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कविता

खटकती हैं
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खटकती हैं

गोरधन भटनागर खारडा जिला-पाली (राजस्थान) ******************** हर बात हर बार खटकती हैं। मेरे लबो पर हर बात अटकती है।। कभी साँसे अटकती हैं, कभी यादे भटकती हैं । हर बात हर रोज अटकती हैं। झूठों पर सटकती हैं।। जब भी सटकी, हर बात ही खटकी। जो नहीं सोता नींद वहीं भटकती हैं। जिसको हैं सोना नींद वहाँ सटकती हैं।। जहाँ मंजर हो विकट, छते वही टपकती हैं। ये ही बात खटकती हैं।। जहाँ फसले हो हरी-भरी, बून्दे वही टपकती हैं। ये बात ही खटकती हैं.....।। . परिचय :- नाम : गोरधन भटनागर निवासी : खारडा जिला-पाली (राजस्थान) जन्म तारीख : १५/०९/१९९७ पिता : खेतारामजी माता : सीता देवी स्नातक : जय नारायण व्यास यूनिवर्सिटी जोधपुर आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रका...
घर एक मंदिर
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घर एक मंदिर

वीणा वैष्णव "रागिनी"  कांकरोली ******************** घर एक मंदिर है, इसे मंदिर ही बना रहने देना। घर मंदिर होता, एक उदाहरण तू भी बन जाना। मात-पिता प्रभु मान, सिस तू चरण झुका देना। खून से सींचा उसे, बस तू थोड़ा प्यार भर देना। कैदखाना नहीं यह पागल, यह है स्वर्ग समान। अनजाने में ही कुछ नादान, कर रहे हैं अपमान। शून्य जैसा सबका जीवन,ना कीमत शून्य की। संग सदा अपनो रह, अनमोल स्वत: बन जाना। संबंधों की गहराई को, सदा ही महसूस करना। ईश्वर की श्रेष्ठ रचना, थोड़ा विवेक काम करना। चिंता चिता एक समान, यह सदा याद रखना। खुद की खुशी खातिर, मां बाप को ना दर्द देना। प्यार से पाला तुझे ,चिंता और कोई न जताना। दिखावा सब करेंगे, हकीकत तो वहां ही पाना। करती वीणा एक विनती, जीवन ना नर्क बनाना। बहुत सहा उन्होंने, अंत समय कुछ सुख देना। . परिचय : कांकरोली निवासी वीणा वैष्णव "रागिनी" वर्तमान में राजकीय उच्च माध्...
माँ तो बस माँ होती हैं
कविता

माँ तो बस माँ होती हैं

विशाल कुमार महतो राजापुर (गोपालगंज) ******************** जो रखती आँचल के छाव तले, जन्न्त हो जिसके पाँव तले, अब ये मत पूछ वो क्या होती है, माँ तो बस माँ होती हैं.... तुझे कोई जो, दुःख सताये है, उसकी आँखों से आंसू आये है। हाथ पकड़कर चलना, बोलना जिसने तुमको सिखलाये है। कभी उसकी प्रेम न बयां होती हैं, माँ तो बस माँ होती है.... क्यों उसको तुम रुलाता है, क्यो उसको तुम सताता है, मन ही मन वो मुस्काती है, जब तुझको गले लगाती है। उसकी क्रोध में भी सब दया होती हैं, माँ तो बस माँ होती है.... उस जग जननी की प्राण तो, तेरे ही अंदर बस्ती है, तुहि उसकी दुनिया है, और तुहि उसकी हस्ती है। दुःख हर ले तेरी जीवन की, उसकी आँचल में वो हवा होती हैं, माँ तो बस माँ होती है.... सुना है बहुत न्यारी हैं, जिसने तुमको दुलारी है हर दुःख पर वो तो भारी हैं, इस जग में सबसे प्यारी हैं। दवा से बढ़कर भी तो उसकी आशीर्वाद और दु...
हमें छोड़कर कैसे तुम जाओगी गंगा
कविता

