
रूपेश कुमार
चैनपुर (बिहार)
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मनुष्य के जीवन में एक ऐसा समय आता है जब वह स्वयं से यह प्रश्न करता है – “मैं क्या हूँ ?” यह प्रश्न केवल शरीर, नाम, या पहचान तक सीमित नहीं होता, बल्कि आत्मा, उद्देश्य, और अस्तित्व की खोज की ओर संकेत करता है।
जब हम कहते हैं “मैं”, तो हम क्या दर्शाते हैं ? क्या यह शरीर “मैं” है ? क्या यह विचार, भावनाएँ, या यादें “मैं” हैं ? या फिर कुछ और है जो इन सबसे परे है ?
हमारा शरीर समय के साथ बदलता है – बाल सफ़ेद हो जाते हैं, चेहरा झुर्रियों से भर जाता है, लेकिन फिर भी भीतर एक एहसास बना रहता है कि “मैं वही हूँ।” इसका अर्थ यह हुआ कि “मैं” केवल शरीर नहीं हो सकता। यह तो केवल एक वाहन है, जिससे आत्मा इस संसार में कार्य करती है। मन हमें सोचने, समझने, और महसूस करने की शक्ति देता है। बुद्धि निर्णय लेने में सहायता करती है और अहंकार यह भावना देता है कि “मैं यह हूँ” – डॉक्टर, छात्र, लेखक, पुत्र आदि। लेकिन क्या यह सारी पहचानें स्थायी हैं? नहीं। ये सभी बदलती रहती हैं। इसका मतलब, “मैं” इन सबसे परे कोई गहरा तत्व है।
भारतीय दर्शन में “मैं” को आत्मा कहा गया है न जन्म लेने वाली, न मरने वाली, न कटने वाली, न जलने वाली। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं : –
“न जायते म्रियते वा कदाचित् |
नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ||”
इसका अर्थ है कि आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है। यह सदा है, शाश्वत है। एक सामाजिक प्राणी के रूप में “मैं” अनेक भूमिकाएँ निभाता हूँ – कभी पुत्र, कभी मित्र, कभी कर्मचारी। इन भूमिकाओं के बीच सच्चा “मैं” खो न जाए, यही जीवन का संतुलन है। बाहरी पहचान महत्वपूर्ण हो सकती है, लेकिन आत्मा की पहचान अनमोल है।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से : –
“मैं कौन हूँ ?” या “मैं क्या हूँ ?” – यह प्रश्न जितना गूढ़ है, उतना ही हमारे जीवन की सबसे मौलिक खोज भी है। यह प्रश्न केवल एक बौद्धिक जिज्ञासा नहीं, बल्कि आत्मा की पुकार है – उस शाश्वत सत्य को जानने की जो हमारे अस्तित्व की मूलभूत पहचान है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से यह प्रश्न मानव जीवन का आरंभिक बिंदु है, जहाँ से आत्मबोध की यात्रा शुरू होती है।
बाह्य नहीं, अंतरतम में खोज हम प्रायः अपनी पहचान को शरीर, नाम, कार्य, या रिश्तों में खोजते हैं – “मैं एक छात्र हूँ”, “मैं एक डॉक्टर हूँ”, “मैं किसी का पुत्र या पत्नी हूँ”। परंतु ये सब केवल सामाजिक मुखौटे हैं – नश्वर, अस्थायी और परिवर्तनीय। आध्यात्मिक दृष्टि से “मैं” वह नहीं जो दिखाई देता है, बल्कि वह है जो सब कुछ देख रहा है, अनुभव कर रहा है – एक साक्षी, एक चेतन सत्ता।
“मैं” = आत्मा
उपनिषदों में कहा गया है ;
“अहं ब्रह्मास्मि” – मैं ब्रह्म हूँ,
“तत्त्वमसि” – तू वही है।
यह स्पष्ट करता है कि “मैं” शरीर या मन नहीं, बल्कि आत्मा हूँ – अनादि, अनंत, अजर, अमर। यह आत्मा न तो जन्म लेती है, न मरती है। यह परमात्मा की ही एक अंश है एक दिव्य चिंगारी।
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं : –
“नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥”
यानि आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल भिगो नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती – वही “मैं” हूँ ।
अहंकार और आत्मा का अंतर :-
अहंकार कहता है – “मैं यह शरीर हूँ”,
मन कहता है – “मैं यह सोच हूँ”,
बुद्धि कहती है – “मैं निर्णय हूँ”,
लेकिन आत्मा कहती है – “मैं निश्चल, शुद्ध, और साक्षी हूँ।” जब हम आत्मा से विमुख होकर केवल बाह्य जगत से जुड़ जाते हैं, तो भ्रम और दुख प्रारंभ होता है। लेकिन जब हम भीतर की ओर मुड़ते हैं, ध्यान करते हैं, मौन में उतरते हैं, तो हमें आत्मा की झलक मिलती है – और वहीं से शांति का उदय होता है।
आध्यात्मिक जागरण स्वयं को जानना आध्यात्मिक पथ पर चलना अपने वास्तविक “मैं” को पहचानने की प्रक्रिया है। ध्यान, साधना, सेवा, भक्ति और सत्संग – ये सभी साधन हैं उस आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए। आत्मा को जानना ही ईश्वर को जानना है, क्योंकि आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं ।
“जो स्वयं को जान लेता है, वही सच्चे अर्थों में मुक्त हो जाता है।”
