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पद्य

माँ का खत
कविता

माँ का खत

रतन खंगारोत कलवार रोड झोटवाड़ा (राजस्थान) ******************** बहुत दिनों के बाद मेरी मां का खत आया है। उसकी सोंधी खुशबू ने मेरा गांव याद दिलाया है। वह घर-आंगन में खेलना और पेड़ों पर चढ़ना। उछल -कूद करके सारा दिन मां को बहुत सताना। इसने मेरे बचपन की सारी नादानियों को याद दिलाया है। बहुत दिनों के बाद मेरी मां का खत आया है। उसकी सोंधी खुशबू ने मेरा गांव याद दिलाया है। सबका लाड़ला था मैं, वहां न कोई पराया था। हर घर से ही मैंने प्यार बहुत पाया था। बहुत मजबूत था, हम यारों का याराना। खुशी का हर गीत ही मैंने बचपन में ही गया है। बहुत दिनों के बाद मेरी मां का खत आया है। उसकी सोंधी खुशबू ने मेरा गांव याद दिलाया है। शुद्ध हवा और शीतल पानी। झरने-नदियां कहती अपनी ही कहानी। तालाबों में मैंने देखी मीन की अठखेलियां। बारिश की नन्ही बूंदों ने हर तरु का मन हर्ष...
परछाइयाँ
कविता

परछाइयाँ

छत्र छाजेड़ “फक्कड़” आनंद विहार (दिल्ली) ******************** कब पीछा छोड़ती है परछाइयाँ ये प्रतिबिंब होती है उसके व्यक्तित्व की झलक होती है निजी अस्तित्व की आभास होती है प्रछन्न अनुभूति की प्रबल विश्वास होती है मानसिक संवेदनाओं की... इसकी सघन जकड़न में अलग उन्माद है अजब आक्रोश है भीनी महक है चुलबुल चहक है सहमी सी कुंठा है पाने की उत्कंठा है सही की आशा है गहन जिजीविषा है.... फिर भी परछाई तो परछाई है कभी कभी दिखती है शेष बस अहसास है प्रत्यक्ष है... परोक्ष है... परंतु प्रति पल संग है.... ये तो मीठी मीठी सिहरन है पगलायी सी विरहन है नीलोत्पल की दमक दामिनी आवेश की सरस चाशनी पागलपन भी कैसा कैसा प्रिय-प्रिये मिलन जैसी परछाइयाँ.. पर क्या टूटेगा ये अमर प्रेम स्व से परछाई का वहम ना... कभी नहीं... क्योंकि ये स्व का दर्पण है स्व श्रद्...
मातृत्व दिवस
कविता

मातृत्व दिवस

किरण पोरवाल सांवेर रोड उज्जैन (मध्य प्रदेश) ******************** माँ को मै पलको पे रख लूँ, उनकी बाते सर पर रख लूँ, गुढ रहस्य की बाते माँ मै, इतिहास के पन्ने हे माँ मै, जीवन के सब सपने माँ मै, खाने का भण्डार है। (अन्नपूर्णा) माँ मै, बीते दिनो की याद है माँ मै, संस्कृति और संस्कार है माँ मै, मान और सम्मान है माँ मै, दुनिया के हर अनुभव माँ मै। घर मै एक वर्चस्व ही माँ है, घर की एक रौनक ही तो माँ है, बच्चो का तो सब कुछ माँ है, जीवन का एक पथ ही माँ है, भले बुरे की पहचान है माँ मै, मन के भाव की पहचान है माँ मै, गम को पीना खुशी से रहना, सबको लेकर साथ है चलना, यही भाव तो माँ रहता, घर मै सदा सजग है रहना, चौकन्ना सदा ही रहना, यह सब तो माँ मै ही रहता, मेरा तो यह अनुभव दिल का, बिन माँ के हम (बच्चा) पथ विहीन है रहता, जीवन का पथ माँ से मिलता, शिखर को छूने का साहस दे...
केवल प्यार
कविता