हमें छोड़कर कैसे तुम जाओगी गंगा

श्रीमती श्यामा द्विवेदी वाराणसी (उ.प्र.) ******************** बड़े तपों से धरती पर आयी हो गंगा! हमें छोड़कर कैसे तुम जाओगी गंगा? हमने तुमको किया है कलुषित, शुचिता भी कर बैठे दूषित। लज्जित हैं अपनी करनी पर, अब न करेंगे तुम्हें प्रदूषित। बिना तुम्हारे बहुत असंभव है ये जीवन, हमें छोड़कर कैसे तुम जाओगी गंगा? गौमुख से सागर तक तुम बहती हो गंगा जीवन के पथ को निखार चलती हो गंगा। उद्धार सभी का करें तुम्हारी लहर लहर तन मन को भी शीतल करती हो गंगा। पर उपकार हमें सिखाती रही सदा, क्या हमें छोड़ के यूँ ही चली जाओगी गंगा? ऋषियों की माँ जान्हवी गंगा सागर तक धार प्रवाही गंगा। शिव के जटा जूट की गंगा, स्वर्गातीत भागीरथि गंगा। जीवन के संस्कार तुम्हीं से, पाप रहित व्यवहार तुम्हीं से तुम संस्कृति का भान हो गंगा हमें छोड़कर कैसे तुम जाओगी गंगा? अगर गयीं तो नहीं भरेगा कुंभ का मेला, बिना तुम्हारे संगम हो...
नैनों की बात
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नैनों की बात

कंचन प्रभा दरभंगा (बिहार) ******************** नैनों की क्या बात कहूँ नैना ये क्या कर देते हैं चाहूँ मैं जो बात छिपाना महफिल में सब बयाँ कर देते हैं किसी की खुशियाँ होठों पर ला कर रौनक तमाम कर देते हैं चाहूँ मैं जो बात छिपाना महफिल में सब बयाँ कर देते हैं दवा नहीं पाते दर्द किसी का मोती की तरह आँशु छलका देते हैं चाहूँ मैं जो बात छिपाना महफिल में सब बयाँ कर देते हैं . परिचय :- कंचन प्रभा निवासी - लहेरियासराय, दरभंगा, बिहार सम्मान - हिंदी रक्षक मंच इंदौर (hindirakshak.com) द्वारा हिन्दी रक्षक २०२० सम्मान से सम्मानित  आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने हेतु अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, हिंदी में टाईप करके हमें hindiraksha...
मैं मजदूर हूं
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मैं मजदूर हूं

श्रीमती शोभारानी तिवारी इंदौर म.प्र. ******************** हां मैं मजदूर हूं, हां मैं मजदूर हूं, समुद्र की छाती चीरकर, बांध बनाया, अपने हाथों से, सृष्टि का निर्माण किया, चट्टानों को काटकर,राह बनाई, रेगिस्तान को, हरा भरा किया, फिर भी आत्म सम्मान, से दूर हूं। हां मैं मजदूर हूं, हां मैं मजदूर हूं। अन्न उगाता हूं धरती से, पर भूखा रह जाता हूं, औरों के तन ढकता वस्त्रों से, बिना कफन मर जाता हूं, पेट की आग बुझाने को, मैं मजबूर हूं, हां मैं मजदूर हूं, हां मैं मजदूर हूं। निर्धन का खून चूस-चूस कर, अपना घर ही भरते हैं, नागों जैसा फन फैलाए, मजदूरों को डरते हैं, जिंदगी का बोझ कंधों पर उठाता हूं, हां मैं मजदूर हूं, हां मैं मजदूर हूं। जिनका वर्तमान गिरवी, भविष्य अंधकार है, धरा बिछौना छत आसमां, ना कोई बहार है, बोल ना पाता मालिक के आगे, अपना सर झुकाता हूं, हां मैं मजदूर हूं, हां मैं मजदूर हूं। . प...
परेशां धरती
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परेशां धरती

