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जिंदगी के दिये

राजेन्द्र लाहिरी
पामगढ़ (छत्तीसगढ़)
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लंबा होता जा रहा है सफर,
काम का भी और जिंदगी का भी,
आकलन करने पर
परिणाम दिखता है सिफर,
जब जब जिस-जिस
जगह से हुआ लगाव,
जल्द ही मिला बिछड़ाव,
क्या करे बंधे हुए हैं
कुछ नियम तो
कुछ परिपाटी से,
दूर हो गए बचपन में
खेली सोंधी माटी से,
जनाब ये जीवन की गाड़ी है,
चलना-चलाना
नहीं आता अनाड़ी हैं,
बस छोड़ दिए हैं खुद को
प्रकृति और
कुदरत के हाथों,
हर आदेश को
लगाए सर माथों,
पर मैं इन स्थितियों
से उदास नहीं हूं,
उमंगों से भरा हूं
हताश नहीं हूं,
हां कर नहीं पाया
अपने मन की,
कभी परवाह नहीं
कर पाया धन की,
अपनी आवश्यकताओं
को रखा हूं सीमित,
पर अपनों की चाहत
है असीमित,
अपनी पहुंच तक
हाथ-पांव मार रहा हूं,
मगर अभी भी चादर
जितनी पांव पसार रहा हूं,
भले आशाएं आकांक्षाएं
नहीं मारता उछाल,
जिसके लिए रखा हूं
खुद को संभाल,
देखता हूं सफर कितना
लंबा चलता है,
जिंदगी के दिये में
तेल कितना बाकी है
और
कितनी देर जलता है।

परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी
निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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