केवल प्यार

शकुन्तला दुबे देवास (मध्य प्रदेश) ******************** स्पर्श हीन। रंग हीन। गन्ध हीन। पर अगोचर विस्तार वो है प्यार, प्यार,प्यार। छुपा है दीपक में ज्योति सा सीप में मोती सा दर्पण में छवि सा। प्यार ... बसा है रवि रश्मि में प्रकाश बनकर। विधुलेखा में आस बनकर। जीवन रेखा में स्वास बनकर। गुंजित है कोयल की कूक में। ग्रीष्म की फूंक में। दिल की हूक में व्याप्त है। फूलों की सुगन्ध में बच्चों की किलकारियो में। चिड़ियों के कलरव में प्यार-प्यार-प्यार ... परिचय :- शकुन्तला दुबे निवासी : देवास (मध्य प्रदेश) शिक्षा : एम.ए. हिन्दी, समाज शास्त्र, दर्शन शास्त्र। सम्प्रति : सेवा निवृत्त शिक्षिका देवास। घोषणा : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि र...
खुली खिड़की
कविता

खुली खिड़की

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** जब खिड़की खोलकर देखता हूं बाहर का नजारा चिड़ियों की चहक दोस्तों का दिखना ठंडी हवा फूलों की खुशबू कर देती मन को ताजा सूरज की किरणें घर में उजास भर देती जब सुबह खिड़की खोलती। अब मेरी आदत खिड़की खोलने की चिड़ियों ने चहचाहट कर रोज़ डाल दी अब महसूस हुआ प्रकृति कितनी सुंदर है ऐसा लगता तितलियां, भोरें और पंछी मानो मेरा अभिवादन कर रहे हो। परिचय : संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता : श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि : २ मई १९६२ (उज्जैन) शिक्षा : आय टी आय निवासी : मनावर, धार (मध्य प्रदेश) व्यवसाय : ड़ी एम (जल संसाधन विभाग) प्रकाशन : देश-विदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ व समाचार पत्रों में निरंतर पत्र और रचनाओं का प्रकाशन, प्रकाशित काव्य कृति "दरवाजे पर दस्तक", खट्टे मीठे रिश्ते उपन्यास कनाडा-अंतर्राष्ट्रीय स्तर...
असमंजस
कविता

असमंजस

राम राज सिंह उन्नाव (उत्तर प्रदेश) ******************** मौन  मुखर हो जाता है साहस जब भर जाता है बस वही विजय को पाता है प्रण पावक जो बन जाता है असमंजस के अंधकार में दीप नया जलने दो ... जीवन को पलने दो ... बाधाओं के उद्यानों में अपमानों की अमर बेल से घोर घृणा के तूफानों में अरमानों के मरण मेल से अटक भटक से पृथक, सरपट पग चलने दो, जीवन को पलने दो ... जीवन को पलने दो ... असफलता के भय से व्याकुल प्राण द्वंद में क्यों जीते? क्षमता को परिमार्जित कर फिर लक्ष्य नए क्यों न सीते? स्वजनों के जो स्वप्न सरल न गरल में ढलने दो, जीवन को पलने दो ... जीवन को पलने दो ... तमतमाते क्षितिज से मिलने चिंगारी जुगनू की होड़ अंग झुलसते विकल बिलखते किंतु नहीं पथ लेते मोड़ सरिता सम तुम दिशा बदल दशा बदलने दो, जीवन को पलने दो ... जीवन को पलने दो ... संघर्ष प्रकृति है जीवन ...
रुख लगावव… रुख बचावव…
आंचलिक बोली, कविता

