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सम्भल जाओ
कविता

सम्भल जाओ

मालती खलतकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** अट्टालिका में खो गये खेत खलियान मेड, मुंडेर बिखर गई नहीं कहीं पेड़ों के चिन्ह, निशान। पक्षी निहारते शून्य आंखों से आकाश पगडंडी पक्की सड़क में बदली गलियां सकरी थी चौड़ी हुईं गांव बदल गये शहर में गांवों का बदला ऐसा मौसम ठन्डक थी अब तपन हुई व जलकूप कलपूर्जो से ढंक गये नहीं दिखाई देता अन्दर कितना जल अट्टालिकाएं पी गई नहरों का जल नदियों को उघाडते रेत खनन पहाड़ों को चोटिल कर राह बनाई जा रहीं है न, पृकृति का दोहन। स्वार्थी मानव के लिये धरा धैर्यवान हे, साहसी है, सहती हैं इसलिए चुप है। जब धरा की पराकाष्टा होगी । तब स्वार्थी सम्भल नहीं पाएंगे अभी थरा मौन रहकर सह रही है रुक जाओ सम्भल जाओ। परिचय :- इंदौर निवासी मालती खलतकर आयु ६८ वर्ष है आपने हिंदी समाजशास्श्र में एम ए एल एलबी किया है आप हिंदी...
महादेवा
स्तुति

महादेवा

प्रीतम कुमार साहू लिमतरा, धमतरी (छत्तीसगढ़) ******************** (छत्तीसगढ़ी स्तुति) काल के महाकाल कहावय शिव शंकर महादेवा भक्तनमन के भाग जागे जेन करे तोर सेवा ।। अंग म राख, भभूत चुपरे बईला म करें सवारी भूत,प्रेत अउ मरी मसान जम्मों तोर संगवारी।I दानी नइ हे तोर असन कस हे सम्भू त्रिपुरारी कतका तोर जस ल गावँव महिमा हे बड़भारी!! गंगा हर तोर जटा म साधे, कहाय तँय जटाधारी बघुवा के तँय खाल पहिरे जय हो डमरूधारी !! गणेश अउ, कार्तिक लाल कहावय पार्वती सुवारी तोर पउँरी म माथ नवावँय जम्मो नर अउ, नारी !! असुर मन कतकोंन छलिस तोला सिधवा जान हलाहल के पान करइय्या नीलकंठ भगवान !! परिचय :- प्रीतम कुमार साहू (शिक्षक) निवासी : ग्राम-लिमतरा, जिला-धमतरी (छत्तीसगढ़)। घोषणा पत्र : मेरे द्वारा यह प्रमाणित किया जाता है कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आप...
आत्मदाह
कविता

आत्मदाह

डॉ. प्रताप मोहन "भारतीय" ओमेक्स पार्क- वुड-बद्दी ******************** इस दुनियां में हर व्यक्ति परेशान है। आत्मदाह किसी भी समस्या का समाधान नहीं है। ******* आत्मदाह करने से हम तो दुनियां छोड़कर चले जायेंगें। पीछे घर वालों के लिये हजारों समस्याएं छोड़ जायेंगे। ******* दुनियां की प्रत्येक समस्या का समाधान है। आत्मदाह करना एक कायराना काम है। ******* ८४ लाख योनियों के बाद मानव जीवन मिलता है। आत्मदाह करने से हमें कुछ भी नहीं मिलता है। ******* आत्मदाह से हमारी समस्या सुलझ नहीं पायेगी। उलटा वह बिगड़ती जायेगी। ******* समस्याएं तो जिंदगी का हिस्सा है। इनका डटकर सामना करें आत्मदाह करना तो बुजदिलों का किस्सा है। ******* परिचय : डॉ. प्रताप मोहन "भारतीय" निवासी : चिनार-२ ओमेक्स पार्क- वुड-बद्दी घोषणा : मैं यह शपथ पूर्वक घोषणा करता हूँ कि उपरोक्त रचना पूर्णतः मौलि...
बसंत पंचमी प्रेम पर्व …
कविता