राधा शर्मा इंदौर मध्य प्रदेश ******************** धरती बोली इक दिन गगन से ये प्रकोप कब मिट पायेगा गगन से आवाज़ आई जब सूर्य तपन बढ जाएगा हवा में फैला रोग कीटाणु खुद से मर जाएगा फिर रोइ धरती कुछ खोइ खोइ सी धरती बोझ महामारी का अब सह ना सकूंगी ए गगन अब मै कुछ कर ना सकूंगी तेरे पास तो है चाँद सितारे मेरी तो दुनिया ही ये मानव सारे कुछ चिता मे जल रहे है तो कुछ दफन हो रहे है अब तू ही बता ए गगन करोना से बिमार मानव मेरी गोद में सो रहे है जब कभी डगमगा जाती हूँ तो भूकंप सा कहलाती हूँ जब सूखा पडे आकाल तब खुद ही बिखर जाती हूँ भेज ए गगन ऐसी कोई दवा शुद्ध हो जाऐ ये जहरीली हवा फिर हो धरती पर चहल-पहल तेरे गगन में भी हो हवाई की पहल सूनी पडी मेरी गलियां सूना सा सारा शहर . परिचय :- राधा शर्मा निवासी : इंदौर मध्य प्रदेश आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो...
निर्झरणी
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निर्झरणी

अर्पणा तिवारी इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** मै नारी हुं, निर्झरणी हुं, कल कल करती सरिता पावन हुं। मन से रेवा, तन से गंगा, अनुरागी हुं, मनभावन हुं।। परमेश्वर ने मुझको सृष्टि की रचना का आधार रखा। आदि शक्ति का रूप बनाकर उमा रमा फिर नाम दिया।। मानव जाति जन्मे तुझसे, मुझको यह वरदान दिया। नवजीवन देती, परमेश्वर की सत्ता की परिचायक हुं।। मन से रेवा तन से गंगा अनुरागी हुं मनभावन हुं। मै जीवन के तपते रेगिस्तानो में रिश्तों की बगिया महकाती हुं। मै वसुधा हुं, पीड़ा सहकर जीवन का पुष्प खिलाती हुं।। लेकर मर्यादा सागर की सिमट सिमट मै जाती हुं। मै सुर भित मंद पवन सी सृष्टि की अधिनायक हुं।। मन से रेवा तन से गंगा, अनुरागी हुं मनभावन हुं। उत्कृष्ट कृति मै परमेश्वर की फिर क्यों कमतर आंकी जाती हुं। सतयुग में अग्निपरीक्षा देती, द्वापर में जुएं में हारी जाती हुं।। पुष्पों सा कोमल मन ले क्यों कलयुग...
तृष्णा
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तृष्णा

निर्मल कुमार पीरिया इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** खिलना चाहता हूँ मैं भी, पर गमलो में उगे पौधों, की तरह की नही, ख्वाहिश है जंगलों-सी फैलने की, ना कोई ओर ना छोर कोई, शांत योगी से, फुसफुसाते हवा सँग, उगना चाहता हूँ, बरगद की तरह, सुनता पंछियों की कलरव, झांकते नीड़ से पांखी, देते सुकू पथिक को, जो भर दे साँसे जहाँ में... चहचहाना चाहता हूँ, चिड़ियों की मानिद, जी भर, उड़ना चाहता हूँ, परिंदों के सँग, पींगें भरता, जमी ओ आसमा के, मिलन-रेखा तक... महकना चाहता हूं, फूल बहार की तरह नही, स्वच्छंद बेलो की तरह टेसू, कचनार ओ अमराइयों की तरह... बहना चाहता हूँ, पर नदी की नही, सागर ओ झरनों के मानिद, चट्टानों को चीरती, बन्धनों को तोड़ती उन्मुक्त, बेखौफ लहरों की तरह, थाह लेना चाहता हूँ, अंनत मन की गहराईयों तक... बरसना चाहता हूँ, पर बदली सा नही सावन की झड़ी सा, तपती धरा पर, बंजर जमी पर, सूखे अधरों पे, ...
वो….. नाचती थी
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वो….. नाचती थी

