वक्त
मालती खलतकर
इंदौर (मध्य प्रदेश)
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वक्त चलता है
दौड़ता है भागता है
पर वक्त की परछाई
तनहाई नहीं होती
क्योंकि तनहाई में वक्त
डरावना लगता है
सदा मुस्कुराता हुआ
आगे निकल जाता है
कोई पकड़ पाता है
और कोई नहीं पकड़ पाता
इस वक्त हंसता हुआ
आगे निकल जाता है
पर वक्त तंहा नहीं होता
कहीं करुणा रस बरसाता
कहीं विभत्स तो
कहीं आज आश्चर्य
तो कहीं वक्त
वीर रस में नहाया।
मन दौड़ता है मनु को
पीछे छोड़ने के लिए।
परंतु विवेकी वक्त का
मूल्य समझ ने वाले
समय को अपनी
मुट्ठी में बंद कर
नीत नए अनवेषण
कर आगे बढ़ता है
वह वक्त को पकड़ने का
प्रयास करता है
की फिर कुछ
नया कर सके
तंहा ही वक्त का
मुंह चिढ़ाती है
सरिता सार के
किनारे का वक्त
भागते मैं गुनगुनाते हुए
दुखी मन को
आश्वस्त करता है
वक्त कब रात की
काली चादर होता है
पता नहीं चल पाता
दौड़ो भागो वक्त के
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