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कविता

आओ फिर लौट चले बचपन की ओर
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आओ फिर लौट चले बचपन की ओर

कीर्ति सिंह गौड़ इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** जब लड़ते थे झगड़ते थे, बात बात पर यारों से अकड़ते थे। सहेली की गुड़ियों की शादी में, जब सज-धज कर जाते थे और दावत भी उड़ाते थे। तब माँ का ये कहना कुछ रास नहीं आता था, कि जल्दी आना। अभी तो घर से निकले ही कहाँ थे, कि माँ का ये फ़रमान सुनाना। शाम के वक़्त का इन्तज़ार, जब मिलेंगे यार और खेलेंगे बेशुमार। बड़ों की दुनियाँ से दूर, अपनी ही मस्ती में चूर। खेलने का वक़्त ख़त्म होने पर, माँ का बुलावा आना और कहना। अगर वक़्त का ख़याल नहीं तो, घर मत आना अपने दोस्त के घर ही सो जाना। नज़दीक आता इम्तिहान का वक़्त और बढ़ती बेचैनी, किसी का पास तो किसी का फेल हो जाना। होली के रंगों की ख़रीदारी लिए, साथ में बाज़ार जाना। छत पर संक्रांति की पतंग साथ उड़ाना। जन्मदिन पर मावे का केक, और ढेर सारी भेंट और न जाने क्या ...
बदरा घिर आये
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बदरा घिर आये

मनोरमा जोशी इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** गगन घन घिरे, पवन फिर उड़े, घटा बन छायों रे, सावन आयो रे। उगेगीं अब नयी कोपलें, लहरायेगी बैले, अठखेली कर रही रशमियां, हरियाली खेले, घरती ने श्रृंगार किया है, रुप अनोखा पायो रे। सावन आयो रे। गुन-गुन कर रहीं चिरैयां, नया संदेशा लाये, भंवरें की गुंजन सुनके, कलियां भी मुस्काये, फूलों से सज गया बगीचा राग मल्हार सुनाये रे सावन आयो रे। चैती की गर्मी से उबरे, जीवन नया मिला है, दुखः के बौने पाँव हुऐ है, सूरज मुखी खिला है, धरती से अंबर तक किसने धानी रंग बगरायो रे, सावन आयो रे। परिचय :-  श्रीमती मनोरमा जोशी का निवास मध्यप्रदेश के इंदौर में है। आपका साहित्यिक उपनाम ‘मनु’ है। आपकी जन्मतिथि १९ दिसम्बर १९५३ और जन्मस्थान नरसिंहगढ़ है। शिक्षा - स्नातकोत्तर और संगीत है। कार्यक्षेत्र - सामाजिक क्षेत्र-इन्दौर शहर ही है। ले...
ये देखो कैसा आया जमाना है।
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ये देखो कैसा आया जमाना है।

विरेन्द्र कुमार यादव गौरा बस्ती (उत्तर-प्रदेश) ******************** घराती को पानी खरीद कर लाना है, ये देखो कैसा अब आया जमाना है। बारात में यदि खाना हमें खाना है, तो खाना खड़े होकर ही खाना है। रसोई में खाना खड़े-खड़े बनाना है, ये कैसा देखो अब आया जमाना है। खुद थाली व खाना लेकर आना है, खड़े-खड़े सबको खाने को खाना है। ये देखो कैसा अब आया जमाना है, प्लेट कूड़ेदान के ठिकाने लगाना है। पानी स्वयं निकाल कर ही पीना है, चाहे शादी का कोई भी महीना है। खड़े खाना व खड़े ही पानी पीना है, भला व्यक्ति का जीना कोई जीना है। अब बारात नौटंकी नाच के बिना है, बारात में अब केवल नाच नगीना है। ये देखो कैसा अब आया जमाना है, खड़े-खड़े ही सबको खाना खाना है। परिचय :- विरेन्द्र कुमार यादव निवासी : गौरा बस्ती (उत्तर-प्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक ह...
पनघट पे नीर भरेगा कौन
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पनघट पे नीर भरेगा कौन