बसंत पंचमी प्रेम पर्व …

डॉ. पवन मकवाना (हिंदी रक्षक)  इन्दौर (मध्य प्रदेश) ******************** मेरे पास थी इक टोकरी जो मैं देना चाहता था तुम्हें बसंत पंचमी प्रेम पर्व पर कुछ गुलाब सफ़ेद रंग के जो प्रतीक है शान्ति/अमन/सुलह और भाईचारे का मैं देना चाहता था तुम्हें एक टोकरी ... देना चाहता था तुम्हें क्यूंकि तुम हो मुझसे नाराज हाँ ... मुझे है ये आभास ... कुछ गुलाब पीले जो प्रतीक है विशवास का/दोस्ती का जिसकी और बढ़ाया था तुम्हीं ने पहला कदम भेजकर संदेश अपना दिया था तुमने एक प्यारा सा दोस्त एक नया सपना हाँ रख लोगे पीले गुलाब तुम अगर कभी समझा होगा तुमने हमें जो दोस्त अपना हाँ मैं देना चाहता था तुम्हें एक टोकरी ... कुछ गुलाब लाल भी हैं जो प्रतीक हैं प्रेम/पूजा/प्यार के इबादत के देना चाहता था मैं तुम्हें क्यूंकि तुम्हीं चाहते थे कि कोई चाहे तुम्हें ... दोस्त कि तरह/ध्यान र...
अमौसा का मेला और प्रयागराज
संस्मरण

अमौसा का मेला और प्रयागराज

बृजेश आनन्द राय जौनपुर (उत्तर प्रदेश) ******************** एक बार स्वर्गीय कैलाश गौतम ने मुझे प्रयागराज के आकाशवाणी के युववाणी कार्यक्रम में काव्य पाठ के लिए बुलाया था‌। मात्र एक बार जाने के उपरान्त पुनः मैं नहीं गया, क्योंकि मुझे लगता था कि सरकारी नौकरी पाने के लिए आवश्यक है कि छोटा से छोटा समय बचाकर पढ़ना..! कारण यह भी कि मुझे घर से मात्र तीन वर्ष का अवसर मिला था प्रयागराज में जाकर अध्ययन करने के लिए। उन तीन वर्षों में मैंने नौकरी तो पा ली पर बहुत अमूल्य... सुख शान्ति और भी बहुत कुछ खो दिया। जो मेरे सदा दुर्भाग्यपूर्ण जीवन का बहुत बड़ा भाग बनकर रह गया..। और हाँ उन तीन वर्षों के पहले तो माघ मेला में एक बार मित्र उमेश चौबे जी के साथ अवश्य गया था, लेकिन वह बी एड के बीच में ही। पर जब पढ़ाई के उद्देश्य से रुका तब से जब तक एक रिजल्ट पाजिटिव नहीं हो गया तब तक पुराना कटरा से संगम के...
गाथा खामोश नदी की
कविता

गाथा खामोश नदी की

सरला मेहता इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** पहाड़ी कंदराओं से तब जो झरना बन उतरती है उछलती कूदती बहती ये इक अल्हड़ बाला सी नदी भू पे खामोश हो जाती नटखट बालिका थी जो यौवना बन गई है वो सयानी नार अब नीरा कदम गिन गिन के रखती है नदी खामोश हो जाती सजे हैं घाट देवों से किनारों पर लगे मेले कश्तियां गुनगुनाती हैं चाँदनी रात गाती है नदी खामोश हो जाती अक्षय दान दे जल का धरा की गोद भरती है लुटा कर प्यार वो अपना समंदर में समाहित होकर नदी खामोश हो जाती परिचय : सरला मेहता निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिन्...
फटे-पुराने कपड़े उनके
गीत