प्रीति शर्मा "असीम" सोलन हिमाचल प्रदेश ******************** वो..... नाचती थी ? जीवन की, हकीकत से, अनजान। अपनी लय में, अपनी ताल में, हर बात से अनजान। वो...... नाचती थी? सोचती.......... थी? नाचना ही..... जिंदगी है। गीत-लय-ताल ही बंदगी है। नाचना........ ही जिंदगी है। नहीं ........ शायद नाचना ही.... जिंदगी नहीं है। इंसान हालात से नाच सकता है। मजबूरियों की, लंबी कतार पे नाच सकता है। लेकिन ........... अपने लिए, अपनी खुशी से नाचना। जिंदगी में यहीं, संभव -सा नहीं। हकीकतें दिखी...... पाव थम गए। फिर कभी सबकी आंखों से, ओझल हो ......!!! नाचती .....अपने लिए। लेकिन जिम्मेदारियों से, वह भी बंध गए। फिर गीत-लय-ताल, न जाने कहां थम गए। पांव रुके, और हाथ चल दिए। शब्द नाचने लगे। जीवन की, हकीक़तों को मापने लगे। उन रुके पांवों को, आज भी बुलाते हैं। तुम थमें हो, नाचना भूले तो नहीं। वो.....नाचती ...
साहब यूँ ही हम किसान ना कहलाते
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साहब यूँ ही हम किसान ना कहलाते

कृष्ण शर्मा सीहोर म.प्र. ******************** भूखे को भोजन कराते, प्यासे को पानी हे पिलाते दिल से हम अंजान रिश्तो को अपना बनाते। साहब यूँही हम किसान ना कहलाते। बेरोजगार खुद हूँ, पर गरीबो को रोजगार देंने में जरा भी नही घवराते। सो जाऊंगा भूखा खुद, पर सबको पेट भर खाना हे ख़िलाते। साहब यूँही हम किसान ना कहलाते। हमारा नाम लेकर ये जो जमीन पर दुग्ध, सब्जी जो हे गिराते, ना जाने क्यों हमारे मान को नीचा हे दिखाते, हम तो एक बूंद दुग्ध को भी अपने हाथों से हे उठाते हे साहब साहब यूँही हम किसान ना कहलाते। कोई नही है किसान का यहाँ सब अपनी राजनीति हे चमकाते, नाम लेकर हमारा कही अपराध है ये किये जाते। करते रहो बदनाम हमे यूँही पर हम अपना कर्म यूँ ही ईमानदारी से हे हम किये जाते। साहब यूँही हम किसान ना कहलाते। . परिचय :- कृष्ण शर्मा निवासी : सीहोर म.प्र. आप भी अपनी कविताएं, कहानियां...
शब्द खामोश हो रहे हैं
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शब्द खामोश हो रहे हैं

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** न जाने क्यों शब्द खामोश हो रहे हैं, शब्द मन्थन चल रहा है, मन मस्तिष्क मे पल पल, कुछ नया रचना चाहता है यह दिल। पर लेखिनी तक आते आते, शब्द मूक हो रहे हैं, न जाने क्यों यह शब्द, खामोश हो रहे है। मच रही है खलबली क्यों मस्तिष्क मे निरन्तर, शब्दों की तकरार चल रही हैं, अन्दर ही अन्दर, अन्तर्द्वद से ग्रसित भटकते जैसे, यह शब्द हो रहे हैं। न जाने क्यों यह शब्द, खामोश हो रहे हैं। . परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि ...
समय आ गया है
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समय आ गया है

धैर्यशील येवले इंदौर (म.प्र.) ******************** सुना है जब हम किसी की अंत्येष्टि में जाते है, तो कुछ घड़ी के लिए श्मशान वैराग्य हमे गैर लेता है। वैसे ही मुझे इस कोविड काल मे कोविड वैराग्य ने घेर लिया है,और जो ज्ञान मुझे इस कालावधी में प्राप्त हुआ वो इस कविता में रूप में आप को सादर प्रस्तुत है। बहुत कर लिया बाहर का प्रवास भीतर के प्रवास का समय आ गया है। दुसरो की त्रुटियां बहुत गिन ली तूने स्वयं की गिनने का समय आ गया है । आनंद उठा लिया दूजो पर हंस कर खुद पर हँसने का समय आ गया है। हर एक को नापा अपने पैमाने से दूसरे को नाप देने का समय आ गया है। अपना लाभ देखते रहे उसकी हानि से मुझे क्या सब लेखाजोखा देने का समय आ गया है। ज्ञान बांट दिया खुद रीते रह गए खुद सीखने का समय आ गया है। बढ़ाते रहे लकीर अपनी दुसरो की काट कर खुद लकीर खींचने का समय आ गया है। पीर को प्रेम समझ सभी से करते रहे पीर ...
प्रीति की रीत
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प्रीति की रीत

