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कल का शख्स
कविता

कल का शख्स

श्याम सिंह बेवजह नयावास (दौसा) राजस्थान ******************** देख कर मैं आर्श्चयचकित रह गया जब कल का शख्स अपना कह गया ता उम्र सिंचा जिस व्रक्ष को अपने लिए बांध कर रखा जिस ड़ोर से वह घह गया हालात बदत्तर होते देख अश्क़ झलक गए लफ़्ज न निकला एक आज चुपचाप सह गया घूटन होने लगी आज उसी आशियाँ में जो पुरखों का सपना था मगर ढ़ह गया देख़ ऐ ताक़त उस जोरू की सिर गर्माया है लग़ने लगा है ग़लत उगाया व्रक्ष जो बह गया हर सपना अधूरा सा नज़र आने लगा है सब तेरी वज़ह से ये अपनी मां से कह गया ज़माना बदलने की हद्द शिकायतें दर्ज बहुत उठीं कलम "श्याम सिंह" लिखा जो चह गया   परिचय :-  श्याम सिंह बेवजह निवासी : नयावास (दौसा) राजस्थान आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने हेत...
तोड़ दे रंजिशें
गीत

तोड़ दे रंजिशें

जितेन्द्र रावत मलिहाबाद लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** तोड़ दे रंजिशें मैं मुक्कदर तेरा। तू है नींद मेरी मैं हूँ ख़्वाब तेरा। तू है बेचैन क्यों मेरी दिलरुबा। आँखों को अश्क़ों में मत डूबा। तू है सवाल मेरा मैं हूँ जवाब तेरा। तू है नींद मेरी मैं हूँ ख़्वाब तेरा। बेहिसाब रब से इबादत की। उन दुवाओ में तेरी चाहत थी। तू है दौलत मेरी, मैं हिसाब तेरा। तू है नींद मेरी, मैं हूँ ख़्वाब तेरा तू सियासत के जैसे बदलना नही। मेरे प्यार को दीवार में चुनना नही। तू है अनारकली मेरी, मैं हूँ नवाब तेरा। तू है नींद मेरी, मैं हूँ ख़्वाब तेरा। बेचैनी क्यों तू दिल में सजी। सूरत तेरी, आँखों में बसी। तू है मन्नत मेरी, मैं सवाब तेरा। तोड़ दे रंजिशें मैं मुक्कदर तेरा। तू है नींद मेरी, मैं हूँ ख़्वाब। . परिचय :- जितेन्द्र रावत साहित्यिक नाम - हमदर्द पिता - राधेलाल रावत निवासी - ग्राम कसमण्डी कला, ...
अखबार वाला
कविता

अखबार वाला

मुकुल सांखला पाली (राजस्थान) ******************** आता है वह अलसुबह सूर्य की पहली किरण के साथ टूटे चप्पल और पुराने कपडे अपनी साईकील पर थैला लिए और लाता है चंद पन्नों में समेटकर सारा संसार कुछ मीठी कुछ खट्टी खबरे होती है कुछ तीखी और कुछ चटपटी कहीं होता है राजनीति का दंगल कहीं बिखरा रहता है खेल होती है बाते फिल्मी जगत की कुछ मनोरंजन और होता है कुछ व्यापार कमाने को दो वक्त की रोटी बिक जाता है पूरा बचपन खिसकाकर अखबार हर दरवाजे के नीचे से भागता है स्कूल की और पढने की चाह इतनी बस मिल जाए वक्तौर जगह लाता है सूखी रोटी और थोडा अचार देने को आकार अपने सपनों को मजबूरी में करता है मजदूरी कोई और नहीं है वह भविष्य को खोजता अखबार वाला . परिचय :- मुकुल सांखला सम्प्रति : अध्यापक राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय, खिनावडी, जिला पाली निवासी : जैतारण, जिला पाली राजस्थान आप भी अपनी कविताएं, कहानियां,...
मां और ममता
दोहा

