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भुखमरी

डॉ. किरन अवस्थी
मिनियापोलिसम (अमेरिका)

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चरम पर कलियुग है
भावनाओं की भुखमरी है
पुरुषार्थ बदल रहा है
ह्रदय की आराजकता,
बिखरी हुई मानसिकता
मानवता को
खाया जा रहा‌ है

लोलुपता की
दृष्टि भी लोलुप है
उदात्तभाव
की भुखमरी है
जिधर देखो उधर
खाया ही जा रहा है
रिश्वत तो आराम से
खाया जा रहा है।
वस्त्र, राशन,
अखबार, इंसान
सबको मिलावट का
रंग खाएं जा रहा है

वासना स्वच्छंद है
पुरुषार्थ निर्बाध, निर्द्वंद्व है
उठते थे हाथ असहाय, दीन,
मातृशक्ति की रक्षा पर
वहीं हाथ उनके भक्षक‌
नजर ही नजर में गिर गई
मर चुकी है आत्मा
स्त्रीत्व को खाया जा रहा है
पुरुषार्थ का अर्थ बदल रहा है ।

किताबें तो अब पढी‌ नही जातीं
वो भी दीमक खाए जा रहा है
कामना नहीं है वश में
भौतिकता पूर्णतः हावी है
आध्यात्मिकता की भुखमरी है
इंसान इंसान को, इंसान को
घुन खाए जा रहा है
इंसानियत का अर्थ बदल रहा है

कुछ तो टटोलते हैं गगन को
ज्ञान की पिपासा से
फिर भी बहुतों में धरा पर
सुविचारों की भुखमरी है
आतंक का बोलबाला है
नेता नेता को
राजनीति इतिहास को,
इतिहास राजनीति को
अधर्म धर्म को, धर्म अधर्म को,
युग युग को खाए जा रहा है
सब एक दूसरे को खाए जा रहे हैं
सबको काल खाए जा रहा है
कहने को भुखमरी
पर खाया ही जा रहा है।

परिचय :- डॉ. किरन अवस्थी
सम्प्रति : सेवा निवृत्त लेक्चरर
निवासी : सिलिकॉन सिटी इंदौर (मध्य प्रदेश)
वर्तमान निवासी : मिनियापोलिस, (अमेरिका)
शिक्षा : एम.ए. अंग्रेजी, एम.ए. भाषाविज्ञान, पी.एच.डी. भाषाविज्ञान
सर्टिफिकेट कोर्स : फ़्रेंच व गुजराती।
पुनः मैं अपने देश को बहुत प्यार करती हूं तथा प्रायः देश भक्ति की कविताएं लिखती हूं जो कि समय की‌ मांग भी‌ है। आजकल देशभक्ति लुप्तप्राय हो गई है। इसके पुनर्जागरण के लिए प्रयत्नशील हूं।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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