रुख लगावव… रुख बचावव…

प्रीतम कुमार साहू लिमतरा, धमतरी (छत्तीसगढ़) ******************** छत्तीसगढ़ी कविता रुख लगावव, रुख बचावव बारी बखरी खेत खार म, बंजर धरती अउ कछार म, जुरमिल के जम्मों संगवारी, सुग्घर रुख राई लगावव..!! रुख राई के अब्बड़ महत्ता औषधि गुन ले भरे हवय ! फर, फूल अउ शुद्ध हवा, रुख-राई ले मिलत हवय..!! रुख बिना जिनगी अबिरथा, रुख म जिनगी समाय हवय ! झन कांटो रुख-राई ल संगी, जिनगी के इही आधार हरय !! काँट काँट के जम्मों रुख राई, चातर झन कर भुइयाँ ला ! आज लगाबे ता काली पाबे, सुग्घर रुख-राई के छइयाँ ला !! रुख हावय त जिनगी हावय, सिरतोन कहे हे सियानमन ! रुख लगाबोन, रुख बचाबोन ए कसम खावव मनखेमन !! चारों कोती रुख-राई लगाके, धरती ल हरियर बनावव जी ! रुख लगाके रुख ल बचावव, ए धरती के मान बढा़वव जी!! परिचय :- प्रीतम कुमार साहू (शिक्षक) निवासी : ग्राम-लिमतरा, जिला...
वैराग्य का मौन
कविता

वैराग्य का मौन

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** थक चुकी है वो मग़र, ना रिश्तों के बोझ से ना जिम्मेदारियों से वो थकी है खुद के भीतर के शोर से ! उसे कोई शिकायत नहीं, कोई प्रश्न नहीं, सूख चुकी है उसके भीतर की नदी जो निर्मल बहा करती थी अब वो स्थिर शांत हो गई है ! कुछ पल चाहती है जिंदगी से सिर्फ अपने जीवों लिए उन पलों में वो जी भर के उनको प्यार करना चाहती है, उनके चेहरे की मुस्कान बनना चाहती है ! कभी पत्नी, कभी माँ, कभी बेटी बनकर जो निभाये थे कर्तव्य उसने, मित्र बनकर जोड़ा था टूटे दिलों को उसने धूमिल पड़ चुके है उनके रंग और रिश्तों की चमक, नहीं है शेष कोई उल्लास कोई अभिलाषा उसकी !! ढूँढ रही है कुछ ऐसे पल जिसमें" वो "केवल वो "रहे, ना "किसी की" ना "कोई" बन जीना चाहती है ! अब ना आँसू बचे थे, ना मुस्कराने की कोई चाहत, बस है...
बोलो जय महाकाल …
भजन

बोलो जय महाकाल …

कमल किशोर नीमा उज्जैन (मध्य प्रदेश) ******************** क्षिप्रा मैया से चले मिलने कालों के काल। झूमें नाचे गाये भक्त बजाए झाँझ करताल। बोलो जय महाकाल … बोलो जय महाकाल … पुत्र गणपति खड़े है लेके फूलों की माल। हर्षिद्धी माँ आई लेके आरती की थाल। बोलो जय महाकाल … बनी दुल्हनियाँ अवन्तिका बढ़ गई उसकी शान। क्षिप्रा जी के तट पर आज उड़े रे गुलाल। बोलो जय महाकाल … कर सोलह सिंगार ओढ़ चुनरियाँ लाल। चरण पखारे क्षिप्रा मैया आज हुई रे निहाल। बोलो जय महाकाल … हरि से मिलने आए बाबा पालकी में विशाल। हर्षित होकर मिले गले से मदन गोपाल। बोलो जय महाकाल … दर्शन देने निकले प्रजा को बाबा महाकाल। नगर भ्रमण कर जाने बाबा भक्तों के हाल। बोलो जय महाकाल … परिचय :- कमल किशोर नीमा पिता : मोतीलाल जी नीमा जन्म दिनांक :१४ नवम्बर १९४६ शिक्षा : एम.कॉम, एल.एल.बी. निवासी : उज...
मौन और संवाद
कविता

मौन और संवाद

शिवदत्त डोंगरे पुनासा जिला खंडवा (मध्य प्रदेश) ******************* आज मै फ़िर बैठी हूँ उसी जगह वही समय और वही चांद है मेरे सामने बस तुम कहीं खो गए हो. बादल तो हमारे यहां हल्के हैं इस बरसात में भी शायद तुम्हारे यहां के बादल तुम्हें छिपाकर रोक लिया चांद को दिखाने से कुछ यूं ही हम तुमको सोच रहे हैं. क्या वो मछली स्पर्श कर पाई होगी कमल को या वो वैसे ही बैचेन उद्धत है आज भी चूमने को उस कमल को? नहीं शायद वो घबरा गई होगी मेघों को देख के या कहीं छिप गई होगी उसी कमल के पत्तों में लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि वो दिखें न तो वो होगा ही नहीं बस ऐसे ही घुमड़ रहे हैं कई सवाल जो सिर्फ़ और सिर्फ़ दिमाग़ की उपज हैं. इसलिए कि कुछ प्रश्न उसके अनुसार अनुत्तरित रहते हैं हां सही भी है हर सवालों के जवाब मिल जाए जरूरी तो नहीं. आज फ़िर बैठी हूँ तो उ...
धरा पर पग धरें…
स्तुति