मां और ममता

शुभा शुक्ला 'निशा' रायपुर (छत्तीसगढ़) ******************** माता ऐसी छावनी जा में कुटुंब समाए अपने बच्चो के गुण अवगुण छाती में लेत बसाय माता ऐसी शख्सियत जिसके सामने कुछ भी नहीं सारी दुनिया चूक करे पर मां कभी गलती करती नहीं सबसे पहले जन्म देकर लाती हमे इस दुनिया में कैसे कैसे कष्ट भोगकर पालती हमें इस दुनिया में बच्चे उसके कैसे भी हों होते उसकी आंख के तारे बेटी हो या फिर हो बेटा दोनों उसको जान से प्यारे यशोमती मैया बनकर कान्हा को माखन रोटी खिलाती महिषासुरमर्दिनी बनके फिर भक्तों को दुष्टों से बचाती लाख बुराई हो औलाद में पर वो किसी की नहीं सुनती उसकी अंधी ममता के आगे किसी की नहीं चलती मां का है अद्भुत दरबार जिसमें त्याग प्रेम और बलिदान जिसने जो चाहा वो पाया मिलता उसे पूरा सम्मान मदर टेरेसा भी इक मां थी करुणामयी ममता की मूरत कितने भूखे नंगों ने देखी इनमें अपनी मां की सूरत अपनी मां की क...
जागो
कविता

जागो

ओमप्रकाश सिंह चंपारण (बिहार) ******************** जागो जागो हे आर्यपुत्र विषम काल है फिर आया! जागो जागो हे नटवर फिर तू प्रलयकाल है फिर आया! उठा गांडीव फिर तू अर्जुन महासमर है फिर छाया! शंखनाद तू कर हे योगेश्वर विषमकाल है फिर आया! जागो जागो हे परशुराम हवन कुंड है मुरझाया! फिर तू परशु प्रहार कर अनाचार घनघोर छाया! दीपक की लौ मुरझाने को है विद्वेष भाव है पतित फैलाया! धर्म ध्वज अब फहराआओ महा समर का क्षण आया! 'सत्यमेव'अटूट वाक्य हो सिंघनाद का वह क्षण आया! राष्ट्रप्रेम से बढ़कर कुछ नहीं? सृजन काल है फिर आया! जागो -जागो हे नटवर फिर से 'प्रलयकाल' काल है फिर आया! उठा सागर में 'महाज्वार' है जागो जागो हे महामाया! . परिचय :- ओमप्रकाश सिंह (शिक्षक मध्य विद्यालय रूपहारा) ग्राम - गंगापीपर जिला - पूर्वी चंपारण (बिहार) सम्मान - हिंदी रक्षक मंच इंदौर (hindirakshak.com) द्वारा हिन्दी रक्षक २०२० सम्म...
अंधेरे में जो मुस्करा दे
कविता

अंधेरे में जो मुस्करा दे

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** घनश्याम कहते हैं अंधेरे में जो मुस्करा दे, उसे दीप कहते हैं, मोती है जिसके अंतर में, उसे सीप कहते हैं, दिल में उठी तरंग को, उमंग कहते हैं, करदे जो अपने जैसा, उसे रंग कहते हैं, चले जो निरंतर उसे, अविराम कहते हैं, बस जाये जो धड़कन में, उसे घनश्याम कहते हैं। . परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख...
माँ गाँधारी
कविता

माँ गाँधारी

मीना सामंत एम.बी. रोड (न्यू दिल्ली) ******************** सुनो हे गाँधारी माँ तुम से कुछ कहना चाहती हूँ, महाभारत खत्म जीवन की,खुश रहना चाहती हूँ! महाभारत सी घटना घटी है, मेरे भी इस जीवन में, जिसकी थकन अभी तक बाकी हैं मेरे तन मन में! जल्दी ही गुजरा मेरा बचपन और जवानी पूरी हुई, आधी अधूरी और एक कड़वी सी कहानी पूरी हुई! जीवन में यूँ कभी किसी के ऐसे भी दुर्दिन फिरे नहीं, किसी और का दुखड़ा किसी और हिस्से गिरे नहीं! मन की चिड़िया उड़कर देखती है मुझको चहुंओर, ऐसे लगता अंबर नाप रहा है नैनों से धरती का छोर! है जीवन का यह तृतीय चरण मेरी सेवा का मोल दो, सांसरिक मोह माया की पट्टी इन नयनों से खोल दो! . परिचय :- मीना सामंत एम.बी. रोड (न्यू दिल्ली) आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर ...
प्रीत की पाती: पंचम स्थान प्राप्त रचना
कविता