हंसराज गुप्ता जयपुर (राजस्थान) ******************** भक्ति दान नेह धर्म कर्म, जन्मों तक साथ निभाते हैं, परिपाटी, घर देह चौपाटी, माटी में मिल जाते हैं, पूरी आहुति सांसों से, खुद को ही देनी होती है, अवशेष धर्म की बागडोर, सबको मिल लेनी होती है, गंभीर समय की सीमा में, अधीर हो, पीर हरेगा कौन, अभीष्ट ईष्ट के स्वागत को, पनघट पे नीर भरेगा कौन, रैन सुखचैन, दे सेन लुभाने, छुप छुप नयनन में उतरे, अमर प्यार की ज्योति जगाने, बनके बाती घृतधार जरे, थके हंस की हार मिटाने, निश दिन पांवों में विचरे, प्रेम कहानी, मीठी वाणी, हियभर अधरों से उचरे, गहरे घावों पर भावों से, धीरे मधुचीर धरेगा कौन, अवशेष समर, सरसाने को, पनघट पे नीर भरेगा कौन ।। शरदरात्रि को अक्षय पात्र में, चँदा से अमृत लाते थे, व्रत घृत मधु करवा घरवा, दीपों की थाल सजाते थे, होली मंगल कर जल झलका, रंग चंग त्योहार मना...
अभिलाषा
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अभिलाषा

ओंकार नाथ सिंह गोशंदेपुर (गाजीपुर) ******************** सृजन तो दिल की उद्गार है। दिनों दिन बढ़े, सब लिखे सब पढ़े, आदान-प्रदान होता रहे यही जगत व्यवहार है।। कौन हारा कौन जीता, अभी सभी है रीता रीता, सीखने को ही तो सभी तलब गार है। नर्सरी के ही सब सही, उच्च शिक्षा में सब नहीं, सरस्वती की याचना में ही सबका उद्धार है।। ना तेरा है ना मेरा है दिल से हो सृजन कह रहा ओंकार है। परिचय :-  ओंकार नाथ सिंह निवासी : गोशंदेपुर (गाजीपुर) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने हेतु अपनी कविताएं...
सुख के क्षण
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सुख के क्षण

दीपानिता डे दिल्ली यूनिवर्सिटी (दिल्ली) ******************** जीवन में समस्या कितनी हैं सुख में दिन बीत रहे हो तो सब साथ है दुख में दिन बीत रहे हो तो अपना ना कोई सुख में दिन इतनी जल्दी बीते प्रतीत हुआ क्षण भर दुख के क्षण भी ऐसे गुजरे जैसे वर्ष समान सुख में इतने खो जाए कि कोई याद ना आए दुख में ईश्वर स्मरण पहले आए सुख में बिन बुलाए महमान घर आए दुख में सब साथ छोड़ जाए सुख में अहम भाव आ जाए दुख में अवसाद घेर जाए मनुष्य मौन हो जाए अपना भी उसे कोई ना भाए सुख के क्षण मानव जल्द भूल जाए परंतु दुख के क्षण सर्वत्र याद आये परिचय :- दीपानिता डे निवासी : दिल्ली यूनिवर्सिटी (दिल्ली)  घोषणा पत्र : प्रमाणित किया जाता है कि रचना पूर्णतः मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, र...
पिता की छांव
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पिता की छांव

अभिजीत आनंद बक्सर, (बिहार) ******************** ग़र कर सकूँ समर्पित कुछ बंद उस त्याग की प्रतिमूर्ति को, जो ग़र परिभाषित कर सकूँ उतरदायित्व की उस कृति को, मेरी लेखनी आज धन्य हो जाए पितृत्व रचना से अलंकृत होकर... हर कदम पर अपने संतान के रहनुमा होते हैं पिता, परिवार की बगिया के बागबान होते हैं पिता.. संपूर्ण जीवन की धरी पूंजी संतान पर न्यौछावर कर देते हैं पिता कर्ज का आवरण ओढ़े भी बिटिया को विदा कर देते हैं पिता... विपदा में सतत संघर्ष की आँधियों में हौसलों की दीवार हैं पिता, पूरे परिवार की अटूट विश्वास, उम्मीद, और आस हैं पिता.. जिंदगी की धूप में बरगद की गहरी छांव होते हैं पिता, बेटे के लिए राजा तो बेटी के सर का ताज होते हैं पिता.. खुद के अरमानों को परे रख हर फर्ज निभाते हैं पिता, संस्कार और अनुशासन की बीज संतान में पनपाते हैं पिता... मेरी शोहरत,...
नारी तुम बदल न पाओगी….
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नारी तुम बदल न पाओगी….