“मैं क्या हूँ ?” – इस प्रश्न का उत्तर किसी पुस्तक में नहीं, किसी प्रवचन में नहीं, बल्कि आपके अंतर में छिपा है। जब आप संसार के कोलाहल से हटकर मौन में उतरते हैं, जब आप हर भूमिका से अलग होकर केवल “साक्षी” बनते हैं तब आप अपने “स्व” से मिलते हैं। और उस क्षण आप अनुभव करते हैं कि “मैं शरीर नहीं हूँ, मैं मन नहीं हूँ,
मैं तो शुद्ध चेतना हूँ – सत्, चित्, आनंद स्वरूप आत्मा।”
यह रहा “मैं क्या हूँ” विषय पर एक गहन आध्यात्मिक लेख, जिसमें भक्ति, वेदांत, और योग – तीनों दृष्टिकोणों को समाहित किया गया है ।
भक्ति, वेदांत और योग की दृष्टि से : –
“मैं क्या हूँ ?” – यह प्रश्न साधारण नहीं, बल्कि चेतना की उस चिंगारी की पुकार है, जो अपने मूल स्रोत को जानना चाहती है। यह आत्मा की आंतरिक यात्रा है, जो न केवल हमारे अस्तित्व का अर्थ खोजती है, बल्कि उस परम सत्य तक पहुँचने की राह भी दिखाती है। इस प्रश्न का उत्तर आध्यात्मिक परंपरा में भक्ति की दृष्टि: “मैं तेरा हूँ, हे प्रभु”
भक्ति मार्ग में “मैं” का अर्थ है – एक प्रेमी आत्मा, जो परमात्मा की खोज में निरंतर तड़प रही है। यहाँ आत्म-चिंतन का स्वरूप दास्य भाव, शरणागति और प्रेम में अभिव्यक्त होता है। भक्त कहता है : –
“मैं कुछ नहीं, सब कुछ तू ही है।”
“मैं तो केवल तेरा दास हूँ, तू ही मेरा स्वामी है।”
संत तुलसीदास, मीराबाई, चैतन्य महाप्रभु आदि सभी संतों ने इस “मैं” को अहंकार नहीं, अपितु प्रेम में गलती हुई आत्मा माना है, जो प्रभु के चरणों में स्वयं को समर्पित करती है।
भक्ति मार्ग में “मैं” का लय ईश्वर में विलीनता है। वहाँ “मैं” और “तू” के बीच की दूरी समाप्त हो जाती है। प्रेम में दोनों एक हो जाते हैं। वेदांत की दृष्टि: “अहं ब्रह्मास्मि” वेदांत कहता है – “तू वह नहीं जो तू समझता है। तू न यह शरीर है, न मन, न बुद्धि – तू ब्रह्म है, तू सच्चिदानंद स्वरूप आत्मा है।”
उपनिषदों के महान महावाक्य:
“अहं ब्रह्मास्मि” – मैं ब्रह्म हूँ,
“तत्त्वमसि” – तू वही है,
“सोऽहम्” – मैं वही (परमात्मा)
वेदांत में “मैं” का तात्पर्य है – वह चेतन सत्ता, जो साक्षी भाव से सबका अनुभव कर रही है। यह “मैं” न तो जन्मता है, न मरता है। वह नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, अनादि आत्मा है – जो माया के कारण स्वयं को शरीर या नाम-रूप मान बैठी है। ज्ञान के माध्यम से जब यह भ्रांति टूटती है, तो “मैं” अपने वास्तविक स्वरूप – ब्रह्म – को पहचान लेता है। यही मोक्ष है। योग की दृष्टि: “मैं वह हूँ जो योग में लीन है”
योग शास्त्र आत्म-परिचय को अनुभव के माध्यम से प्राप्त करने का मार्ग है। पतंजलि योगसूत्र का पहला सूत्र है:
“योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः” – योग है चित्त की वृत्तियों का निरोध।
जब चित्त शांत होता है, विचार रुक जाते हैं, तब साधक आत्मा के साथ एकाकार हो जाता है। वहाँ “मैं” केवल साक्षी भाव में स्थित चेतना है – न इच्छाएँ, न भावनाएँ, न अहंकार। योग के आठ अंगों – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, और समाधि – के माध्यम से साधक “मैं” को शरीर और मन से अलग करता है और आत्मा के अनुभव तक पहुँचता है।
योग कहता है : –
“तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्” – तब देखने वाला साधक अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है।
“मैं” की पूर्णता भक्ति में “मैं” प्रभु का प्रेमी बनकर समर्पित हो जाता है।वेदांत में “मैं” स्वयं को ही परम ब्रह्म रूप में जान लेता है।योग में “मैं” अनुभव के स्तर पर आत्मा में स्थिर हो जाता है।
तीनों मार्गों का लक्ष्य एक ही है – “मैं कौन हूँ?” का उत्तर पाना। अंतर केवल दृष्टिकोण का है – कोई प्रेम से, कोई ज्ञान से, कोई ध्यान से। लेकिन अंततः सभी आत्मा को परमात्मा से एक करने की ओर ले जाते हैं। और तब
आत्मा कहती है : –
“अब मैं कुछ नहीं हूँ – केवल वही हूँ।
जहाँ मैं हूँ, वहाँ केवल ‘वह’ है।
‘मैं’ और ‘वह’ का भेद मिट गया –
यही है आत्मबोध, यही है मुक्ति।”
परिचय :- रूपेश कुमार
शिक्षा : स्नाकोतर भौतिकी, इसाई धर्म (डीपलोमा), ए.डी.सी.ए (कम्युटर), बी.एड (महात्मा ज्योतिबा फुले रोहिलखंड यूनिवर्सिटी बरेली यूपी) वर्तमान-प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी !
निवास : चैनपुर, सीवान बिहार
सचिव : राष्ट्रीय आंचलिक साहित्य संस्थान
प्रकाशित पुस्तक : मेरी कलम रो रही है
सम्मान : कुछ सहित्यिक संस्थान से सम्मान प्राप्त !
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।
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