प्रीत की पाती: पंचम स्थान प्राप्त रचना

रशीद अहमद शेख 'रशीद' इंदौर म.प्र. ******************** मन मलिन है, सुख नही वैभव नहीं! प्रेम की पाती लिखूँ संभव नहीं! सुप्त है स्वर्णिम सबेरा, दु खों ने डाला है डेरा! हैं नहीं आशा की किरणें, जग में छाया है अंधेरा! जो करे आलोक वह अर्णव नहीं! प्रेम की पाती लिखू संभव नहीं! मौन हैं सब ओर व्यापित, नाद लगता है पराजित! क्षण-प्रतिक्षण है उदासी, दिवस शापित,निशा शापित! कौनसा स्थल है जो नीरव नहीं है! प्रेम की पाती लिखूँ संभव नहीं है! अपने घर में बन्द हैं सब, अनमने आनन्द हैं सब! दृष्टिगत एकल अधिक हैं, अगोचर पथ-वृन्द हैं सब! पूर्ववत अब श्रव्य जन-कलरव नहीं! प्रेम की पाती लिखूँ संभव नहीं! हुए हैं अगणित प्रभावित, काल भी है स्वयं विस्मित! समस्या-पर्वत खड़े हैं, सभी सम्मेलन हैं वर्जित! त्रासदी-पीड़ित कहाँ मानव नहीं! प्रेम की पाती लिखूँ संभव! . परिचय -  रशीद अहमद शेख 'रशीद' साहित्यिक उपनाम ~ ‘रशीद...
प्रीत की पाती: चतुर्थ स्थान प्राप्त रचना
कविता

प्रीत की पाती: चतुर्थ स्थान प्राप्त रचना

विमल राव भोपाल म.प्र ********************   प्रीत की पाती लिखे, सीता प्रिये प्रभु राम कों। प्रीत की पाती लिखे, राधा दिवानी श्याम कों॥ प्रीत के श्रृंगार से, मीरा भजे घनश्याम कों। प्रीत पाती पत्रिका, तुलसी लिखे श्री राम कों॥ प्रीत की पाती बरसती, इस धरा पर मैघ से। प्रीत करती हैं दिशाऐं, दिव्य वायु वेग से॥ प्रीत पाती लिख रहीं हैं, उर्वरा ऋतुराज कों। हैं प्रतिक्षारत धरा यह, हरित क्रांति ताज़ कों॥ प्रीत पाती लिख रहीं माँ, भारती भू - पुत्र कों। छीन लो स्वराज अपना, प्राप्त हों स्वातंत्र कों॥ धैर्य बुद्धि और बल से, तुम विवेकानंद हों। विश्व में गूंजे पताका, तुम वो परमानंद हों॥ प्रीत पाती लिख रहा हूँ, मैं विमल इस देश कों। तुम संभल जाओ युवाओ, त्याग दो आवेश कों॥ वक़्त हैं बदलाव का, तुमभी स्वयं कों ढाल लो। विश्व में लहराए परचम, राष्ट्र कों सम्भाल लो॥ . परिचय :- विमल राव "भो...
प्रीत की पाती: तृतीय स्थान प्राप्त रचना
कविता

प्रीत की पाती: तृतीय स्थान प्राप्त रचना

विवेक रंजन 'विवेक' रीवा (म.प्र.) ******************** जाने कब से रहा निरखता, मैं अपनी प्यारी सजनी को। कुछ धूप चुरा के ऊषा की, कुछ देर लजाती रजनी को। कितना भोला स्निग्ध है चेहरा, कुछ बूंदें शबनम पलकों में। क्या अद्भुत सिंगार किसी ने, काजल बिखरा दी अलकों में। मधुकलश सजे हैं अधरों पर, दिल में सागर की गहराई। झील के दरपन सा अन्तर्मन, मन की लहर वहाँ लहराई। पलकों की पढ़ पढ़ के इबारत, प्रणय के कितने गीत लिखे। तब जन्मों का साथ निभाने, तुम बनकर मन मीत मिले। बारात सजी अब अरमानों की, प्रणय प्रीति परिधान लिये। बेकल से दिल को चैन मिलेगा, तुमको पाकर प्राणप्रिये ! छनकती पायल आस बंधाती, अभिलाषा के गीत सजाती। कुछ दिन का बस धीर धरो, सनद रहे ये प्रीत की पाती। यह प्रेम चिरन्तन बना रहेगा, रोम रोम हर साँस तुम्हारी। बरस पड़े अब प्रेम सुधा रस, बाट जोहता प्रेम पुजारी। . परिचय :- विवेक रंजन "विवेक" जन्म -१६ मई १९६...
प्रीत की पाती: द्वितीय स्थान प्राप्त रचना
कविता

