
जमा हुआ खून
हर तरफ़ सन्नाटा
किसी को कुछ समझ नहीं आता
जलती हुई वेदी पर वो
फफोले ही फफोले,
दर्द अनंत
सबके चेहरे प्रसन्न
ख़त्म हुआ एक सदी का द्वन्द
हाँ जी हाँ
मैं मुर्दों के शहर में रहती हूँ
मैं मुर्दों के शहर में रहती हूँ

परिचय :-  डॉ. अर्चना मिश्रा
निवासी : दिल्ली
प्रकाशित रचनाएँ : अमर उजाला काव्य, राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच व साहित्य कुंज में रचनाएँ प्रकाशित।
आपका रुझान आरम्भ से ही हिंदी की ओर था अपने स्कूल व कॉलेज के दिनो से ही मेआपने लेखन का कार्य शुरू कर दिया था। आपने अधिकतर रचनायें कविता एवं लेख के रूप में लिखी है। आपने हिंदू कॉलेज दिल्ली से हिंदी विषय से ही अपनी बीए एमए किया तत्पश्चात् बीएड और एमएड किया। साथ ही साथ आपने काउंसलिंग एंड गाइडेंस का भी कोर्स किया।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।

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