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** प्रीत की पाती ना ये मद है ना ही मदिरा, ना बंधन है ना आज़ादी। प्रीति की रीत ही ऐंसी, मेरे मन को सदा भाती।। नहीं क्लोशों के झुरमुट में, हृदय का द्वार है खुलता। पतित पावन हो अंतर्मन, तो निर्मल  भाव ये मिलता।। समय की चाकरी में तुम, नहीं ये साधना पीसो। नयन धर नेह के अश्रु, पटल नव कल्प के सीचों।। ना रह जाता जहाँ में कुछ, हो प्रियतम राग की रसना । ऋषि मुनि संत विद्ववों के  कथानक  सार का कहना।। नैसर्गिक एक दृष्टि रख ना देखे वंश जीव जाती। सदा सुरभित है दुनिया में ये अनुपम 'प्रीत की पाती'।। करे लौकिक जहाँ को हेतु रक्षित भाव की थाती। विरह तत् नित्य चिंतन में अवनि अंबर वरे स्वाति ।। समर्पित प्रेम से बढ़कर नहीं कुछ ओर रे मितवा। जो त्यागे अन्य की ख़ातिर स्वयं उज्ज्वल हो ज्यों बाती।। . परिचय :- अर्चना पाण्डेय गौतम साहित्यिक उपनाम - अर्चन...
चिट्ठियां तेरे नाम की
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चिट्ठियां तेरे नाम की

विशाल कुमार महतो राजापुर (गोपालगंज) ******************** आंखों की आँसू सुख गई, अब सिसकियां नही आती, तू याद नही करती और मुझे हिचकियाँ नही आती। लिखने को लिखी कई चिट्ठियां तेरे नाम की, पर तु जहाँ हैं, वहाँ कोई चिट्ठियां नहीं जाती। अगर तू बन जाय मंजिल, तो हम तेरे सफर बनेंगे सुख में तेरे साथ हैं, और दुःख का भी हमसफर बनेगें। जो बह जाय लहरों के संग वो वापस कभी मिट्टियां नही आती, पर तु जहाँ हैं, वहाँ कोई चिट्ठियां नहीं जाती। कभी सोचा ना था बदलोगे और इतना कैसे बदल गए, कहते थे साथ न छोड़ेंगे, और छोड़के क्यों तुम चले गए। जिस लब की बाते गूंजती थी, उस लब से अब तो सीटियां नही आती पर तु जहाँ हैं, वहाँ कोई चिट्ठियां नहीं जाती। कैसे तुम्हें बताए हम, इस दिल सुनाए हम तेरे बिना तन्हा तन्हा कैसे ये पल बिताए हम दिल दर्द होठो से कभी बयां नहीं कि जाती पर तु जहाँ हैं, वहाँ कोई चिट्ठियां नहीं जाती।   ...
चार कांधों की दरकार
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चार कांधों की दरकार

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** सांसों के मध्य संवेदना का सेतु ढहते हुए देखा देखा जब मेरी सांसे है जीवित क्या मृत होने पर सवेंदनाओं की उम्र कम हो जाती या कम होती चली जाती भागदोड़ भरी जिंदगी में वर्तमान हालातों को देखते हुए लगता है शायद किसी के पास वक्त नहीं किसी को कांधा देने के लिए समस्याओं का रोना लोग बताने लगे और पीड़ित के मध्य अपनी भी राग अलापने लगे पहले चार कांधे लगते कही किसी को अब अकेले ही उठाते देखा, रुंधे कंठ को बेजान होते देखा खुली आँखों ने संवेदनाओं को शुन्य होते देखा संवेदनाओ को गुम होते देखा ह्रदय को छलनी होते देखा सवाल उठने लगे मानवता क्या मानवता नहीं रही या फिर संवेदनाओं को स्वार्थ खा गया लोगों की बची जीवित सांसे अंतिम पड़ाव से अब घबराने लगी बिना चार कांधों के न मिलने से अभी से जबकि लंबी उम्र के लिए कई सांसे शेष है ईश्वर से क्या वरदान मांगना चाहिए ? बि...
पुस्तक का संसार
कविता