प्रीत की पाती: द्वितीय स्थान प्राप्त रचना

डॉ. भावना व्यास इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** प्रिय बोलो कुछ कि ताल में पद्म प्रतीक्षा करते खिलने की, भौरों की गुंजन सुनने की, अधरों से उनके मिलने की, तुम देखो कि जीवन भानु सब ही मद्धम होते जाते, टिमटिम करते तारे भी हैं इक-इक कर के खोते जाते, ईश स्वयं अवतार लिए आए इस जग से जाने को, कोष अनंत पर समय अल्प मिलता है इसे लुटाने को, नहीं कोई वसु जो इस जग से इच्छा होने पर जाएंगे, उत्तरायण के आने की प्रतीक्षा ना हम कर पाएंगे, क्यों नहीं दिखता है मुख तुमको काल के काले सर्प का कुचला निगला है जिसने सिर प्रत्येक ही के दर्प का, देखो हम बढ़ते जाते हैं इस सिरे से उसके ही मुख को, सीमित घड़ियां प्राणेश रहीं, जी लो दुख को या सुख को रे धीरधारी ! त्याग धीर अंगुलियों की मुद्रिका करो और नैनों का दर्पण, श्रृंगार यही मोहे सोहते, आभूषण मात्र समर्पण, देखो कितनी ही रेखाएं मस्तक पर बढ़ती जाती हैं, हैं ...
प्रीत की पाती: प्रथम स्थान प्राप्त रचना
कविता

प्रीत की पाती: प्रथम स्थान प्राप्त रचना

निर्मल कुमार पीरिया इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** व्योम भी भीगा भीगा था, हिय रोशनी, थी रही थिरक, कंपकपाते उन पलों में, मन-चंचल बूंदे,थी रही बहक, रति भी दोहरा रही थी, देव के तंग, वलय बाहुपाश में शीत-तपती, नील-निशा जब, प्रीत अग्न,थी रही दहक... अधरों के खिलने से तकती, श्वेत मोती माल चमक, रक्त कमल पंखुड़ियों के मध्य, मंदहास की महक, मयकदो की रागिनी सी, मनोवल परिहास की खनक, अँगप्रत्यंग खिल उठा जब, कांधे बिखरे संदली अलक... मृगनयनी बाणों ने छुआ, तप्त दहकते नीर मन को, पाषाण समदृश्य उर था जो, मोम सा पिघलने लगा, शब्दो का बंधन था पर, वाचाल दो नयन बतिया रहे, ओष्ठ जब लरजने लगे, ते निश प्रेम गान बहने लगा... ओस की अनछुई बूंदों को, ले मसि रचु, नव प्रीत गान, अवनी जो हैं प्रेम पटल सम, अंबर से झरता शब्द गान, बिन रचे ही काव्य हो तुम, शेष रही ना कोई व्यंजना, प्रीत ग्रन्थ तुम, बाचु मैं, रचे ना ...
अस्तित्व
कविता

अस्तित्व

शोभा रानी खूंटी, रांची (झारखंड) ******************** नारी तु सदैव है हारी जग जीत कर अपने रिश्तों से हारी जन्म के समय पुत्री बर कर हारी तरूनाई में प्रमिका बर कर हारी पति के घर बहु व पत्नी बन कर हारी माँ बन कर अपने बच्चों से हारी सास बन कर अपने बच्चों से हारी कभी आधी कभी पूरी मुस्कराते हुए तु हर रिश्तें से हारी कभी अपना अस्तिव मिटा कर कभी अपना आत्म सम्मान छोड़ की कभी सर्वस्व बलिदान कर तु अबला बन सारे संसार से हारी चाहे हो वो युग श्री राम का या समय चक्र में बदला युग आज का कभी माँ सीता के रूप में तु जीवन के पग-पग में रिश्तों से हारी हे नारी, हे नारी तु मुस्कुराते हुए सदैव हारी धर्म कहे तु आदिश्क्ति कर्म कहे तु धरती सृष्टि कहे तु पूजनीय मनुष्य कहे तु जीवनदायी भटक रही हुँ बस एक सवाल लिये कहाँ तेरा आस्तित्व है, हे नारी आखिर तु कैसे पूजनीय, कैसे महालक्ष्मी शक्त...
ज्ञान का भंडार है पुस्तक
कविता

