पिता का होना
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रचयिता : विवेक सावरीकर मृदुल
हो सकता है कि किसी एक दिन
याद करने से ज्यादा मिलता हो पुण्य
अधिक मिलती हो लोकप्रियता
बढ़ जाती हो बहुत फैन फॉलोइंग
मगर पिता!
तुमको याद करने को
तुम गये कब मेरे वजूद से
याद है!
जब जामुनी बाटीक की चादर
ओढ़कर सो गये थे तुम जमीन पर
अनायास
कितने आए,कितने रोये,कितने मनाये
न हुए टस से मस ऐसे हठी
.
देह तुम्हारी अग्निलोक में
और तुम विदेह इसी लोक मे
तबसे लगातार रहते हो मेरे संग
उठते,बैठते,सोते जागते
रोते गाते और लड़ते हुए सदैव इक जंग
तुम मिलते रहते हो
और मेरे अंदर सूखते साहस को
दुगुना भरते रहते हो
.
अब नहीं देनी पड़ती तुमको दवाईयां
न जाना पड़ता है लेकर डॉक्टर के पास
न क्रिकेट का जोश भरा कोलाहल
घर में मचाता है हलचल
न कोई हमें टोकता और समझाता है पल पल
.
फर्क इतना सा हुआ है कि इन दिनों
तुम जब निहारते हो तस्वीर में से
हम नहीं कह पाते अब खीजकर
थोड़ा तो लेने दिय...






















