मजदूरों की आंखें
पायल पान्डेय
कांदिवली, पूर्व- मुंबई
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इन मजदूरों की आंखें नम हैं,
ज़रा, पूछों इनसे, इन्हें क्या ग़म है?
नेत्रों से अश्रु धारा बही जा रही है,
लग रहा है, जीवन जैसे वीरान वन है।
मीलों दूर चल रहें हैं,
अधर जैसे एक मुस्कान के लिए तरस रहे हैं,
इक आस में छोड़ कर अपना घर-बार,
सुकून कि तलाश में ये इतना भटक रहे हैं।
पैरों में थकन बेशुमार है,
ह्रदय में पीड़ा अपार है,
ये कैसा समय आया है,
दर दर की ठोकरें खाने के लिए,
ये मजदूर बेबस और लाचार हैं।
सरकारी राहतों की योजना भी,
अब इनके मन की व्यथा नहीं मिटाती,
जल की शीतलता भी,
अब इनकी प्यास नहीं बुझा पाती।
लाचारी का इतना बेबस आलम है
की, शरीर की काया भी अब
इनका साथ छोड़ती जाती!
मंजिल तो अभी दूर है,
फिर भी अपने कर्मों में
प्रयत्नरत इनका तन है!
कभी तो बदलेगी यह स्थिति भी,
इसी आस में बीतता,
अब इनका जीवन है।
इन मजदूरों की आंखें नम हैं,
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