ज्ञान का भंडार है पुस्तक

श्रीमती शोभारानी तिवारी इंदौर म.प्र. ******************** ज्ञान का भंडार है, भाषाओं का विस्तार है, जीवन के नींव का पत्थर, प्रगति का आधार है। ज्ञान का फैला प्रकाश, सभ्यता का हुआ विकास, डूबेंगे जितना मिलेगा उतना, भूगोल विज्ञान का इतिहास। पढ़ लिखकर बने बुद्धिमान, यथार्थ से होती पहचान, चिंतन भी संभव है, मानव का होता कल्याण। विचारों में परिवर्तन हो जाता, अंधकार दूर हो जाता, पुस्तक के प्रभाव से, पूरा जीवन ही बदल जाता। एक अच्छी मित्र बनकर, मन को आनंदित करती है, प्रेम करना सिखाती, शब्द को आकार देती है। दुःख सुख मेंसमभाव रखती, नैतिकता का पाठ पढ़ाती है, चुपचाप रहती नहीं बोलती, बिन बोले सब कह जाती है। उपनिषद और पुराण रामायण गीता और कुरान, धर्म ग्रंथ सबसे महान हर ग्रंथ को मेरा प्रणाम, हर ग्रंथ को मेरा प्रणाम। . परिचय :- श्रीमती शोभारानी तिवारी पति - श्री ओम प्रकाश तिवारी जन्मदिन - ३०/०६/१९५७ ज...
मैं कुछ कह रही हूँ
कविता

मैं कुछ कह रही हूँ

अनुश्री अनीता मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** ये कविता खुद के जीवन पर आधारित है। छोटी उम्र में शादी के बन्धन मे जब लडकी को बाँध दिया जाता है... स्त्री के अंतर्मन की आवाज कच्ची उम्र के पक्के रिश्ते... बाबुल के आंगन से... पिया की दहलीज तक। घर से परायी हुई तो नये अन्जान लोंगो मे आयी। जेसे धान को, क्यांरियो से निकालकर ले जाया जाता हैं खेतों मे। फिर उन्हे दिया जाता है बहुत सारा पानी अपनी जडे जमाने के लिये। पर नई जगह मे हमें वो पानी मिले ऐसी आशा बहुत कम ही होती है। सम्हलना होता हे अपने ही बलबूते पर और चलना होता है जीवन का एक एक कदम वॅहा कोई खुद को नहीं बदलता हमें ही बदलना होता है खुद को कोई इन्तजार नहीं करेगा हमारे धीरे-धीरे सीख जाने का हम ढाल लेते हें खुद को सबकी जरूरतो के हिसाब से। और चल पडती हें गाडी हिस्सा बनते जाते हैं हम सबकी जरूरतो का हमारे बिना पत्ता भी नहीं हिल पाता। सुन...
किताब
कविता

किताब

हिमानी भट्ट इंदौर म.प्र. ******************** किताब उठाकर पढ़ना चाहा, पर यह इंटरनेट आडे आ जाता है। अब तो इस इंटरनेट ने पुस्तकों का दाम घटा दिया है। उठाऊं किताबें, पढ़ु कुछ ज्ञान की बातें, दोहा और चौपाई, पर ये इंटरनेट आड़े आ जाता है। १ दिन लिख डाली खूब कविता कहानी, अब छपाकर बनाऊं संग्रहालय, और फिर से यह इंटरनेट आड़े आ जाता है। मान करो सम्मान करो, इसमें समावित सारा ज्ञान है। एक बार दिल से स्वीकार करोगे, समंदर की गहराई में खो जाओगे। कद्र करो, आज अनमोल किताबें बिक रही है रद्दी में। हो रहा है, दुरुपयोग । बन रही है, इन कागजों की पुड़िया दुकानों में। मत इतना इतराओ इंटरनेट पर, आज नहीं तो कल किताबों का मूल चुकाना है। पता है आज इंटरनेट का जमाना है, पर जब बिजली ही ना रही , तो सिर्फ किताबों का ज्ञान ही काम आना है। . परिचय :- हिमानी भट्ट ब्रांड एंबेसडर स्वच्छता अभियान, इंदौर न...
किताबें सबसे अच्छी दोस्त
कविता