धरा पर पग धरें…

सौ. निशा बुधे झा "निशामन" जयपुर (राजस्थान) ******************** शम्भू तू, शिवशक्ति तू, धरा-व्योम की भक्ति तू। ॐ से उठे स्वर तेरा, चतुर्थ में समृति तू। ॥१॥ त्रिनेत्र में नाव जले, डमरू की ये ऊंची आवाज। संस्कृति का आधार तू, कालान्तक, शुभ भाव। ॥२॥ गंगाजल डूबे तुम, भस्म भाल पर छाय। डांस जब करे नटराज तू, एकजुट हो जाओ सब लोक घनेरे। ॥३॥ सर्प हार, कर त्रिशूल धरे, चंद्रभाल मन शांति परम। शिवरात्रि की वह रजनी, तेरे नाम से जगे सवेरे। ॥४॥ निर्गुण, फिर सगुण लगे, वैराग्य भी, अनुराग जगे। भक्ति-पथ के दीपक तू, जीवन में जो आलोक जगे। ॥५॥ परिचय :- सौ. निशा बुधे झा "निशामन" पति : श्री अमन झा पिता : श्री मधुकर दी बुधे जन्म स्थान : इंदौर जन्म तिथि : १३ मार्च १९७७ निवासी : जयपुर (राजस्थान) शिक्षा : बी. ए. इंदौर/बी. जे. मास कम्यूनिकेशन, भोपाल व्यवसाय : एनला...
एक  चिंतन
कविता

एक चिंतन

प्रो. डॉ. शरद नारायण खरे मंडला, (मध्य प्रदेश) ******************** कर्म बड़ा या जाति प्रश्न‌ यह तो चोखा है। कर्म बड़ा होता मानो, नहीं कोई धोखा है।। कर्म से जीवन बनता, यह ही सब मानो। कर्म की गति-मति को, सब ही पहचानो।। ऊँचनीच में रखा नहीं कुछ, सब बेमानी। समता को धारण करने की क्यों न है ठानी।। आज नया चिंतन, नव जीवन लाना होगा। जुड़ गया जो गुलशन फिर महकाना होगा।। ईश्वर की सब रचनाएँ सब हैं अति सुंदर। आज बना पावनता से घर को मंदिर।। कर्म सदा शोभित होता है विजय उसी की। जिसने नैतिकता नहीं मानी,है क्षय उसकी।। सोच सही होगा तब ही जीवन महकेगा। होगा सब का भला और जीवन चहकेगा।। सभी आदमी सदा बराबर, यह ही साँचा। यह कहते वे, जिन ने गीता ग्रंथ को बाँचा।। परिचय :- प्रो. डॉ. शरद नारायण खरे जन्म : २५-०९-१९६१ निवासी : मंडला, (मध्य प्रदेश) शिक्षा : एम.ए (इतिहास) (मेरिट होल्डर), ए...
सच से ऊबते लोग
कविता

