दो जून रोटी खातिर
वीणा वैष्णव
कांकरोली
********************
दो जून रोटी की खातिर,जान बाजी लगा रहा।
यह दुनिया एक रंगमंच,वह करतब दिखा रहा।
अपनों की परवाह उसे,दर-दर ठोकर खा रहा।
आएंगे शायद अच्छे दिन,इसी उम्मीद जी रहा।
दो जून रोटी खातिर.................
बड़े-बड़े बंगले देख,वो मन ही मन खुश हो रहा।
कितना सुकून होगा उसमें, वो नादान सोच रहा।
तभी किसी ने आवाज लगाई, काम करोगे क्या।
मीठे सपनों से जागा,जी आया हुकुम कह रहा।
दो जून रोटी की खातिर.............
दो जून रोटी के खातिर, वह कितना तरस रहा।
रोटी चीज नहीं है छोटी,महत्व अब समझ रहा।
अपने बच्चों के आंसू देख,वो खून आंसू रो रहा।
गरीब होने की सजा,देखो बहुत ज्यादा पा रहा।
दो जून रोटी खातिर ...............
अपना देश छोड़, रोटी तलाश विदेश जा रहा।
लाखों व्यर्थ लूटा देंगे, गरीब न कोई सुन रहा।
सारे गुनाह इसी के पीछे, वह मासूम कर रहा।
कहे वीणा दो जून रोटी लिए,जहा भटक रहा...
























