गाता रहता है मन
विवेक सावरीकर मृदुल
(कानपुर)
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गाने का रियाज़
छूट जाने पर भी
गाता रहता है मन
थोड़ी अतिरिक्त मिठास
सुरों में थोड़ी अतिरिक्त गमक
और पूर्वाभ्यास की संचित चमक से
लूटने को आतुर वाहवाही
दौड़ता है जब तब मंच की ओर तन
गाता रहता है मन।।
लंबी आलापचारी में
हांफता रहता है बार बार
समय से पहले सम पर
आ जाते सुरों के निढाल सवार
पर तब भी गाने को है उत्सुक
यमन, कल्याण, काफी, मल्हार
उम्र के ढलान का अटूट जौबन
गाता रहता है मन।।
गाने का खुमार चढ़ रहा है
गाना भीतर को बढ़ रहा है
होठों से भर नहीं है गान
अंग अंग लेने लगा है उड़ान
शरीर को न रहे सुर होने का भान
कंठ से न निकले अपेक्षित तान
भीतर के सुर करते हैं गुंजन
गाता रहता है मन।।
लेखक परिचय :- विवेक सावरीकर मृदुल
जन्म :१९६५ (कानपुर)
शिक्षा : एम.कॉम, एम.सी.जे.रूसी भाषा में एडवांस डिप्लोमा
हिंदी काव्यसंग्रह : सृजनपथ २०१४ में प्रकाशि...