पुस्तक का संसार

माधुरी व्यास "नवपमा" इंदौर (म.प्र.) ******************** बड़ा वृहद पुस्तक का संसार, इसका ज्ञान अनन्त अपार। मानव-सभ्यता का जो हुआ विकास, पुस्तक से पाया है उसका विस्तार। संस्कृति-विकास का जो समग्र प्रयास, पुस्तकों को मिला नेह-श्रेय अपार। बड़ा वृहद पुस्तक का संसार, इसका ज्ञान अनन्त अपार। पुस्तक पर मानव मात्र का है अधिकार, जाति-सम्प्रदाय का नहीं कोई विवाद। व्यक्तित्व बनाती संतुलित और उदार, अद्भूत आश्चर्यो की इसमे है भरमार। बड़ा वृहद पुस्तक का संसार, इसका ज्ञान अनन्त अपार। मेरे एकांकीपन में एकांत है दिलाती, जब कभी भी होती हूँ मैं इसके साथ। सारे जगत में इसके संग घूम आती, स्वर्ग बना देती ये फिर मेरा छोटा संसार। बड़ा वृहद पुस्तक का संसार, इसका ज्ञान अनन्त अपार। आज करो सब संकल्प बस इतना, प्रेम करो मनुज तुम इसका करो आभार, देती है ये सतत-निस्वार्थ सेवा का उपहार, ये महान मित्र और सच्ची है सलाहकार...
कल का शख्स
कविता

कल का शख्स

श्याम सिंह बेवजह नयावास (दौसा) राजस्थान ******************** देख कर मैं आर्श्चयचकित रह गया जब कल का शख्स अपना कह गया ता उम्र सिंचा जिस व्रक्ष को अपने लिए बांध कर रखा जिस ड़ोर से वह घह गया हालात बदत्तर होते देख अश्क़ झलक गए लफ़्ज न निकला एक आज चुपचाप सह गया घूटन होने लगी आज उसी आशियाँ में जो पुरखों का सपना था मगर ढ़ह गया देख़ ऐ ताक़त उस जोरू की सिर गर्माया है लग़ने लगा है ग़लत उगाया व्रक्ष जो बह गया हर सपना अधूरा सा नज़र आने लगा है सब तेरी वज़ह से ये अपनी मां से कह गया ज़माना बदलने की हद्द शिकायतें दर्ज बहुत उठीं कलम "श्याम सिंह" लिखा जो चह गया   परिचय :-  श्याम सिंह बेवजह निवासी : नयावास (दौसा) राजस्थान आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने हेत...
अखबार वाला
कविता

अखबार वाला

मुकुल सांखला पाली (राजस्थान) ******************** आता है वह अलसुबह सूर्य की पहली किरण के साथ टूटे चप्पल और पुराने कपडे अपनी साईकील पर थैला लिए और लाता है चंद पन्नों में समेटकर सारा संसार कुछ मीठी कुछ खट्टी खबरे होती है कुछ तीखी और कुछ चटपटी कहीं होता है राजनीति का दंगल कहीं बिखरा रहता है खेल होती है बाते फिल्मी जगत की कुछ मनोरंजन और होता है कुछ व्यापार कमाने को दो वक्त की रोटी बिक जाता है पूरा बचपन खिसकाकर अखबार हर दरवाजे के नीचे से भागता है स्कूल की और पढने की चाह इतनी बस मिल जाए वक्तौर जगह लाता है सूखी रोटी और थोडा अचार देने को आकार अपने सपनों को मजबूरी में करता है मजदूरी कोई और नहीं है वह भविष्य को खोजता अखबार वाला . परिचय :- मुकुल सांखला सम्प्रति : अध्यापक राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय, खिनावडी, जिला पाली निवासी : जैतारण, जिला पाली राजस्थान आप भी अपनी कविताएं, कहानियां,...
जागो
कविता

