स्वयं से स्वयं की पहचान
श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
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हो तिमिर घना,
अधीरता नही स्वयं
पर विश्वास हो,
क्योंकि अमावस की
रात मे भी निर्वाण
घटित होता है
कीचड़ कितना भी हो,
कमल भी वहीं खिलता है
दिया मिट्टी का ही हो
रोशनी भरपूर देता है
वो धरती का
हिस्सा होता है!
ईश्वर की कोई
भाषा नहीं होती
उस तक पहुचने का
एक ही सेतु होता है ,
मौन का, मौन
रह साधना का
मौन रह
कर्म करने का !
बुद्ध, महावीर या
कोई संत नहीं बनना है
स्वयं को अंगीकार कर
स्वयं से स्वयं की
पहचान कराना है !
इस राह में कुछ भी
प्राप्त नहीं होता
जो मिलेगा वही
"स्वयं" को सार्थक करेगा,
बहुत कुछ खो जाएगा,
चिंता, महत्वाकांक्षा,
भय, लालच, इर्ष्या,
द्वेष, बेचैनी,
साथ-साथ, अमूर्त
दुनिया का फैलाव भी
जो इंसान स्वयं बनाता है
जिसमें सारा जीवन
व्यतीत होता है!
जिस दिन स्वयं
को जानकर
...



















