भटकाव
छत्र छाजेड़ “फक्कड़”
आनंद विहार (दिल्ली)
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जिंदगी में
भटकाव ही भटकाव है
भटकाव दर भटकाव
मेला लगा है भटकावों का
मन का भटकाव...
तन का भटकाव...
मन चंचल है
न जाने कहाँ-कहाँ भटकता है....
जब मन भटकता है
मनु की सोच भटकती है
जब चटकती है
अतृप्त महत्वाकांक्षाएं
जब खटकती है पर-प्रगति
लटकती है लालसायें
मटकती मन-मरीचिका
सोच को उद्विग्न करती है
मन डूबता जाता है
आकांक्षाओं के समंदर में
समंदर में भांति भांति की
क्रोध,मा न, माया,
लोभ सरूपी मीन
सुनहरी आकर्षित
करती मछलियाँ
मन डोल कर हो
जाता है पथच्युत
भटकता स्व-निर्मित
जाल में....
तन जब भटकता है
उद्वेलित कर काम
आवेशित कर तृष्णा
भटका देता है मन भी
भटकती राहें तन लिप्सा की
बदल जाते संदर्भ
जब भटकते तन-मन
कहाँ बच पाता मन भटकाव से
कैसे हो पाये मन स्थित प्रज्ञ
कैसे लिख पाये व्यथित मन
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