डॉ. संगीता आवचार परभणी (महाराष्ट्र) ******************** नारी तुम बदल न पाओगी! सबकुछ सौंप जीवनसाथी को, तुम जोगीनी बन जाओगी, नारी तुम बदल न पाओगी! फूल सी नाजुक काया को, नारी तुम सम्भाल न पाओगी! पुरुष पर जान लुटाने मे ही, तुम अपना सुकून पाओगी! नारी तुम दुनिया के बदलाव को! ग़र अपनाना भी चाहोगी, तो पुरुष के खयाल मात्र से ही, तुम भ्रमित सी हो जाओगी! नारी तुम अपने सुख चैन को, पुरुष पे न्यौछावर कर जाओगी! सूद बुध अपनी खो बैठोगी, खुद को देख ही न पाओगी! पाकर अनमोल जीवन को! नारी तुम जी न पाओगी, दूसरों के लिए जीने मे ही, अपना अस्तित्व लुटाओगी! दुनिया के छल कपट को! नारी तुम समझ ही न पाओगी, सीधी राह चलते हुए भी, समझौतों पर उतर आओगी! इस पत्थरदिल दुनिया को, नारी तुम पहचान न पाओगी! मोम सी पिघल ही जाओगी, हसते ज़ख्म सहती जाओगी! पहचानकर लोगों के स्वार्थ को, ना...
बिछड़ रहे हैं हम
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बिछड़ रहे हैं हम

आदर्श उपाध्याय अंबेडकर नगर उत्तर प्रदेश ******************** बिछड़ रहे हो तुम बिछड़ रहे हैं हम, फिर भी दिल से दिल मिला रहे हैं हम। ये जुदाई भी नस़ीब वालों को ही मुकम्मल होती है, तभी तो आँखों में समन्दर होठों पर मुस्कान लिए हैं हम। हमारी उल्फ़तों ने इक ऐसे मुकाम पर हमें खड़ा कर दिया, की सबकुछ याद करके भी भूल रहे हैं हम। मोहब्बत के इस शज़र पर कभी कोयल गाया करती थी, आज कौवे कि कर्कश ध्वनि सुन रहे हैं हम। तुमको फिर से मोहब्बत से ज्यादा मोहब्बत मिले, यही "वर" महादेव से माँग रहे हैं हम। नज़ाकत तुम्हारी हमेशा यूँ ही बनी रहे, इसीलिए तो तुमसे जुदा हो रहे हैं हम। कभी तुम्हारी आवाज से ही हमारी सुबह-शाम होती थी, आज उसी को याद करके जी रहें हैं हम। पिया घर जाओगी आँगन महकाओगी, यही हर रोज अब सोच रहे हैं हम। अब बाहों में तुम्हारी न हमारा हक होगा, बस ...
दर्द की दास्तां
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दर्द की दास्तां

डॉ. तेजसिंह किराड़ 'तेज' नागपुर (महाराष्ट्र) ******************** दुनिया के गमों में बंटी ये जिंदगी अपनों से पटी ये बेरूखी बंदगी दर्द की दास्तां हैं हर घर की कहानी किसको बयां करें ये अपनी जुबानी हालात के मारे हैं हम बेबस हैं जिंदगी रब से गिला नहीं बस पाक रहे जिंदगी तन का बोझ भी अब संभलता नहीं मन की बातें दिल से कोई कहता नहीं जिंदगी के टूटें अरमानों को आंखों में सहेजकर रखा हैं। मुसीबतों के दर्द को चेहरें की मुस्कराहट में छिपाएं रखा हैं। मैं कोसो दूर से एक उम्मीद लिए इस शहर में आकर बसा हूं। कहना मुश्किल हैं यहां पर पता नहीं कब पहले खुलकर हंसा हूं। एक दर्द हैं जो दिखाई नहीं देता हैं रोज की जिंदगी में तन्हा हूं मैं। दोस्त की तलाश का इंतजार हैं मुझें कहीं फिर से यहां भटक ना जाऊ मैं। ये कमबख्त उम्र भी कुछ ऐसी हैं अब गिला करू तो किससे करू मैं। मुझें समझ सकें...
धरती की पुकार
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धरती की पुकार

