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राखी बनाम वचन पर्व

डॉ. अवधेश कुमार “अवध”
भानगढ़, गुवाहाटी, (असम)
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थाल सजाकर बहन कह रही,
आज बँधालो राखी।
इस राखी में छुपी हुई है,
अरमानों की साखी।।
चंदन रोरी अक्षत मिसरी,
आकुल कच्चे-धागे।
अगर नहीं आए तो समझो,
हम हैं बहुत अभागे।।

क्या सरहद से एक दिवस की,
छुट्टी ना मिल पायी?
अथवा कोई और वजह है,
मुझे बता दो भाई ?
अब आँखों को चैन नहीं है
और न दिल को राहत।
एक बार बस आकर भइया,
पूरी कर दो चाहत।।

अहा! परम सौभाग्य कई जन,
इसी ओर हैं आते।
रक्षाबंधन के अवसर पर,
भारत की जय गाते।।
और साथ में ओढ़ तिरंगा,
मुस्काता है भाई।
एक साथ मेरे सम्मुख हैं,
लाखों बढ़ी कलाई।।

बरस रहा आँखों से पानी,
कुछ भी समझ न आये।
किसको बाँधू, किसको छोड़ू,
कोई राह बताए?
उसी वक्त बहनों की टोली,
आई मेरे द्वारे।
सोया भाई गर्वित होकर,
सबकी ओर निहारे।।

अब राखी की कमी नहीं है
और न कम हैं भाई।
अब लौटेगी नहीं यहाँ से,
कोई रिक्त कलाई।।
लेकिन मेरे अरमानों को,
कौन करेगा पूरा?
राखी के इस महापर्व में,
वचन रहे न अधूरा।।

गुमसुम आँखों को पढ़ करके,
बोल उठे सब भाई।
पहले वचन सुनाओ बहनों,
कुर्बानी ऋतु आई।।
बहनों ने समवेत स्वरों से,
कहा सुनो रे वीरा !
“धरती पर कोई भी नारी,
न हो दुखी अधीरा।।”

दु:शासन की वक्र नजर से,
छलनी ना हो नारी।
रक्षा करना चक्र उठाकर,
केशव कृष्ण मुरारी।।
इसी वचन के साथ चलो सब,
राखी पर्व मनायें।
मानवता के हेतु गर्व से,
नाते-धर्म निभायें।।

नारी का सम्मान जगत में,
होना बहुत जरूरी।
दुखी ना रहे कोई नारी,
ना हो अब मजबूरी।।
भाई की कुर्बानी पर तब,
होगा असली तर्पण।
अवध देश की हर नारी
रक्षार्थ वीर हो अर्पण।।

परिचय :- डॉ. अवधेश कुमार “अवध”
सम्प्रति : अभियंता व साहित्यकार
निवासी : भानगढ़, गुवाहाटी, (असम)
शपथ : मेरे द्वारा यह प्रमाणित किया जाता है कि मेरी यह रचना पूर्णतः मौलिक, स्वरचित और अप्रकाशित हैं।


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