
डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
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रविवार!
वो दिन जब देश के बहुसंख्यक पुरुष अपने शरीर रूपी वाहन की सर्विसिंग, डेंटिंग-पेंटिंग और फेस एलाइनमेंट की कोशिश करते हैं- और फिर थककर वापस उसी पुराने स्टार्टिंग ट्रबल वाले मोड में लौट जाते हैं। सुबह शीशे में झाँका तो माथे पर दो-चार सफ़ेद बाल ऐसे अठखेलियाँ करते मिले, जैसे मोहल्ले की गली में खड़ी बाइक को किसी मनचले ने ‘की-की’ करते हुए खरोंच मार दी हो। कभी जिन बालों को नजर न लगे, इसलिए बचपन में काजल का टीका लगाया जाता था- अब वही बाल इसलिए सफ़ेद हो रहे हैं कि किसी की नजर पड़ ही जाए! कभी अपने बालों पर करते थे नाज़, अपना रंग जमाए रहते थे महफ़िलों में- और आज वही बाल अपना रंग बदल रहे हैं!
सच कहें तो अब यह काया नामक गाड़ी, आर.टी.ओ. की अयोग्य वाहनों की सूची में और ज़िन्दगी के खेल में “एक्स्ट्रा प्लेयर” के रूप में दर्ज हो चुकी है। थोड़ी हिम्मत करके श्रीमती जी से कहा- “सुना तुमने, आज ओवरहॉलिंग का दिन है… थोड़ा डेंटिंग-पेंटिंग भी करवा लूँ?” श्रीमती जी ने वैसा ही ठहाका लगाया जैसा मेकअप का खर्चा सुनकर पापा ने शादी की पहली लिस्ट पर लगाया था- “इस उम्र में कौन-सी रेड कारपेट पर चलना है जो शेविंग, ब्लीचिंग, फेशियल करवाएंगे?”
मैंने गंभीरता से कहा- “अरे भई, बच्चों की सगाई-शादी शुरू होने वाली है… देखने वाले आएँगे तो समधी-संधान हमें भी तो देखेंगे… है कि नहीं?”
हमने अपने रंग बदलते बालों पर नाखुश होते हुए श्रीमती जी से शिकायत की और बालों को कालिख से काला करने का सुझाव दिया। तो श्रीमती जी बोलीं- “इन इक्के-दुक्के सफेद बालों को ढूंढ-ढूंढकर डाई लगाओगे तो जो बचे-खुचे हैं, वो भी सफेद हो जाएँगे… और एलर्जी हो गई तो?” बाल पर मचे इस बवाल से हम विचलित हुए। हमने सुझाव दिया- “तो फिर बच्चों को कह देते हैं कि एक-एक करके सफेद बाल उखाड़ें- एक बाल का दस पैसे!”
बेटी बोली- “ये तो घाटे का सौदा है!” हमने उन्हें हमारे ज़माने का हवाला दिया कि हम भी चाचाजी के बाल तोड़ अभियान में एक बाल के दस पैसे
पाते थे। बात मोल-भाव की ओर बढ़ी, और मोल-भाव करते-करते नेगोशिएशन के कगार तक ले ही आए…एक बाल का एक रुपया फिर देखा, सिर्फ बालों का दुख नहीं है- बालों का भूगोल भी बदल चुका है। सर के बाल गायब हो रहे हैं… और कानों, नाक, यहाँ तक कि पीठ पर नए ब्रांच खोल चुके हैं। मतलब जहाँ बालों की ज़रूरत है, वहाँ इनकी बेरोज़गारी है… और जहाँ नहीं चाहिए, वहाँ अवैध कब्ज़ा। इस अवैध कब्ज़े को हटाने के लिए श्रीमती जी कमर कसकर तैयार खड़ी थीं।
मुँह में धागा दबाकर थ्रेडिंग की तैयारी- “ओह… धीरे यार… बड़ा दर्द कर रहा है!” मर्द के भी होते हैं दर्द… हमें हकीकत कुछ ऐसे जान पड़ी- “सच में औरतें चाइल्डबर्थ का दर्द सहती हैं… पर थ्रेडिंग भी क्या कम है?” अभी तो आपने सिर्फ अनुभव किया है, जनाब… कभी वैक्सिंग करवाइए टाँगों की- तब समझ में आए! सच “जिसके फटे न पैर बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई!” अब टॉयलेट से लौटते हुए ऐसा लगता है जैसे सर्विस स्टेशन से ओवरऑल चेकअप करा कर निकले हों- कभी पीठ खड़खड़ाती है, कभी घुटने कराहते हैं, कभी जाँघें फुसफुसाती हैं- “अबे कितना चलाएगा? ओल्ड मॉडल हैं… थोड़ा आराम दे!” गनीमत है कि सरकार ने शरीर के पुराने मॉडलों पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया है… नहीं तो आर.टी.ओ. ऑफिस में लाइसेंस रिन्यू कराने के लिए दौड़ते फिरते- कभी मेडिकल सर्टिफिकेट, कभी फिजिकल फिटनेस टेस्ट… और आखिर में कोई दलाल पकड़कर कहते- “भाईसाहब, कुछ ले-देकर एक लाइफटाइम वैलिडिटी सर्टिफिकेट बनवा दो!”
खैर, एक बिना मांगी सलाह है मित्र- शरीर कोई स्वचालित वाहन नहीं, जो बिना देखे-सुने चलता रहे। हर रविवार को थोड़ा “ह्यूमन पी.यू.सी.” ज़रूरी है, वरना जीवन की सड़क पर कहीं “इंजन सीज़” न हो जाए…
जय रविवार! जय ओवरहॉलिंग …..!
निवासी : गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
व्यवसाय : अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ
लेखन रुचि : कविताएं, संस्मरण, व्यंग्य और हास्य रचनाएं
प्रकाशन : शीघ्र ही प्रकाशित पुस्तक “नरेंद्र मोदी का निर्माण: चायवाला से चौकीदार तक” (किताबगंज प्रकाशन से), काव्य कुम्भ (साझा संकलन) नीलम पब्लिकेशन, काव्य ग्रन्थ भाग प्रथम (साझा संकलन) लायंस पब्लिकेशन।
प्रकाशनाधीन : व्यंग्य चालीसा (साझा संकलन) किताबगंज प्रकाशन, गिरने में क्या हर्ज है -(५१ व्यंग्य रचनाओं का संग्रह) भावना प्रकाशन। देश विदेश के जाने माने दैनिकी, साप्ताहिक पत्र और साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित रूप से लेख प्रकाशित
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।