महेन्द्र सिंह कटारिया 'विजेता' सीकर, (राजस्थान) ******************** गरमी बढ़़ रही जैवमंडल में, मच रही है हाहाकार। अपने खातिर मुझे बचालो, कर रही धरती यही पुकार।.... देख तपिश ऐसा लगता, मानों बरस रही है आग। ग्लोबल वार्मिग के कारण, जीवमात्र के हुए बुरे हाल। समय रहते कर प्रायश्चित, रे मनुज शीघ्र करलें चेत। कुछ न बचेगा मुझ पर जब, चिड़ियाँ चुग जायेगी खेत। पौधारोपण से लो संवार, गरमी बढ़ रही............। बदलती जीवन शैली बढ़ता औद्योगिकीकरण, विलासिता पूर्ण अनियंत्रित नगरीकरण। वर्षों से बोझ निरंतर बढ़ रहा, मानवीय भूलों का दंश सहा, बदइंतजामी आलम भर रहा हुंकार, गरमी बढ़ रही.........। भावी पीढ़ी के बेहतर भविष्य की ठाने, भूल विलासिता पूर्ण आदतों की माने। संरक्षण के प्रति समझे अपनी जिम्मेदारी, सोचे उसकी जो है अपनी महतारी। प्रति पल बढ़ रहा जो अत्याचार, गरमी बढ़ रही.........
विदाई
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विदाई

सुनील कुमार बहराइच (उत्तर-प्रदेश) ******************** रीति ये कैसी जग ने बनाई है कल तक थी जो अपनी आज हुई वो पराई है दिल के टुकड़े की आज कर रहे विदाई है। खुशी की है बेला मगर आंख सबकी भर आई है रीति ये कैसी जग ने बनाई है। किसी से मिलन है किसी से जुदाई है रीति ये कैसी जग ने बनाई है। छुप-छुप कर रोए भैया मां सुध-बुध बिसराई है बाबुल की भी आंखें डबडबाई हैं घड़ी विदाई की आई है रीति ये कैसी जग ने बनाई है। कलेजे पर रख पत्थर लाडली की कर रहे विदाई है रीति ये कैसी जग ने बनाई है। परिचय :- सुनील कुमार निवासी : ग्राम फुटहा कुआं, बहराइच,उत्तर-प्रदेश घोषणा पत्र : मेरे द्वारा यह प्रमाणित किया जाता है कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित कर...
सच्चे अच्छे है
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सच्चे अच्छे है

संजय जैन मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** दिलके आंगन में कुछ तो बातें है। जिसमें कभी खुशी तो कभी गम है। इन गमो को दूर करने दोस्त होते है। जो स्नेह प्यार से दुखदर्द हर लेते है।। कुछ तो है तुम्हारी बेचैनी का राज। जो तुम्हारे चेहरे पर झलक रहा है। हम से कहो तुम अपने दिल की बात। ताकि तुम्हारे चेहरे की उदासी को मिटा सके।। अपने दिल पर तुम परते मत जमाओं। दिल की बात दिल वालो को बताओं। दिल वाले तो रेत पर आशियाना बना लेते है। और खुद को मीरा और कान्हा मान लेते है।। जो भी है बात खुलकर कह दीजिये। और अपने दिल को हल्का कर लीजिये। हम है वो शिल्पकार जो तुम्हें तराश देंगे। और निर्जीव मूर्ति को बोलता हुआ बना देंगे।। हम उन्हें ढूँढ़ते है जो सच्चे और अच्छे है। भले ही हमने उन्हें कभी देखा नहीं। पर रिश्तों में वो बहुत सच्चे होते है।। परिचय :- ब...
इंसानियत भूला इंसान
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इंसानियत भूला इंसान

