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घी रोटी

सूरज सिंह राजपूत
जमशेदपुर, झारखंड
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मां, मेरे हिस्से की क्या हुई ?
क्या वह सच में बहुत अच्छी होती है ?
स्कूल में,
हर दिन कोई ना कोई लाता है
घी रोटी !

मैं …,
मां मैं कभी क्यों नहीं ले जाता ?
तुम तो हमेशा कहती हो …. कल ले जाना !
कल … कल
ये कल कब आएगा?
अब तो,
मां अब तो सब मुझे चिढ़ाते हैं … प्याज रोटी !

मां,
पापा कब लायेंगे?
धी रोटी !
वो कहां गए?
कब आयेंगे?
कब लायेंगे?
धी रोटी !

मुझे याद है
पापा लाए थे …
बहोत पहले
सब्जी और घी रोटी,
पापा अपने हाथों से खिलाए थे !
अब इतने दिनों से नहीं आए,
सब लोग बुरे हैं …
उनके शरीर घी मल दिया
और न जानें कहां ले गए?
पापा को कंधे पर झूला झुलाते …

मां,
क्या पापा
घी लेकर गए हैं
लाने को रोटी?
सब लोग खाए थे
तब हमारे घर
पूरी पकवान और दही भी !
अब कोई नहीं आता हमारे घर,
मां, तब मैं तीसरी कक्षा मे था।
मां तु, तू न रो,
मुझे नहीं चहिए
घी रोटी!

अब मैं पांचवी कक्षा में हूं !
जब बड़ा हो जाऊंगा,
मैं लेकर आऊंगा।
पापा को भी बुलाना,
हम साथ खाएंगे,
घी रोटी!

परिचय : सूरज सिंह राजपूत
निवासी : जमशेदपुर, झारखंड
सम्प्रति : संपादक- राष्ट्रीय चेतना पत्रिका, मीडिया प्रभारी- अखिल भारतीय साहित्य परिषद जमशेदपुर
घोषणा : मैं सूरज सिंह राजपूत यह घोषित करता हूं कि यह मेरी मौलिक रचना है।


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