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आ न सकूँगी इस राखी में भैया कुछ मजबूरी है

भीमराव झरबड़े ‘जीवन’
बैतूल (मध्य प्रदेश)
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आस मिलन की माँ बापू से,
फिर इस साल अधूरी है।
आ न सकूँगी इस राखी में,
भैया कुछ मजबूरी है।।

पैरोकार नहीं है कोई,
निष्ठुर यहाँ जमाने में।।
सदय ससुर पर मिर्ची ननदी,
शातिर है भड़काने में।
कटुक करेले-सी सासू के,
मुख में बस अंगारे है,
माहिर हैं सब पास पड़ोसी,
घर में आग लगाने में।।

गऊ सरीखे जीजा तेरे,
देवर मीठी छूरी है।
आ न सकूँगी इस राखी में,
भैया कुछ मजबूरी है।।१

बीज खाद की चढ़ी उधारी,
गेह गिरस्थी है घायल।
खेतों में हो सकी बुआई,
जब गिरवी रख दी पायल।
भैंस बियानी घर की जब से,
बंद दूध की चंदी पर,
मुझे दिहाड़ी मिल जाती है,
पंचायत जो है कायल।।

पेट पालने को सच भैया,
कुछ श्रमदान जरूरी है।
आ न सकूँगी इस राखी में,
भैया कुछ मजबूरी है।।२

नाम लिखाया है काॅलिज में,
बिटिया का रजधानी में।
फेल हो गया गुड्डू फिर से,
फीस गई सब पानी में।
किस्मत की काली रातों से,
रोज-रोज लड़ती हूँ पर,
दुख ढो-ढोकर भीग गया मन,
टूटी छप्पर छानी में।

छलनी-छलनी बेबस तन से,
गायब सुख-कर्पूरी है।
आ न सकूँगी इस राखी में,
भैया कुछ मजबूरी है।।३

भावों में बहकर भैया कुछ,
लिख डाला मैंने ज्यादा।
मत कहना पर माँ बापू से,
यह दुख है उनने लादा।
माँ बापू की सोन चिरैया,
है बस जख्मी थोड़ी सी।
बची-जिऊँ तो अगले सावन,
आने का करती वादा।।

लाज बचाऊँ दो कुल की मैं,
जिम्मेदारी पूरी है।
आ न सकूँगी इस राखी में,
भैया कुछ मजबूरी है।।४

परिचय :- भीमराव झरबड़े ‘जीवन’
निवासी : बैतूल मध्य प्रदेश
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।

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