राजीव रंजन पांडेय राजधनवार गिरिडीह (झारखंड) ******************** इंसानियत भूला इंसान चौराहों पे बिका ईमान भाईचारे की अब बात नहीं प्रेम विश्वास अब बचा नहीं घृणा द्वेस अब भरा पड़ा है स्वार्थों में मन डूबा हुआ है पल में बदलते स्वभाव यहां पल में बिकते विश्वास यहां इंसानों का अब मोल नहीं झूठ फरेब का अब तोल नहीं इंसान कहीं जब घायल होता इंसान ही मजे से वीडियो बनाता इंसान यहां कोष भंडारण हेतु तत्पर रहते हैं एक दूसरे को लूटने को हमेशा तैयार रहते हैं परिचय :-  झारखण्ड प्रदेश के गिरिडीह मंडलान्तर्गत राजधनवार क्षेत्र में रहने वाले राजीव रंजन पाण्डेय पिता संजय कुमार पाण्डेय की शैक्षिक योग्यता संस्कृत से स्नातकोत्तर और बी.एड है जो कि बिनोवा भावे विश्वविद्यालय हजारीबाग से पूर्ण हुई है। आप लगभग दो साल तक राज्य सरकार द्वारा अनुदानित एक विद्यालय में संस्कृत शिक्षक के रूप में सेव...
विराम चाहिए
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विराम चाहिए

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** हृदय स्पंदन ही अपवाद रहे, बाकी जगह विराम चाहिए। अंतर्मन से सृजनशील रहे, तन को कुछ विश्राम चाहिए। गुजरे वक़्त के कर्मकार में भी कर्मठता का जलवा था दायित्व बोध और मंशा को वाक्य-विन्यासों का हलवा था जीवन चक्र का मर्म यही है, अवरोध विरोध अविराम चाहिए। हृदय स्पंदन ही अपवाद रहे, बाकी जगह विराम चाहिए। संस्कार मिले सबको ऐसा ना बने कभी मुखौटा जो तन धन साथ रहे ना रहे, वाणी का ना टोटा हो। वक़्त रहते ना संभले तो, क्या पूरा कोहराम चाहिए। हृदय स्पंदन ही अपवाद रहे, बाकी जगह विराम चाहिए। पुतले भांति-भांति के जग में, हमलों के कई आकार हैं गमले अलौकिक बगिया के ग़ज़लों के कितने प्रकार हैं पुतले-हमले गमले-गज़लें बस नितांत अभिराम चाहिए हृदय स्पंदन ही अपवाद रहे, बाकी जगह विराम चाहिए। राम चलवाये बड़े जतन से, कु...
खुद की पहचान
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खुद की पहचान

संध्या नेमा बालाघाट (मध्य प्रदेश) ******************** अब वो दौर आ गया खुद की पहचान बनाते हैं ऐसे दौर में खुद के लिए कुछ कर दिखाना हैं देखे है खुली आंखों से जो सपने उनको सच कर दिखाना हैं सपने भी पूरे होंगे रास्ते का भी पता है रास्ते में आने वाली मुश्किलो का भी पता है खुद की पहचान बनाना कुछ करके दिखालाना मंजिल को भी पाना है खुद को उसके काबिल भी बनाना जब उस मंजिल को पा लूंगी तो मुझको भी बहुत खुश होंगी मेरे परिवार को भी खुशी मिलेगी मेरे चेहरे पर रौनक और होठों पे होगी मुस्कान जब मिलेगी खुद की पहचान अब वो दौर आ गया है खुद की पहचान बनाते हैं ऐसे दौर में खुद के लिए कुछ कर दिखाते हैं परिचय : संध्या नेमा निवासी : बालाघाट (मध्य प्रदेश) घोषणा : मैं यह शपथ पूर्वक घोषणा करती हूँ कि उपरोक्त रचना पूर्णतः मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख...
इश्क की बीमारी
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इश्क की बीमारी

नन्दलाल मणि त्रिपाठी गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) ******************** जिंदगी में बीमारी कम नहीँ, औकात बता देती है, अच्छे खासे इंसान को जिंदा लाश बना देती है।। कहूँ कैसे मैं बीमार हूँ खासा नौजवान हूँ, फिर भी हुश्न के इश्क का शिकार हूँ लगता नही मन कहीं भी भूख प्यास अंजान हूँ।। माँ बाप को फिक्र ये बीमारी क्या वैद्य कहता है मैँ बीमार नही इसका कोई इलाज नही शर्म आती है बताऊँ कैसे मुझे क्या हुआ मैं बीमार हूँ।। इश्क ने खोखला कर दिया, सिर्फ चाहत का दीदार ही इलाज है, नज़र इबादत इश्क की आती ही नही शायद वह भी बीमार बेजार है।। अब तो जिंदगी की सांसे धड़कन चाहत के इश्क का जुनून जिंदगी का इंतज़ार है।। गर न मिली मेरी बेबाक चाहत कि मुहब्बत उसके ही दुपट्टे ओढे कफन जनाजे बे चढ़ने को बेकार हूँ।। चढ़ गया है इश्क का शुरुर इस कदर कहती दुनियां इश्क का बुखार है।। ना सं...
कौन सा वक्त
कविता