किताबें सबसे अच्छी दोस्त

मंजुला भूतड़ा इंदौर म.प्र. ******************** कुछ होती हैं हल्की कुछ होती हैं भारी, लेकिन किताबों में होती दुनिया की हर जानकारी। कबीर के दोहे, संतों की वाणी, राम की कहानी तुलसी की जुबानी। हर धर्म का हर अध्याय, किताबों का नहीं कोई पर्याय। है ज़िन्दगी किताब-सी, किताब-सा जिन्दगी में कोई नहीं। कुछ नया करने की खोज जुड़ाव बना रहे रोज़, क्योंकि क़िताबें होती हैं, सबसे अच्छी दोस्त। किताबें हर घर में बसती, समझें मूल्य तो लगें सस्ती, वरना चुपचाप ही रहतीं कुछ भी नहीं कहतीं। परिचय :-  नाम : मंजुला भूतड़ा जन्म : २२ जुलाई शिक्षा : कला स्नातक कार्यक्षेत्र : लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता रचना कर्म : साहित्यिक लेखन विधाएं : कविता, आलेख, ललित निबंध, लघुकथा, संस्मरण, व्यंग्य आदि सामयिक, सृजनात्मक एवं जागरूकतापूर्ण विषय, विशेष रहे। अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक समाचार पत्रों तथा स...
किताब
कविता

किताब

माया मालवेन्द्र बदेका उज्जैन (म.प्र.) ******************** दर्शन यह जीवन पूरा या किताब है पूरा जीवन। हर पल हर क्षण का हिसाब रखती। किताब है पूरा जीवन। बरसे जब जब नयनों से कातर आंसूओं ने भिगोया इसे। शब्द शब्द पगडंडी बनकर समाया इसमें। भावों के समंदर का वेग का किताब है पूरा जीवन। दर्द की चीखों ने दबा ली आवाज उतार लिया अपने पन्नो पर किताब है पूरा जीवन। खोजते सत्य को पथ चले पथिक दर्शन ज्ञान करा कर समाहित करती किताब है पूरा जीवन। विरहणी का विरह हो या रण में संग्राम मानक तय करती वृतांत लिखती किताब है पूरा जीवन। इतिहास रच लेती सीने पर शीलालेख सी अटल रहती किताब है पूरा जीवन। महकती कभी चहकती कभी भौरौं सी मंडराती। शब्दों के गुंजन का कितना है पूरा जीवन। झरौखा यादों का विस्मृत न होने देती भूल भूल्लैया पन्नों पर गलियारें किताब है पूरा जीवन। दूर सूदूर अखिल विश्व की सेतु बन भ्रमण कराती किताब है पूरा...
कोरोना से डरे ना
कविता

कोरोना से डरे ना

मुकुल सांखला पाली (राजस्थान) ******************** आज व्यथित जरूर है मन, मगर डरना हमें मंजूर नहीं, लडना है इस मुश्किल से किन्तु हारना हमें मंजूर नहीं। हाथ न मिलाना, गले न लगाना, सबसे हमें रहना है दूर, कोरोना भी हार जाए, कर दो उसे इतना मजबूर। सरकार ने दिये है निर्देष, लाॅकडाउन है सारा प्रदेश, अगर अब भी बाज न आए तो संकट में होगा सारा देश। इसे बंदिशे न तुम समझो, ये तो हमारी फिक्र है, आज जन-जन की जुबा पर कोरोना का ही जिक्र है। थोडी सी हिम्मत और विष्वास दे देंगे कोरोना को मात, जागरूक रहो, जागरूक रखो, याद रखो मुकुल की यह बात। डाॅक्टर्स, आर्मी व पुलिस का हम करते अभिनंदन है, राष्ट्र सेवा में लगे वाॅरियर्स को मेरा शत् शत् वंदन है। . परिचय :- मुकुल सांखला सम्प्रति : अध्यापक राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय, खिनावडी, जिला पाली निवासी : जैतारण, जिला पाली राजस्थान आप भी अपनी कविताएं, क...
गंगा अब मैली नहीं
कविता