सच से ऊबते लोग

सूर्यपाल नामदेव "चंचल" जयपुर (राजस्थान) ******************** पानी से पानी का चरित्र पूछते हैं लोग, आईना देख शर्म से पानी में डूबते हैं लोग। लाखों की भीड़ में खुद को ही ढूंढते हैं लोग, क्यों आज फिर लगा कि सच से ही ऊबते हैं लोग। खुदगर्ज हैं कि अरमानों में ही टूटते हैं लोग, मतलबपरस्ती में लोगों की खुशी लूटते है लोग। गुनाहों को अपने आसानी से भूलते है लोग, क्यों आज फिर लगा कि सच से ही ऊबते हैं लोग। मुश्किलों में अपनी जी जान फूंकते है लोग, कठिनाइयों में लोगों की खुशी से झूमते हैं लोग। शर्मसार हो खुद जब फिर आंखें मूंदतें है लोग, क्यों आज फिर लगा कि सच से ही ऊबते हैं लोग। कामयाबियों को अपनी सरेआम चूमते हैं लोग, सफलताओं को दूसरे की शक से घूरते हैं लोग। फल कर्मों का मिल जाए तो रूठते है लोग, क्यों आज फिर लगा कि सच से ही ऊबते हैं लोग। परिचय :- सूर्यपाल नामदेव "चंचल" शिक्षा : ...
शब्द
कविता

शब्द

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** वो शब्द ही है जो जोड़ता है दिलों को और एक झटके में किसी को भी करा देता निःशब्द, नन्हे बच्चों को शब्दों का ज्ञान कराते हैं, जब वह बोलने लगता है जबरन चुप कराते हैं, शब्द हृदयस्पर्शी भी हो सकता है और शूलों से भरा भी हो सकता है, यदि संभाल कर न उपयोग किया जाए सारे किये कराये को धो सकता है, किसी के व्यक्तिगत व्यवहार को उनके प्रयुक्त किये गए शब्दों से आंकते हैं, इसी से उनके हृदय की गहराई नापते हैं, यही है जो देश दुनिया से रूबरू कराता है, वैश्विक परिदृश्य बेझिझक बताता है, शब्दों के आदान प्रदान से नये नये भौगोलिक रिश्तों का प्रवाह आया है, रिश्तों का बराबर निबाह आया है, कोई चालाक मीठे बोल प्रधान बनते हैं, नासमझी में उलझे भीड़ के हुक्मरान बनते हैं, सबको पता है इस जहां में आना और जाना है, ...
पालकी बैठे महाकाल
स्तुति

पालकी बैठे महाकाल

किरण पोरवाल सांवेर रोड उज्जैन (मध्य प्रदेश) ******************** जटा मुकुट सिर गंग की धार, अंग भुजंग भस्मी है माथ, गले मुंड की माल। भस्मी रम्मैया बेठे नाथ, महाकाल कालों के काल, रजत पालकी बैठे महाकाल। बड़ी-बड़ी अखियां राजाधिराज, चली पालकी प्रजा के द्वार, कंचन थाल कपूर की बाती, भांग धतूरा भोग की थाल, गले मोगरा हार। चली पालकी द्वारिका के नाथ हरिहर मिलन द्वारिका के द्वार, बेलपत्र पहने गोपाल तुलसीदल महाकाल। परिचय : किरण विजय पोरवाल पति : विजय पोरवाल निवासी : सांवेर रोड उज्जैन (मध्य प्रदेश) शिक्षा : बी.कॉम इन कॉमर्स व्यवसाय : बिजनेस वूमेन विशिष्ट उपलब्धियां : १. अंतर्राष्ट्रीय साहित्य मित्र मंडल जबलपुर से सम्मानित २. अंतर्राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना उज्जैन से सम्मानित ३. राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच इंदौर द्वारा "साहित्य शिरोमणि अंतर्राष्ट्रीय समान २०२४" स...
रिमझिम बारिश
गीत

रिमझिम बारिश

मीना भट्ट "सिद्धार्थ" जबलपुर (मध्य प्रदेश) ******************** रिमझिम बारिश अच्छी लगती, छप-छप बोल कहानी सी। कागज की नावें चलती थ़ी, यादें गाँव सुहानी सी।। बचपन खेले गिल्ली डंडा, साथी संग निराले थे। पनघट बरगद अमराई थी, स्वप्न सभी मतवाले थे।। शंखनाद मंदिर में होते, थी मीरा दीवानी सी।। गूँजें घर-घर वेद ऋचाएँ, निष्ठा के उजियारे थे। पार लगाते जो सबको, ऐसे कूल किनारे थे।। शीतल छैंया पीपल की भी, देती सुखद निशानी सी। बातों में मिश्री घुलती थी, साथी गौरैया प्यारी थी। सजती थीं चौपालें निशदिन, पंचायत भी न्यारी थी।। स्वच्छंद हवा में उड़ने की, बातें हुईं पुरानी सी। कंचन बरसाते बादल थे, फसलें भी कुंदन थी। सौंधी सुगंध थी खेतों में, माटी भी चंदन थी।। मुस्काते थे हलधर मुखड़े, अधरों प्रेम निशानी सी। परिचय :- मीना भट्ट "सिद्धार्थ" निवासी : जबलपुर (...
मेरे सतगुरु
कविता