फटे-पुराने कपड़े उनके

मीना भट्ट "सिद्धार्थ" जबलपुर (मध्य प्रदेश) ******************** फटे-पुराने कपड़े उनके, धूमिल उनकी आस। जीवन कुंठित है अभाव में, खोया है विश्वास।। अवसादों की बहुतायत है, रूठा है शृंगार। अंग-अंग में काँटे चुभते, तन-मन पर अंगार।। मन विचलित है तप्त धरा है, कौन बुझाये प्यास। चीर रही उर पिक की वाणी, काॅंपे कोमल गात। रोटी कपड़ा मिलना मुश्किल, अटल यही बस बात।। साधन बिन मौन हुआ उर, करें लोग परिहास। आग धधकती लाक्षागृह में, विस्फोटक सामान। अंतर्मन भी विचलित तपता, कोई नहीं निदान। श्रापित होता जीवन सारा, श्वासें हुई उदास। परिचय :- मीना भट्ट "सिद्धार्थ" निवासी : जबलपुर (मध्य प्रदेश) पति : पुरुषोत्तम भट्ट माता : स्व. सुमित्रा पाठक पिता : स्व. हरि मोहन पाठक पुत्र : सौरभ भट्ट पुत्र वधू : डॉ. प्रीति भट्ट पौत्री : निहिरा, नैनिका सम्प्रति : सेवानिवृत...
औकात की बात
व्यंग्य

औकात की बात

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** आज फिर उनकी औकात उन्हें दिखने लगी है। दुखी हैं बहुत। एक बार हो जाए, दो बार हो जाए, लेकिन बार-बार कोई औकात दिखा दे तो भला किसे बर्दाश्त होगा? इस बार तो हद ही कर दी। संस्था वाले भी पीछे ही पड़े हैं... क्या यार, इस बार तो मात्र दस रुपये की माला को मोहरा बना दिया, औकात दिखाने के लिए! उन्हें पता चला कि सम्मान करने के लिए जो माला उनके गले में डाली गई थी, उसकी बाजार कीमत दस रुपये थी, और संस्था द्वारा थोक में मंगवाने के कारण वह महज आठ रुपये में पड़ी थी। बस, तभी से अपसेट हैं। कार्यक्रम संस्था द्वारा उनकी शादी की वर्षगांठ के उपलक्ष्य में आयोजित था। संस्था वालों ने उनकी वर्षगांठ पर उन्हें दस रुपये की माला पहनाकर उनकी औकात दिखा दी! पिछली बार भी एक कार्यक्रम हुआ था। तब इसी संस्था के एक अन्य सदस्य को...
ओस की बूँदें
गीत

ओस की बूँदें

प्रो. डॉ. शरद नारायण खरे मंडला, (मध्य प्रदेश) ******************** हरी घास पर ओस की बूँदें, भाती हैं। नया सबेरा, नया सँदेशा, लाती हैं।। सूरज निकले, नवल एक इतिहास रचे, ओस की बूँदें टाटा करके जाती हैं। प्रकृति लुभाती, दृश्य सजाती रोज़ नये, ओस की बूँदें नवल ज्ञान दे जाती हैं। कितनी मोहक, नेहिल लगती भोर नई, ओस की बूँदें आँगन नित्य सजाती हैं। सुबह धुँधलका फैले, जागे ओस तभी, ओस की बूँदें राग नया सहलाती हैं। जीवन के हर पन्ने पर, है कथा नई, ओस की बूँदें प्यार ख़ूब बरसाती हैं। परिचय :- प्रो. डॉ. शरद नारायण खरे जन्म : २५-०९-१९६१ निवासी : मंडला, (मध्य प्रदेश) शिक्षा : एम.ए (इतिहास) (मेरिट होल्डर), एल.एल.बी, पी-एच.डी. (इतिहास) सम्प्रति : प्राध्यापक व विभागाध्यक्ष इतिहास/प्रभारी प्राचार्य शासकीय जेएमसी महिला महाविद्यालय प्रकाशित रचनाएं व गतिविधियां : पांच हज़ार से अधिक फुच...
देखो चुनाव हो रहा है
कविता

देखो चुनाव हो रहा है

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** सब लड़ रहे हैं, आगे बढ़ रहे हैं, लड़ रहा है भाई-भाई, बहू संग सासू माई, एक नहीं हो रहे, नेक नहीं हो रहे, मतैक्य नहीं हो रहे, दबंग भी लड़ रहा, मलंग भी लड़ रहा, भुजंग भी लड़ रहा, चुनावी ताप बढ़ रहा, मिठाई की भरमार है, धन बल बेशुमार है, मतदाताओं में चुप्पी है, प्रत्याशी बेकरार है, बेवड़ों में छलका जाम है, हर दिन सुबह और शाम है, मुराद पूरी न हुए तो धमकी देना आम है, पीना खाना ही इनका काम है, प्रजातंत्र रो रहा है, जिम्मेदार सो रहा है, धर्म की ललक है जागी इतनी इंसानियत बिलख के रो रहा है, हो रहा है हो रहा है, चुनाव देखो हो रहा है। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। ...
जब इश्क हुआ था
कविता