जागो

ओमप्रकाश सिंह चंपारण (बिहार) ******************** जागो जागो हे आर्यपुत्र विषम काल है फिर आया! जागो जागो हे नटवर फिर तू प्रलयकाल है फिर आया! उठा गांडीव फिर तू अर्जुन महासमर है फिर छाया! शंखनाद तू कर हे योगेश्वर विषमकाल है फिर आया! जागो जागो हे परशुराम हवन कुंड है मुरझाया! फिर तू परशु प्रहार कर अनाचार घनघोर छाया! दीपक की लौ मुरझाने को है विद्वेष भाव है पतित फैलाया! धर्म ध्वज अब फहराआओ महा समर का क्षण आया! 'सत्यमेव'अटूट वाक्य हो सिंघनाद का वह क्षण आया! राष्ट्रप्रेम से बढ़कर कुछ नहीं? सृजन काल है फिर आया! जागो -जागो हे नटवर फिर से 'प्रलयकाल' काल है फिर आया! उठा सागर में 'महाज्वार' है जागो जागो हे महामाया! . परिचय :- ओमप्रकाश सिंह (शिक्षक मध्य विद्यालय रूपहारा) ग्राम - गंगापीपर जिला - पूर्वी चंपारण (बिहार) सम्मान - हिंदी रक्षक मंच इंदौर (hindirakshak.com) द्वारा हिन्दी रक्षक २०२० सम्म...
अंधेरे में जो मुस्करा दे
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अंधेरे में जो मुस्करा दे

शरद सिंह "शरद" लखनऊ ******************** घनश्याम कहते हैं अंधेरे में जो मुस्करा दे, उसे दीप कहते हैं, मोती है जिसके अंतर में, उसे सीप कहते हैं, दिल में उठी तरंग को, उमंग कहते हैं, करदे जो अपने जैसा, उसे रंग कहते हैं, चले जो निरंतर उसे, अविराम कहते हैं, बस जाये जो धड़कन में, उसे घनश्याम कहते हैं। . परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने "मेरी स्मृतियां" नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख...
माँ गाँधारी
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माँ गाँधारी

मीना सामंत एम.बी. रोड (न्यू दिल्ली) ******************** सुनो हे गाँधारी माँ तुम से कुछ कहना चाहती हूँ, महाभारत खत्म जीवन की,खुश रहना चाहती हूँ! महाभारत सी घटना घटी है, मेरे भी इस जीवन में, जिसकी थकन अभी तक बाकी हैं मेरे तन मन में! जल्दी ही गुजरा मेरा बचपन और जवानी पूरी हुई, आधी अधूरी और एक कड़वी सी कहानी पूरी हुई! जीवन में यूँ कभी किसी के ऐसे भी दुर्दिन फिरे नहीं, किसी और का दुखड़ा किसी और हिस्से गिरे नहीं! मन की चिड़िया उड़कर देखती है मुझको चहुंओर, ऐसे लगता अंबर नाप रहा है नैनों से धरती का छोर! है जीवन का यह तृतीय चरण मेरी सेवा का मोल दो, सांसरिक मोह माया की पट्टी इन नयनों से खोल दो! . परिचय :- मीना सामंत एम.बी. रोड (न्यू दिल्ली) आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर ...
प्रीत की पाती: पंचम स्थान प्राप्त रचना
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प्रीत की पाती: पंचम स्थान प्राप्त रचना