मेरे सतगुरु

डॉ. राजीव डोगरा "विमल" कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) ******************** कौन जाने मेरे सतगुरु तुम बिन मुझ कौन जाने। कौन तारे मेरे सतगुरु तुम बिन मुझ कौन तारे। कौन संभाले मेरे सतगुरु तुम बिन मुझ कौन संभाले। कौन समझे मेरे सतगुरु तुम बिन मुझ कौन समझे। कौन सँवारे मेरे सतगुरु तुम बिन मुझ कौन सँवारे। कौन ज्ञान चक्षु दें मेरे सतगुरु तुम बिन मुझ कौन दें। कौन भव पार करें मेरे सतगुरू तुम बिन मुझ कौन पार करें। परिचय :-  डॉ. राजीव डोगरा "विमल" निवासी - कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) सम्प्रति - भाषा अध्यापक गवर्नमेंट हाई स्कूल, ठाकुरद्वारा घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित...
सावन का सुहावना झूला
कविता

सावन का सुहावना झूला

ललित शर्मा खलिहामारी, डिब्रूगढ़ (असम) ******************** आता है सावन जब, मल्हार गीतों से गूंजती बहार सावन की हरी भरी हरियाली में, गूंजे गीतों की बहार ।।१।। सावन के सुरीले गीतों की मस्ती में, आंनद की बहार नवविवाहित सजती श्रावण में, करती सोलह श्रृंगार ।।२।। भगवान कृष्ण और राधा का सजता, सावन में दरबार श्रद्धालुओं की लंबी लंबी लग जाती, मंदिरों में कतार ।।३।। ब्रज में बुरा सेवन की परंपरा, दामाद आने की बहार सावन में ससुराल वाले, दामाद का करते इंतजार ।।४।। सावन में ठाकुरजी की आकर्षित लगती, सुंदर पोशाक दौड़े दौड़े आते भक्त, पहनाते बेबाकमनमोहक पोशाक।।५।। ब्रज रस में सावन का सुहावना, सुंदरता से सजा झूला कृष्ण राधा की युगल जोड़ी में, मधुरतम लगता झूला ।।६।। सावन में संस्कृतिसाहित्य की समृद्ध, नजर आती कला जिधर देखो सुनहरी छटा में सुंदर, ब्रज का सावन मेला ।।७।। चौरासीक...
सतगुरु चालीसा
चौपाई

सतगुरु चालीसा

सुधीर श्रीवास्तव बड़गाँव, गोण्डा, (उत्तर प्रदेश) ******************** -: दोहा :- गुरुवर की कर वंदना, नित्य झुकाऊँ माथ। गुरुवर विनती आप से,रखना सिर पर हाथ।। -: चौपाई :- सतगुरु का जो वंदन करते। ज्ञान ज्योति निज जीवन भरते।।१ गुरू ज्ञान का तोड़ नहीं है। इससे सुंदर जोड़ नहीं है।।२ गुरु वंदन का शुभ दिन आया। सकल जगत का उर हर्षाया।।३ गुरु चरनन में खुशियाँ बसतीं। सुरभित जीवन नदियाँ रसतीं।।४ गुरु दरिया में आप नहाओ। जीवन अपना स्वच्छ बनाओ।।५ गुरुवर जीवन साज सजाते। ठोंक- पीटकर ठोस बनाते।।६ पाठ पढ़ाते मर्यादा का। भाव मिटाते हर बाधा का।।७ गुरू कृपा सब पर बरसाते। समय-समय पर गले लगाते।।८ गुरुवर जीवन मर्म बताते। नव जीवन की राह दिखाते।।९ साहस शिक्षा गुरुवर देते। जीवन नैया जिससे खेते।।१० गुरू शिष्य का निर्मल नाता। जीवन को है सहज बनाता।।११ भेद-भाव नहिं गुरु ह...
बंद हैं संवेदना की सीपियाँ
गीतिका

