आओ फिर लौट चले बचपन की ओर
कीर्ति सिंह गौड़
इंदौर (मध्य प्रदेश)
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जब लड़ते थे झगड़ते थे,
बात बात पर यारों से अकड़ते थे।
सहेली की गुड़ियों की शादी में,
जब सज-धज कर जाते थे
और दावत भी उड़ाते थे।
तब माँ का ये कहना
कुछ रास नहीं आता था,
कि जल्दी आना।
अभी तो घर से निकले ही कहाँ थे,
कि माँ का ये फ़रमान सुनाना।
शाम के वक़्त का इन्तज़ार,
जब मिलेंगे यार
और खेलेंगे बेशुमार।
बड़ों की दुनियाँ से दूर,
अपनी ही मस्ती में चूर।
खेलने का वक़्त ख़त्म होने पर,
माँ का बुलावा आना और कहना।
अगर वक़्त का ख़याल नहीं तो,
घर मत आना अपने
दोस्त के घर ही सो जाना।
नज़दीक आता इम्तिहान का
वक़्त और बढ़ती बेचैनी,
किसी का पास तो
किसी का फेल हो जाना।
होली के रंगों की ख़रीदारी लिए,
साथ में बाज़ार जाना।
छत पर संक्रांति की
पतंग साथ उड़ाना।
जन्मदिन पर मावे का केक,
और ढेर सारी भेंट
और न जाने क्या ...