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जीभर जीकर जाना

शिवदत्त डोंगरे
पुनासा जिला खंडवा (मध्य प्रदेश)
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खाना-पीना सो जाना
बात-बात पर रो जाना.
क्या ये है कोई ज़िंदगी
यूँ ही मायूस हो जाना.

चार दिनों की पूँजी साँसें
बेजा इन्हें मत कर जाना.
अवसर यह मिला हुआ है
इसको जीभर जीकर जाना.

विधाता ने बड़े प्यार से
धरती घूमन को भेजा है.
कुँदन काया सुँदर माया
देकर के तुम्हें सहेजा है.

अंदर-बाहर भरा उजाला
हम सबको राह सुझाते हैं.
न जाने किस भरम बावले
कोई राह तक न वे पाते हैं.

जग जैसा है, वैसा ही है
किसलिए है इससे डरना.
अकारण न घटती घटना
केवल कारण से है बचना.

बस इतना है हाथ तुम्हारे
खुद की सुधबुध है रखना.
है ईश्वर तेरे ही भीतर बैठा
जब जी चाहे कर मिलना.

बिना विचारे अंधा हो कर
काहे कदम उठावे तू प्यारे.
खुली आँख से चलने वाला
कभी न ठोकर खावे प्यारे.

तन- जीवन- जान अभी है
फिर क्यों तू घबराए जग से.
समंदर उत्सव से भरा हुआ
तू रीता ही क्यों जाए जग से.

भूल गया धरती पर आकर
तू है इसपे बस इक सैलानी.
तेरे दु:ख का यह है कारण
तुम ने यहाँ टिकने की ठानी.

सच समक्ष भरम में मूरख
खुद को ही तू बहकाता है.
देख सच्चाई मगर बावला
तू जीवन से नटता जाता है.

परिचय :- शिवदत्त डोंगरे (भूतपूर्व सैनिक)
पिता : देवदत डोंगरे
जन्म : २० फरवरी
निवासी : पुनासा जिला खंडवा (मध्य प्रदेश)
सम्मान : राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच इंदौर द्वारा “समाजसेवी अंतर्राष्ट्रीय सम्मान २०२४” से सम्मानित
घोषणा पत्र : प्रमाणित किया जाता है कि रचना पूर्णतः मौलिक है।


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