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जान कर भी क्या कर लोगे

राजेन्द्र लाहिरी
पामगढ़ (छत्तीसगढ़)
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हकीकत जान कर भी
क्या कर लोगे,
उन्हें ही गरियाओगे
और उन्हीं को सेवा दोगे,
यह वो तबका है जो
गाली सुन सकता है,
मालिक कभी भी
धुन सकता है,
ताज्जुब की
बात यह है कि
मार खाने वाला इस पर
नहीं गुन सकता है,
सेवा स्वीकार है
सत्ता के बदले,
उन्हें याद नहीं सब
कुछ निहत्थों ने बदले,
सेवा स्वीकार है दरी
बिछाने के एवज,
असंवैधानिक शब्दों से
पुकारे जाने के एवज,
सेवा स्वीकार है
चंद सिक्कों के बदले
सामाजिक दलाल कहलाना,
अपमानों को सह-सह
खुद को बहलाना,
मगर अपने समाज
को दे क्या रहे हो?
उसी घिसी पिटी
व्यवस्था की परिपाटी,
अपनों से ऊंचा दिखने
की चाह संग ख्याति?
कुछ मेहनतकशों
के बनाये रास्ते
मिल जाने से दे सकते
हो मूछों को ताव,
बढ़ सकते हो आगे
अपनों को देकर घाव,
तुम्हारे जैसे चंद
चमचे देंगे तुम्हें भाव,
मगर क्या बिखरते
समाज का मिलेगा लगाव,
पैसे देकर खरीदा गया
मान नहीं है पुरस्कार,
लेकिन मत भूलो
कि एक दिन
यही प्रायोजक खुलकर
करेंगे तिरस्कार,
शोषणकर्ता का मनः
स्थिति नहीं बदलेगा,
किसी एक के
धनवान हो जाने से
सामाजिक न्याय
नहीं मचलेगा,
बच्चा-बच्चा आज
अपनी स्थिति
समझ रहा है,
लेकिन समूचा समाज
तो सुलग रहा है,
सबको बराबरी की
व्यवस्था चाहिए,
क्या दोगे?
वर्ना हकीकत जान कर
भी क्या कर लोगे?

परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी
निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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