गंगा अब मैली नहीं

कंचन प्रभा दरभंगा (बिहार) ******************** सुनाई देती है वही सुरीले पंछी की चहचहाहट फिर से है हवाओं में शीतल सी वही गीतों की गुनगुनाहट फिर से दिखाई देती है अब साँझ की दुल्हन में शरमाहट फिर से फूलों पर रंगीन तितलियों की नजर आती है फड़फड़ाहट फिर से गंगा भी अब मैली नहीं उसकी निर्मलता में है सरसराहट फिर से प्रदूषण की धुँध हुई विलय अब इन वादियों में आई है खिलखिलाहट फिर से धानी चुनर वह आसमान में रुई के बादलों में गड़गड़ाहट फिर से सफेद मोतियों की बूंदों में है छम छम पायल की छमछ्माहट फिर से प्रकृति की साँसो पर सजती है सदियों पुरानी वही मुस्कुराहट फिर से रजनी की गोद में सजी पृथ्वी की वही स्वर्ण कमल सी टिमटिमाहट फिर से . परिचय :- कंचन प्रभा निवासी - लहेरियासराय, दरभंगा, बिहार सम्मान - हिंदी रक्षक मंच इंदौर (hindirakshak.com) द्वारा हिन्दी रक्षक २०२० सम्मान से सम्मानित...
दिल अश्कों से जला गये
ग़ज़ल

दिल अश्कों से जला गये

विवेक रंजन 'विवेक' रीवा (म.प्र.) ******************** धुआँ दूर उठता रहा वो दिल अश्कों से जला गये, धुंध छटी तो फिर भी आँसू रुके नहीं छलछला गये। यादों के भीगे दर्पण में वो खुद को खोजते ही रहे, पलकें फिर से सजल हुईं और अक्स धुँधला गये। कैसे और भला किसको फूलों के हार दिये जायें, बाग़ेवफा में जाने क्यों सब गुलदस्ते कुम्हला गये। चुप रहने की ठानी थी जाने क्यों मौसम बदल गया, वो प्यार का इज़हार कर खामोश लब सहला गये। अपने तो सफर का सबब है मुख्तसर 'विवेक', उनकी राहों में फूल बिछाते हम काँटों पे चला करें। . परिचय :- विवेक रंजन "विवेक" जन्म -१६ मई १९६३ जबलपुर शिक्षा- एम.एस-सी.रसायन शास्त्र लेखन - १९७९ से अनवरत.... दैनिक समय तथा दैनिक जागरण में रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। अभी हाल ही में इनका पहला उपन्यास "गुलमोहर की छाँव" प्रकाशित हुआ है। सम्प्रति - सीमेंट क्वालिटी कंट्रोल कनसलटेंट के रूप में वि...
खानाबदोश
कविता

खानाबदोश

गोरधन भटनागर खारडा जिला-पाली (राजस्थान) ******************** बस! खाने की आस में भटकते दिन-रात। सब कुछ बन्द हैं, काम की पाबन्दी हैं।। शहरों की तालाबन्दी हैं। घर इनके भी मन्दी हैं।। कुदरत की लीला हैं, या करामात इन्सान की। मगर कैसे मैं समझाऊँ मन को, क्या गलती हैं इन सब की। कुछ भूखे ही सो गये। कुछ दुर क्षितिज में खो गए।। कुछ अपनो से मिले बिना ही। धरा में विलीन हो गए। कमाना मकसद नहीं इनका। बस खाना और पेट भरना।। ये भी रास न आया कुदरत को। ये शामिल नहीं थे तेरे ह्वास में।। फिर क्यूँ इनको भी गिन लिया। सबकुछ इनका छीन लिया।। . परिचय :- नाम : गोरधन भटनागर निवासी : खारडा जिला-पाली (राजस्थान) जन्म तारीख : १५/०९/१९९७ पिता : खेतारामजी माता : सीता देवी स्नातक : जय नारायण व्यास यूनिवर्सिटी जोधपुर आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के ...
क़ुर्बान रहा आया
कविता

