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मैं पंछी तेरे आंगन की

अभिषेक मिश्रा
चकिया, बलिया (उत्तरप्रदेश)
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मैं पंछी तेरे आंगन की,
तूने उड़ना सिखाया था।
तेरे प्यार की छांव तले,
बचपन हँसना सिखाया था।

फिर आया दिन वो सांझ भरा,
जब विदाई का वक्त था अश्रु धरा।
कांपते पाँव, मुस्काती आँखें,
दिल के भीतर सिसकती साँसें।

डोली में बैठी थी ख़ामोशी सी,
हर हँसी के नीचे थी एक उदासी सी।
पीछे छूटा वो कंचों का खेल,
सामने था अब जीवन का रेल।

ससुराल की देहरी पर रखे पाँव,
पीछे छूटा हँसी का गाँव।
चेहरे नए, रिश्ते भी अनजान,
दिल बोले- “क्या यही है पहचान?”

भाई की चिढ़, माँ की डाँट,
सब अब मीठी लगती है।
वो रोटियों की छोटी बातें,
अब आँखों से बरसती हैं।

तू कहता था- उड़ जा बेटी,
सपनों का कोई घर होगा।
क्या जानती थी ये उड़ान,
इतनी भारी सफर होगा।

माँ से लड़कर मैं चली आई,
सास की बातें अब क्या कहूँ?
कभी बेटी थी, अब बहू हूं,
कभी अपनी थी, अब पराई हूं।

यहाँ ताने हैं, कुछ चुप्पियां हैं,
हर दिन खुद से भिड़ती हूं।
सास की तीखी बातों में भी,
माँ का धैर्य मैं ढूंढ़ती हूं।

बदला लहजा, बदला व्यवहार,
मैं ढूँढती रही वो पुराना प्यार।
हर तीज-त्यौहार में खोई मैं,
पर मुस्कान ओढ़े रोई मैं।

मायके की मिठास अब याद बनी,
मन की बात अब जज्बात बनी।
जो आँगन था मेरी उड़ान का,
अब बसता है मेरे अरमान का।

देवर की हँसी में अक्सर,
भाई की मासूमियत ढूँढती हूं।
ननद के तानों में छुपकर,
बहन की छाया सी जीती हूं।

ससुराल का हर कोना कहता,
अब ये तेरा संसार है।
पर मन अब भी दौड़ता मायके,
जहाँ हर ग़लती भी स्वीकार है।

तेरे आँचल से बंधी थी मैं,
अब नए रिश्तों में उलझी हूं।
दिल पूछे रोज़ आईने से-
“क्या अब भी वही बेटी हूं?”

मैं बहू सही, पर बेटी भी हूँ,
टूट कर भी कभी न हटी भी हूँ।
हर घर की एक कहानी हूँ मैं,
तेरे आंगन की निशानी हूँ मैं।

“मैं पंछी तेरे आंगन की,
पर अब तिनके और हैं।
तेरे प्यार की तलाश में,
अब सास के आँचल से लड़ती हूं…”

परिचय :- अभिषेक मिश्रा
निवासी : ग्राम-चकिया, तहसील- बैरिया, जिला-बलिया (उत्तरप्रदेश)
शिक्षा : एमकॉम
लेखन विद्या : कविता, मौलिक रचना एवं मोटिवेशनल कोट्स।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरा यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।

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