जब इश्क हुआ था

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** जब इश्क हुआ था तो गुनगुनी सी धूप ठंड में लगने लगती थी प्रेयसी कि तरह। जब इश्क हुआ था तब गर्मी में तब बदल जाते थे कभी उनके मिजाज बेवफा की तरह। धूप के भी रिश्ते है फूलों से जेसे होता है चाँद का चाँदनी से जब इश्क हुआ था तब इश्क की राह में धूप में नंगे पांव भी चल पड़ते थे परवाने की तरह। परिचय : संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता : श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि : २ मई १९६२ (उज्जैन) शिक्षा : आय टी आय निवासी : मनावर, धार (मध्य प्रदेश) व्यवसाय : ड़ी एम (जल संसाधन विभाग) प्रकाशन : देश-विदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ व समाचार पत्रों में निरंतर पत्र और रचनाओं का प्रकाशन, प्रकाशित काव्य कृति "दरवाजे पर दस्तक", खट्टे मीठे रिश्ते उपन्यास कनाडा-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व के ६५ रचनाकारों में लेखनीयता में सहभाग...
मौसम
कविता

मौसम

डॉ. पवन मकवाना (हिंदी रक्षक)  इन्दौर (मध्य प्रदेश) ******************** यूँ चाहे जब ना चले आया करो मौसम ... यूँ उनकी याद ना दिलाया करो मौसम ... रूठा हो जब यूँ दिलबर हमसे यूँ आकर ना हमको सताया करो मौसम ... गर आना हो जो मज़बूरी तुम्हारी आकर पहले हौले से हमें बताया करो मौसम ... तुम जब आते हो तो याद करते हैं हम उन्हें हम कितना यह बात उन्हें भी तो बताया करो मौसम ... याद में जो उनकी हम गाते हैं नगमें करीब जाकर उनको भी सुनाया करो मौसम ... चाहते हैं हम उन्हें कितना ना मानेगें वो कभी तुम्हीं जाकर उन्हें प्यार जताया करो मौसम ... प्यार के दीप से ही है रोशन दुनिया मेरी उनके दिल में भी इक दीप जलाया करो मौसम ... परिचय : डॉ. पवन मकवाना (हिन्दी रक्षक) निवासी : इंदौर मध्य प्रदेश सम्प्रति : स्वतंत्र पत्रकार व व्यावसाइक छायाचित्रकार संस्थापक : राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मं...
एक डिज़ायर की व्यथा कथा
व्यंग्य

एक डिज़ायर की व्यथा कथा

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** पिछले दस दिनों से मंत्री जी के ऑफिस के कोने में पड़े कचरे के डिब्बे में पड़ी हुई हूँ। मेरे ऊपर मेरी जैसी न जाने कितनी अबला बहनें गिरी पड़ी हैं। न जाने कितने बेसहारा भाई-सरीखे सिफारिशों के लेटर, इनविटेशन, ग्रीटिंग्स, और ज्ञापन मेरे ऊपर गिर-गिरकर मुझे दबाए जा रहे हैं। साँस लेना मुश्किल हो गया है। दो दिन से कचरा उठाने वाला भी नहीं आया। मेरी आखिरी इच्छा है कि कम से कम इस घुटन से बाहर होकर किसी कचरा निस्तारण प्लांट में जाकर रीसायकल हो जाऊँ, कुछ देश के काम आ सकूँ। इससे बढ़िया तो मुझे सड़क पर फेंक देता। किसी कबाड़ वाले को रद्दी में बेच देता, कम से कम किसी खोमचे वाले के समोसे के लिए प्लेट का काम कर जाती। किसी बच्चे की कागज की नाव बनकर सड़क के गड्ढों में बह जाती, भले ही थोड़ी देर के लिए ही सही...
पीला बसंत
कविता