बंद हैं संवेदना की सीपियाँ

भीमराव झरबड़े 'जीवन' बैतूल (मध्य प्रदेश) ******************** रोपना सौहार्द के कुछ बीज प्यारे, बस बबूलों की बची हैं पीढ़ियाँ अब।। नागफनियों - से हुए सब धर्मधारी। विष बुझी है हाथ में जिनके कटारी।। लिख रहे कानून की वे कंडिकाएँ, काटते जो न्याय के पथ की फरारी।। रेत में चट्टान-सा साहस गला है। बंद हैं संवेदना की सीपियाँ अब।। कोसती दुर्भाग्य को ही भूख आदी। खा रही आश्वासनों की दी प्रसादी।। जनसुरक्षा का जिसे अधिकार सौंपा, खून से लगती सनी वह श्वेत खादी।। पीटती है ढोल जो कल्याणकारी, कटघरे में जा खड़ी वे नीतियाँ अब।। दिन ब दिन बढ़ती दलाली की अटारी। त्रस्त होरी के चढ़ी सिर तक उधारी।। सेवकों के द्वार पर की फूलझड़ियाँ, कर रही रंगीनियों से खूब यारी।। जोड़ती जो इस धरा को आसमाँ से, ध्वस्त सारी हो गयी हैं सीढ़ियाँ अब।। परिचय :- भीमराव झरबड़े 'जीवन' निवासी : बैतूल मध्य प्रद...
किताबें कुछ कहती हैं
कविता

किताबें कुछ कहती हैं

सूर्यपाल नामदेव "चंचल" जयपुर (राजस्थान) ******************** कुछ कागज के पत्तों पर सूखी शाख की कलम जब चलती है कुछ अनकही भूली बिसरी कहानियों की यादें लिखती हैं कुछ अल्फाजों में अतीत की दासतां फिर इनमें रहती है जुबां जो हमको सुना न सकें वो सब किताबें कहती हैं संगीत सजा साजों में मधुर लहर स्वरों में बसती है सरस्वती विराजित हो वाणी में शब्दों से गजल बजती है तान और लय का संगम सरगम बन के पन्नों से ये बहती है बोल जो किसी के सिखा न सके वो सब किताबें कहती हैं शिक्षित हो प्राणी गुरुओं की वाणी शिलालेख सा ये लिखती हैं ज्ञानी और अज्ञानी शिक्षा की जब राह चले आईने सी ये दिखती हैं हुई अनमोल नहीं इनका कोई मोल ज्ञान गंगा सी ये बहती हैं ज्ञान जो कैद कोई रख न सके वो सब किताबें कहती हैं बढ़ चले कदम सफलता मिले हरदम राहें पढ़ कर ही मिलती है ज्ञान मिले विज्ञान मिले जीवन का संज्...
बचपन की नाव
कविता

बचपन की नाव

सौ. निशा बुधे झा "निशामन" जयपुर (राजस्थान) ******************** मेरी कश्ती आज फिर से तैयार है। बारिश में सामान को तैयार हैं।। सारे शहर में बारिश के शौकीन हैं। बस बंद हैं, तो वह स्कूल।। जहाँ बच्चों के शौक हैं। वह रास्ता, वह गलियाँ।। वह तेरा चौबारा। वह गांव की पक डंडी।। जिस ओर मुझे मेरी कश्ती मिलती है। बाकी मेरी छोटी सी कश्ती हैं।। बह कर किनारे पर। तो कभी भँवर में डूब न जाय।। मुझे डर था, पर वो तो निडर हैं। बहफैक्ट वो, अपना रास्ता कर।। आज वो कश्ती फिर से गाड़ी का मन है। क्योंकि वक्ता जो रुक गया.. एक बार फिर से मुकर देखने का मन है। बचपन को लेकर चलना का मन है।। परिचय :- सौ. निशा बुधे झा "निशामन" पति : श्री अमन झा पिता : श्री मधुकर दी बुधे जन्म स्थान : इंदौर जन्म तिथि : १३ मार्च १९७७ निवासी : जयपुर (राजस्थान) शिक्षा : बी. ए. इंदौर/...
वृक्ष
कविता

