चांदनी के पैरहन
विवेक रंजन 'विवेक'
रीवा (म.प्र.)
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चांदनी के पैरहन लेकर ज़मीं पर,
ये तुहिन कण इस तरह पहना रहे हैं।
पत्ते पत्ते पर नयी लिखकर कहानी,
लग रहा है गम सभी दफना रहे हैं।
हर तरफ लगती धवल चादर बिछी
कालिमा नज़रें चुरा जाने लगी है।
अनसुनी सी थाप पर सरगम जगी
पाज़बें नूपुर संग गाने लगी है।
एकटक नीहार रश्मि को निरखते,
ये खिला मन तो हुआ जाता भ्रमर सा।
टहनियां यूं झुक गयीं अभिसार में,
आचमन ज्यों हो रहा प्यासे अधर का।
यह नज़ाकत ही न बन पायी जो आदत,
बर्फ का ही रूप ले लेंगे तुहिन कण।
अहम का कोहरा घना हो जायेगा,
ठहर कर जमते चले जायेंगे हिम कण।
परिचय :- विवेक रंजन "विवेक"
जन्म -१६ मई १९६३ जबलपुर
शिक्षा- एम.एस-सी.रसायन शास्त्र
लेखन - १९७९ से अनवरत.... दैनिक समय तथा दैनिक जागरण में रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। अभी हाल ही में इनका पहला उपन्यास "गुलमोहर की छाँव" प्रकाशित हुआ है।
सम्प्रति - सीमें...