पीला बसंत

डॉ. प्रताप मोहन "भारतीय" ओमेक्स पार्क- वुड-बद्दी ******************** बसंत पंचमी का उत्सव मां सरस्वती को समर्पित है। पूजा कर के उनको पीले फूल पीले वस्त्र करते समर्पित हैं। ******* पीला रंग मां सरस्वती को भाता है। सभी धार्मिक कार्य में भी पीला रंग नज़र आता है। ******** ज्ञान की देवी सरस्वती इनका सच्चे मन से पूजन करें। और अपने आपको ज्ञान से भरें। ******** देवी सरस्वती ने वीणा बजाकर पूरे संसार में मधुर आवाज फैलाई। तभी तो सुषुप्त श्रृष्टि जागृत अवस्था में आई। ******** भगवान शिव और माता पार्वती का तिलक भी बसंत पंचमी को हुआ था। और मां सरस्वती का जन्म भी बसंत पंचमी को हुआ था। ******* बसंत पंचमी का दिन विवाह का शुभ मुहूर्त कहलाता है। इस दिन होने वाला विवाह सुखमय होता है। ******* बसंत पंचमी से बसंत ऋतु का आगमन होता है। प्रकृति में नई ऊर्जा और उत्साह का संचा...
आदमी वो ही हैं
कविता

आदमी वो ही हैं

शिवदत्त डोंगरे पुनासा जिला खंडवा (मध्य प्रदेश) ******************* आदमी वो ही हैं आदमी वो ही है जिसमें धैर्य तो हो मानव धर्म भी हो आदमी वो है करे जो सार्थक सब कर्म भी हो। आदमी वो है रहम का वास जिसके दिल में हो आदमी वो है जो सहज हर मुश्किल में हो। सच बताओ? लग रहा क्या आदमी-सा आदमी आदमी के भेष में क्यूँ ? जानवर-सा आदमी। कब घुसा इस आदमी के जिस्म में ये जानवर? आदमी हो तो तुम्हें इस जानवर की शर्म हो। आदमी का वहम हो और जानवर-पन ही रहे ये ईमाँदारी कहाँ? हम आदमी खुद को कहें। आदमी हैं जिंदगी में आदमी बनकर रहें आदमी हो तो समझ़ में तत्व का कुछ मर्म हो। आदमी गर ठान ले तो स्वर्ग सी जीवन धरा हो शुभ हुआ है आज तक भी आदमी जब शुभ करा हो। आदमी हो आदमी से जुड़ गये गर प्रेम से भाव जो गहरा हुआ तो हर हृदय में यह भरा हो। आदमी वो जो ये जाने जन्म ...
चार पुरुषार्थों का कुंभ – महाकुंभ
कविता

चार पुरुषार्थों का कुंभ – महाकुंभ

डॉ. किरन अवस्थी मिनियापोलिसम (अमेरिका) ******************** धर्म- बारह वर्षों में मिलता महालाभ आत्मिक बल है इसका प्रताप आध्यात्मिक संगम का महाकुंभ सांस्कृतिक चेतना, आस्थाकुंभ तीर्थराज में संत समागम पौराणिक गाथाओं का संगम। यह मेला भक्तों का मेला मेल कराता सुधी जनो का आस्था के वैभव का भावों की उत्ताल तरंगों का। संगम भावों का स्नान कराता ऋद्धि सिद्धि, मन में शीतलता संतों के आत्मिक दर्शन से जीवनदर्शन के दर्शन पा जाता मन प्रफुल्लित हो जाता कलुष ताप मिट जाता भक्तिभाव से हो विव्हल संगम में डुबकी लेकर लीन प्रभु में हो जाता ईश्वरतत्व से सराबोर जीवन की उहापोह तज धन्यभाव समा जाता। कुंभ का मेला मेल कराता देता आध्यात्म ‌का आदेश प्रचुर मात्रा में देता संसार चलाने का संदेश। अर्थ- गंगाजल परम अति पावन सकल लोक के रोग नसावन गंगाजल अमृत, मिनरल वॉटर यह‌ पीकर सब पच जा...
तृषित धरा मुरझाई
गीत