रशीद अहमद शेख 'रशीद' इंदौर म.प्र. ******************** मन मलिन है, सुख नही वैभव नहीं! प्रेम की पाती लिखूँ संभव नहीं! सुप्त है स्वर्णिम सबेरा, दु खों ने डाला है डेरा! हैं नहीं आशा की किरणें, जग में छाया है अंधेरा! जो करे आलोक वह अर्णव नहीं! प्रेम की पाती लिखू संभव नहीं! मौन हैं सब ओर व्यापित, नाद लगता है पराजित! क्षण-प्रतिक्षण है उदासी, दिवस शापित,निशा शापित! कौनसा स्थल है जो नीरव नहीं है! प्रेम की पाती लिखूँ संभव नहीं है! अपने घर में बन्द हैं सब, अनमने आनन्द हैं सब! दृष्टिगत एकल अधिक हैं, अगोचर पथ-वृन्द हैं सब! पूर्ववत अब श्रव्य जन-कलरव नहीं! प्रेम की पाती लिखूँ संभव नहीं! हुए हैं अगणित प्रभावित, काल भी है स्वयं विस्मित! समस्या-पर्वत खड़े हैं, सभी सम्मेलन हैं वर्जित! त्रासदी-पीड़ित कहाँ मानव नहीं! प्रेम की पाती लिखूँ संभव! . परिचय -  रशीद अहमद शेख 'रशीद' साहित्यिक उपनाम ~ ‘रशीद...
प्रीत की पाती: चतुर्थ स्थान प्राप्त रचना
कविता

प्रीत की पाती: चतुर्थ स्थान प्राप्त रचना

विमल राव भोपाल म.प्र ********************   प्रीत की पाती लिखे, सीता प्रिये प्रभु राम कों। प्रीत की पाती लिखे, राधा दिवानी श्याम कों॥ प्रीत के श्रृंगार से, मीरा भजे घनश्याम कों। प्रीत पाती पत्रिका, तुलसी लिखे श्री राम कों॥ प्रीत की पाती बरसती, इस धरा पर मैघ से। प्रीत करती हैं दिशाऐं, दिव्य वायु वेग से॥ प्रीत पाती लिख रहीं हैं, उर्वरा ऋतुराज कों। हैं प्रतिक्षारत धरा यह, हरित क्रांति ताज़ कों॥ प्रीत पाती लिख रहीं माँ, भारती भू - पुत्र कों। छीन लो स्वराज अपना, प्राप्त हों स्वातंत्र कों॥ धैर्य बुद्धि और बल से, तुम विवेकानंद हों। विश्व में गूंजे पताका, तुम वो परमानंद हों॥ प्रीत पाती लिख रहा हूँ, मैं विमल इस देश कों। तुम संभल जाओ युवाओ, त्याग दो आवेश कों॥ वक़्त हैं बदलाव का, तुमभी स्वयं कों ढाल लो। विश्व में लहराए परचम, राष्ट्र कों सम्भाल लो॥ . परिचय :- विमल राव "भो...
प्रीत की पाती: तृतीय स्थान प्राप्त रचना
कविता

प्रीत की पाती: तृतीय स्थान प्राप्त रचना

विवेक रंजन 'विवेक' रीवा (म.प्र.) ******************** जाने कब से रहा निरखता, मैं अपनी प्यारी सजनी को। कुछ धूप चुरा के ऊषा की, कुछ देर लजाती रजनी को। कितना भोला स्निग्ध है चेहरा, कुछ बूंदें शबनम पलकों में। क्या अद्भुत सिंगार किसी ने, काजल बिखरा दी अलकों में। मधुकलश सजे हैं अधरों पर, दिल में सागर की गहराई। झील के दरपन सा अन्तर्मन, मन की लहर वहाँ लहराई। पलकों की पढ़ पढ़ के इबारत, प्रणय के कितने गीत लिखे। तब जन्मों का साथ निभाने, तुम बनकर मन मीत मिले। बारात सजी अब अरमानों की, प्रणय प्रीति परिधान लिये। बेकल से दिल को चैन मिलेगा, तुमको पाकर प्राणप्रिये ! छनकती पायल आस बंधाती, अभिलाषा के गीत सजाती। कुछ दिन का बस धीर धरो, सनद रहे ये प्रीत की पाती। यह प्रेम चिरन्तन बना रहेगा, रोम रोम हर साँस तुम्हारी। बरस पड़े अब प्रेम सुधा रस, बाट जोहता प्रेम पुजारी। . परिचय :- विवेक रंजन "विवेक" जन्म -१६ मई १९६...