मैं स्त्री
डॉ. भगवान सहाय मीना
जयपुर, (राजस्थान)
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पिता पति दो तटबंधों के मध्य,
आजीवन नदी बन बहती रहूं।
मैं स्त्री हर कदम पर वर्जनाएं,
जन्म से मरण तक सहती रहूं।
क्यूं नर जन्म पर बजती थाली,
और मैं पराया धन सुनती रहूं।
मेरे ही जल से सिंचित जीवन,
सदियों से अबला बनती रहूं।
मैं जिस आंगन में पली बढ़ी,
वो घर बाबुल का सुनती रहूं।
ठुमकी मचली जिस देहरी में,
कब चिड़िया बन उड़ती रहूं।
फल फूल खुश्बू से सरोबार,
मैं तरु माफ़िक फलती रहूं।
पिता पति के घर को भला,
कैसे! मैं अपना बुनती रहूं।
पापा रोती होगी तेरी काया,
जब मैं दूजे घर जलती रहूं।
कोख सिसकती रही मां की,
लाल जोड़े में लटकती रहूं।
मैं प्रकृति को संवार कर भी,
नर से जीवन भर छलती रहूं।
सीता अहिल्या द्रोपदी बन,
सदा हर युग में बुझती रहूं।
परिचय :- डॉ. भगवान सहाय मीना (वरिष्ठ अध्यापक राजस्थान सरकार)
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