तृषित धरा मुरझाई

मीना भट्ट "सिद्धार्थ" जबलपुर (मध्य प्रदेश) ******************** तृषित धरा मुरझाई, चीख़-पुकार मची है। वृक्ष हरे सभी कटे, छाया नहीं बची है।। सोंधी मिट्टी भूले हैं, बेचारे नौनिहाल। हालत उनकी खस्ता, पिचक रहे लाल गाल।। महँगाई ख़ूब बढ़ी, बौरा रही शची है। रहे मौन सज्जनता, लगते दाँव पर दाँव। दुर्जन कौवा छत पे, फैलाता नित्य पाँव।। भटक रहे अर्थहीन, क़िस्मत ख़ूब रची है। दंगा हैं फ़साद भी, सस्ता ख़ून का रंग। सूनी है अँगनाई, फीके सारे प्रसंग।। तनावों में जीवनी, नटी जैसी नची है। परिचय :- मीना भट्ट "सिद्धार्थ" निवासी : जबलपुर (मध्य प्रदेश) पति : पुरुषोत्तम भट्ट माता : स्व. सुमित्रा पाठक पिता : स्व. हरि मोहन पाठक पुत्र : सौरभ भट्ट पुत्र वधू : डॉ. प्रीति भट्ट पौत्री : निहिरा, नैनिका सम्प्रति : सेवानिवृत्त जिला न्यायाधीश (मध्य प्रदेश), लोकायुक्त स...
सोचो स्वयं क्या हो
कविता

सोचो स्वयं क्या हो

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** मनुष्य में मनुष्य नहीं दिख पाता पर तुरंत ही जाति दिख जाती है, कुछ लोगों को उनके संस्कार शायद यहीं सिखाती है, जाति के नाम पर कुछ लोग बन जाते हैं हिंसक सरफिरे, स्व उच्चता की कितनों भी दुहाई दे रहते हैं गिरे के गिरे, योग्यता को आंकने का पैमाना लिए रहते हैं कुढ़ता से घिरे, कोयला ही मान बैठते हैं जो हर कर्म से रहते हैं हीरे, हर पदचाप की गूंज लिए ठोकर पर ठोकर खाये पत्थर को लगा लेते हैं सर माथे पर, सबसे प्रिय मित्र लगने लगता है अस्पृश्य जब उसे लाना पड़ जाये घर, शायद इसीलिए लोग बने रह जाते हैं कूपमंडूक, जो चाहते हैं इंसानियत से फैलते प्रकाश छोड़ अपनी जाति धर्म वाला धूप, मूर्खों कब समझोगे कि चंद्रमा, पृथ्वी और सूर्य का कोई धर्म या जाति नहीं होता, बहकाकर पेट भरने वालों द्वारा समानता के सि...
आया बसंत
कविता

आया बसंत

मालती खलतकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** धरा के द्वार बजाता आया बसंत कोयल कुकी, कुन्ज-कुन्ज में बौराए हैं आमृवक्ष रविकिरण की कुनकुनी धूप में। बसन्त बयार बह रही पसर रही, गंध। हरित पर्णों की छाया में तितली गाती, मंडराती भौंरे गुंजन करतें पुष्पों पर पर्ण उन्हें झुलाते हैं वृक्ष वल्लरी मदमाती पवन संग पुष्प वर्षा कर बसंत का स्वागत करती। स्वागत में बसंत के पथ पर पड़े पत्ते पतझड़ के पवन झोंकों संग पथ संवारते। तड़ाग की स्थिर जल राशि में रवि प्रतिबिम्ब अपना स्वर्णिम प्रकाश फैलाकर धरा को स्वर्णिम आभास देता। झरना कलकल, नंदियों का कलकल स्वर, उपवन को आन्दोलित करता उपवन, उपवन बाग बग़ीचे झूम रहें हैं फल, फूलों से आथा उनका बसंत प्यारा आज उनके आंगन में।। परिचय :- इंदौर निवासी मालती खलतकर आयु ६८ वर्ष है आपने हिंदी समाजशास्श्र में एम ए एल एलबी ...
बसन्ती महक उठी
कविता