वृक्ष

 राम राज सिंह उन्नाव (उत्तर प्रदेश) ******************** कभी-कभी यह देख मुझे, बस यूँ ही हिल जाता है। प्रेम-सुधा पूरित हँसकर, नेह अमित बरसाता है।। स्वागत की अद्भुत सुविधा बस झुक जाने की एक विधा दानी दधीचि सा पुण्य प्राण उद्देश्य एक जगती का त्राण मान-भान से प्रथक सजग जग-जीवन को सर्साता है। ताप, शीत या वृष्टि सघन न कभी हारता उसका मन ज़रा, जन्म या अन्तकाम सेवा जीवन का एक नाम पीड़ा पाकर भी पावन पर-सुख पर मुसकाता है। विकट धैर्य से प्रकट सरल विनयशील वैभव का बल पीता प्रतिदिन काल-कूट क्षिति का प्रिय अवधूत-पूत जीवाश्म नहीं जीवन रस जीवन-हित जल जाता है। परिचय :  राम राज सिंह निवासी : उन्नाव (उत्तर प्रदेश) सम्प्रति : शाखा प्रबंधक (पंजाब नैशनल बैंक) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपन...
सावन
कविता

सावन

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** आकाश को निहारते मोर सोच रहे, बादल भी इतने वाले हो गए बिन बुलाए बरते नहीं शायद बादल को कड़कड़ाती बिजली चमकती होगी सौतन की तरह। बादल का दिल पत्थर का नहीं होता प्रेम जागृति होता है आकर्षक सुंदर, धरती के लिए धरती पर आने को तरसते बादल तभी तो सावन में पानी का प्रेम-संदेश प्रेमी रहे रिमझिम फ़ुहारों से। धरती का रोम -रोम, संदेश संदेश हरियाली बन उठती है मोर अपने घोड़े को फैलाकर स्वागत है नाचने बाघ बादल चले जाते हैं बेवफाई करके छोड़ो जाओ हरित सावन में पानी की यादें धरती पर प्रेम संदेश के रूप में। परिचय : संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता : श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि : २ मई १९६२ (उज्जैन) शिक्षा : आय टी आय निवासी : मनावर, धार (मध्य प्रदेश) व्यवसाय : ड़ी एम (जल संसाधन विभाग) प्रकाशन : देश-विदेश की विभि...
कहा गया रिश्तों से प्रेम
कविता

कहा गया रिश्तों से प्रेम

डॉ. प्रताप मोहन "भारतीय" ओमेक्स पार्क- वुड-बद्दी ******************** कहा गया रिश्तों से प्रेम आजकल रिश्तों से प्रेम कही खो गया है। प्रेम से बिछड़े एक जमाना हो गया है। ******** आजकल बनते हैं पैसे से रिश्ते यदि आप धनवान है तो सब बनायेंगे आपसे रिश्ते। ******* सगा गरीब रिश्तेदार भी किसी को नहीं सुहाता है। अमीर हो कोई दूर का रिश्तेदार वह सबको भाता हैं। ******* आजकल प्रेम की जगह पैसे ने ले ली है। दुनियां ने अब पतन की राह ले ली है। ******* गरीब रिश्तेदारों से लोग मुंह फेर लेते है। और धनवान रिश्तेदार को चारों तरफ से घेर लेते है। ******** हर रिश्ते में प्रेम बनकर रखिए पैसों से रिश्ते को दूर रखिए। ******** आजकल हर रिश्ते मतलब से चलते है अगर काम निकल गया तो ******** बिना प्रेम के रिश्ते स्थाई नहीं होते ऐसे रिश्ते है पानी के बुलबुले जैसे होते । ******** ह...