क़ुर्बान रहा आया

आशीष तिवारी "निर्मल" रीवा मध्यप्रदेश ******************** दोस्त ही दुश्मन निकला, मैं अंजान रहा आया वो फरेबी खुदा हो गया, मैं इंसान रहा आया! कलयुगी तहजीबी बयारों से होकर बेपरवा मैं तो केवल मिशाल-ए-ईमान रहा आया! शिकायत उसकी करता भी तो क्या करता वह तो अपनेपन से भी बेजान रहा आया! निभा ना सको रफ़ाक़त तो दिखावा कैसा मेरे दिल में सवाल ये बड़ा नादान रहा आया! हर घड़ी करता ही रहा जो सबसे मेरी बुराई, पत्थर दिल के लिए निर्मल क़ुर्बान रहा आया!   परिचय :- कवि आशीष तिवारी निर्मल का जन्म मध्य प्रदेश के रीवा जिले के लालगांव कस्बे में सितंबर १९९० में हुआ। बचपन से ही ठहाके लगवा देने की सरल शैली व हिंदी और लोकभाषा बघेली पर लेखन करने की प्रबल इच्छाशक्ति ने आपको अल्प समय में ही कवि सम्मेलन मंच, आकाशवाणी, पत्र-पत्रिका व दूरदर्शन तक पहुँचा दीया। कई साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित युवा कवि आशीष त...
सृष्टि के रुप
कविता

सृष्टि के रुप

निर्मल कुमार पीरिया इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** कभी रँगी मैं, श्वेत धवल से, कभी सजी, ओढ़ धानी रँग, पहन हरा, झूमी मैं उपवन, इतराई रही, ले फागुनी रँग... कभी महकू, अमराई से मैं, कभी बिखरु, बन गुलमोहर, कानन-कानन,चमक रही मैं, अंशु झलकी, ज्यो गजगौहर... तृण, तरु, लता, अनिल, हूं मैं, निर्झर की, कल कल निर्मल मैं, बनी कही, मैं किरीट धरा का, हूं, अवनि से अंबर तक मैं... मैं ही जननी, हूं पालक भी मैं, हूं सृष्टि और आदि अंनत मैं, नीलकंठ बन, सब सहेज रही मैं, वक्त थमा हैं, जो महक रही मैं... . परिचय :- निर्मल कुमार पीरिया शिक्षा : बी.एस. एम्.ए सम्प्रति : मैनेजर कमर्शियल व्हीकल लि. निवासी : इंदौर, (म.प्र.) शपथ : मेरी कविताएँ और गजल पूर्णतः मौलिक, स्वरचित और अप्रकाशित हैं आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हि...
पृथ्वी है वरदान
गीत

पृथ्वी है वरदान

अख्तर अली शाह "अनन्त" नीमच ******************** पृथ्वी है वरदान प्रभु का, इसको गले लगाएं हम। इसे सजाएं इसे संवारें, जीवन सफल बनाएं हम।। रहने की है जगह यही तो, पालन पोषण करती है। बाद मृत्यु के आश्रय देने, वाली भी ये धरती है।। जीवन की क्या कोई कल्पना, बिन इसके हो सकती है। इसीलिए तो धरती हमको, लोगों माँ सी लगती है।। माँ माने हम माँ सा ही दें, मान इसे सुख पाएं हम। इसे सजाएं इसे संवारें, जीवन सफल बनाएं हम।। धरती को धनवान रखें हम, कभी न निर्धन होने दें। जितना हो आवश्यक हम लें, नाहक इसे न रोने दें।। बंजर गर कर देंगे धरती, कैसे जान बचाएंगे। भूखे प्यासे रहना होगा, जीवन कैसे लाएंगे।। ऐसा ना हो छाती छलनी, करें और पछताएं हम। इसे सजाएं इसे संवारें, जीवन सफल बनाएं हम।। जैव विविधता हो तो धरती, कितनी सुंदर मन भाती। हरी हरी जब चादर ओढ़े, नई वधू सी इठलाती।। पेड़ अगर कट जायेंगे तो, क्या बरसात रिझा...