बसन्ती महक उठी

बृजेश आनन्द राय जौनपुर (उत्तर प्रदेश) ******************** बसन्ती महक उठी ! चंचल-प्रकृति-बीच- कोयल बहक उठी ! गुलमोहर की डालों-पे गिलहरी-लहराई ! अढ़उल की शाखों पे- गौरैया-शरमाई ! सेमल-पलास बीच दिशाएँ लहक उठी ! पीपल पे हरी-हरी बदली छिटक उठी...! पाकड़ पे 'उजास' फूटा, बरगद पे ठिठका ! मौसम का ठौर-ठौर वृक्षों पे अटका ! महुआ के गुंचो में रसना समा रही ! अमरइया की मंजरी- किसको न भा रही ! मोरों को लय-ताल तीतर समझा रहा.. कपोत कुछ आगे फिर- पीछे-को जा रहा.. ! नीम के कोतड़ में तोते आनन्द-भरें... कठफोड़वा के श्रम पे ना जरा भी गौर करें..! जामुन के फूलों पे- भवरी-लहराई ! अँवरा को किसने - छींट-सारी पहनाई! शिरीष की शाखों-पे कर्णफूल लटक रहे ! अमलताश अब भी- पीताभ को तरस रहे! अर्जुन ने देखो, नव-किसलय है पाया! गूलर का फूल कहाँ सबको नजर आया! अन्दर ही अन्दर 'प्रक...
ग़म है तो पी लो
कविता

ग़म है तो पी लो

डॉ. रमेशचंद्र मालवीय इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** खुश़ रहो मित्रों जिस हाल में हो रहते चाहे जिस गली, चाल में हो। हंस हंस कर जी लो ग़म है तो पी लो यही जिंद़गानी है यही सबकी कहानी है खोए रहते किस ख़याल में हो खुश़ रहो मित्रों जिस हाल में हो। कोई मिलता है तो कोई बिछड़ जाता है फूल खिलता है फिर उज़ड़ जाता है नहीं किसी का यहां ठिकाना है आज इसका, कल उसका जाना है उलझे रहते किस सवाल में हो खुश़ रहो मित्रों जिस हाल में हो। भूला बिसरा जब कोई मिल जाएं गले मिलें, प्यार अपना जताएं सभी को प्यार की चाहत है यह मिल जाए बड़ी राहत है छोड़ो पड़े किस जंजाल में हो खुश़ रहो मित्रों जिस हाल में हो। इस ज़ग में कुछ लोग अच्छे हैं कुछ झूठे हैं, कुछ सच्चे हैं सभी से रखें प्यार का रिश्ता सब इंसान है नहीं कोई फ़रिश्ता मस्ती में रहो चाहे फ़टेहाल में हो खुश़ रहो मित्रों जिस हाल में...
भारतीय ज्ञान परंपरा में जैन दर्शन का योगदान
आलेख

भारतीय ज्ञान परंपरा में जैन दर्शन का योगदान

मयंक कुमार जैन अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश) ******************** भारतीय ज्ञान परंपरा अनेक दार्शनिक धाराओं से समृद्ध हुई है, जिनमें जैन दर्शन का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। जैन दर्शन न केवल आध्यात्मिकता का संदेश देता है, बल्कि यह तर्क, नैतिकता, अहिंसा और सामाजिक समरसता का भी आधार है। इसकी शिक्षाएँ हजारों वर्षों से भारतीय समाज और विश्व चिंतन को दिशा देती आ रही हैं। अहिंसा: भारतीय संस्कृति को दिया अमूल्य उपहार जैन धर्म का मूल सिद्धांत अहिंसा है, जिसे महावीर स्वामी ने अपने जीवन का आधार बनाया। उन्होंने कहा, "परस्परोपग्रहो जीवानाम्" अर्थात सभी प्राणी एक-दूसरे पर निर्भर हैं। यह विचार भारतीय समाज में करुणा, सहिष्णुता और शांति की भावना को प्रोत्साहित करता है। महात्मा गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा के सिद्धांतों पर भी जैन दर्शन का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है। अनेकांतवाद: सहिष्णुता और तर्कशक्...
अंतिम ईच्छा
कविता

अंतिम ईच्छा

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** अंतिम ईच्छा एक जीव एक जीवन की सुनो अगर कभी जो सुनना चाहो मेरे दबे छुपे शब्दों की आवाज, गहराई में डूबी सी ध्वनि का आभास! मैंने कभी कुछ नहीं चाहा तुमसे, ना कभी माँगा तुम सलामत रहना इस सृष्टि के होने तक मेरे दिल मे मेरी आत्मा मे मेरी अठखेलियों में मेरी पवित्रता भरी मुस्कराहट में मेरी आँखों की नमी में मेरी उठती गिरती सांसो में जिनमे हर पल तुम्हारा नाम लिखा होगा मेरी पीड़ा मेरी सिसकियों में जो मैं नहीं समझ सका, किसने और क्यों दिए ?? ना जाने कितने घाव छुपे हैं इनमे! मेरी अन्तरात्मा में एक द्वंद चल रहा, नहीं जानता कब से, क्यूं प्रताडित होता रहा जीवन भर?? क्यों मेरा अस्तित्व प्रश्न चिन्ह सा बना रहा सदैव?? मेरे होने मेरे ना होने पर , सब कुछ परमात्मा में विलीन हो जायेगा स...
लाक्षागृह सी आग
गीत

लाक्षागृह सी आग

मीना भट्ट "सिद्धार्थ" जबलपुर (मध्य प्रदेश) ******************** अपना ही घर जला रहे हैं, घर के यहाँ चिराग़। फैल रही है सारे जग में, लाक्षागृह सी आग।। शुभचिंतक बन गये शिकारी, रोज़ फेंकते जाल। ख़बर रखें चप्पे-चप्पे की, कहाँ छिपा है माल।। बड़ी कुशलता से अधिवासित, हैं बाहों में नाग। ओढ़ मुखौटे बैठे ज़ालिम, अंतस घृणा कटार। अपनों को भी नहीं छोड़ते, करते नित्य प्रहार।। बेलगाम घूमें सड़कों पर, त्रास दें बददिमाग़। सिसक रही बेचारी रमिया, दिए घाव हैं लाख। लगी होड़ है परिवर्तन की, तड़पे रोती शाख।। हरे वृक्ष सब काटें लोभी, उजड़ रहे वन बाग। परिचय :- मीना भट्ट "सिद्धार्थ" निवासी : जबलपुर (मध्य प्रदेश) पति : पुरुषोत्तम भट्ट माता : स्व. सुमित्रा पाठक पिता : स्व. हरि मोहन पाठक पुत्र : सौरभ भट्ट पुत्र वधू : डॉ. प्रीति भट्ट पौत्री : निहिरा, नैनिका सम...
गणतंत्र दिवस
व्यंग्य

गणतंत्र दिवस

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ गंगापुर सिटी, (राजस्थान) ******************** सर्दी की कड़कड़ाती ठंड में खिड़की के बाहर देख रहा हूँ। अलसुबह उनींदे से बच्चे अपनी स्कूल यूनिफ़ॉर्म में रिक्शों पर लदे स्कूल जा रहे हैं। यूँ तो सर्दियों में स्कूल का समय दोपहर बाद का होता है, खासकर सरकारी स्कूलों में, लेकिन गणतंत्र दिवस पर झंडा फहराने का समय सुबह का ही होता है। गणतंत्र की स्वर्णिम भोर की किरणों में झंडा फहराना है। आसमान की ओर देखता हूँ। घना कोहरा छाया है, कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा। सूरज पिछले सात दिनों से सरकारी दफ्तरों की कार्यप्रणाली की तरह काम कर रहा है- ऑफिस खुले से हैं, पर ऑफिसर गायब हैं। ऐसे ही आसमान खुला सा है, बस सूरज गायब है। कम से कम नेता की तरह तो दिखे, जो अपने चुनाव क्षेत्र से गायब होकर दिल्ली में तो नजर आता है। सूरज भी न, दोपहर में सीधे माथे पर चढ़ता है, थोड...