कौन सा वक्त

राजीव डोगरा "विमल" कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) ******************** न जाने कौन सा वक्त है जो वक्त के साथ सब कुछ डलता जा रहा है। न जाने कौन सा वक्त है जो वक्त के साथ सब कुछ बदलता जा रहा है। न जाने कौन सा वक्त है जो वक्त के साथ सब कुछ खामोश करता जा रहा है। न जाने कौन सा वक्त है जो वक्त के साथ सब कुछ ठहरता जा रहा है। न जाने कौन सा वक्त है जो वक्त के साथ जो सब कुछ छीनता जा रहा है। न जाने कौन सा वक्त है जो वक्त के साथ सब कुछ नजर अंदाज करता जा रहा है। परिचय :- राजीव डोगरा "विमल" निवासी - कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) सम्प्रति - भाषा अध्यापक गवर्नमेंट हाई स्कूल, ठाकुरद्वारा घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपन...
सीढ़ियां खिड़की तक
कविता

सीढ़ियां खिड़की तक

रोहताश वर्मा "मुसाफिर" हनुमानगढ़ (राजस्थान) ******************** बेड़ियां है अभी तक.. न खुलेगी ना खोली जाएगी, यूं ही घसीट कर पांव रखने होंगे। ऐ उम्मीद ! तू बस जिंदा रह, पीढ़ी दर पीढ़ी उजागर करने को, ये रिसते घाव रखने होंगे। यदि उठा देती हूं आवाज... इन अपनों के खिलाफ, रिश्तों की बनी दीवारें ढहेंगी। ये घर प्राची-रिवाजों का है, सीढ़ियां खिड़की तक ही रहेगी।। खुले आसमां के तले फैला नहीं सकती बांहें। पर्दे की ओटन में छुपी झुकती रहे सिर्फ निगाहें। निकल न सकती चौखट से सांसें भी दास बनी है। ढोंगी ये शिक्षित समाज रुढ़ि-तलवार गले टंगी है। हूं अबला युगों की भोगी पीड़ा, यातना यूं ही सहेंगी। ये घर बुढ़े-नातों का है, सीढ़ियां खिड़की तक ही रहेगी।। परिचय :- रोहताश वर्मा "मुसाफिर" निवासी : गांव- खरसंडी, तह.- नोहर हनुमानगढ़ (राजस्थान) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि स...
जामुन
कविता

जामुन

अखिलेश राव इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** खास खाये या आम ले लो कम दाम में। जामुन है बदनाम ले लो कम दाम में।। रंग रूप में श्याम सलोनी देख मुख में आ जाये पानी खाओ सुबह और शाम ले लो कम दाम में।। रोगों को ये जड़ से मिटाये मधुमेह पर काबू पाये कहते हकीम लुकमान ले लो कम दाम में।। मखमली सी कोमल काया मनवा देख इसे ललचाया बारिश की ये शान ले लो कम दाम में।। खास खाये या आम ले लो कम दाम में जामुन है बदनाम ले लो कम दाम में।। परिचय :- अखिलेश राव सम्प्रति : सहायक प्राध्यापक हिंदी साहित्य देवी अहिल्या कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय इंदौर निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प...
एक वो भी था ज़माना
कविता

एक वो भी था ज़माना

प्रीति जैन इंदौर (मध्यप्रदेश) ******************** वो पाकीज़ा बचपन था कितना सुहाना। कागज़ की कश्ती चलाना, बारिश में भीग जाना। मिट्टी के खिलौनों संग भी, आनंद की अनुभूति पाना। फिर दौर कुछ बदला, कुछ भी ना आज संभला। शिक्षा तो है पा ली, न संस्कारों के नामोनिशां। मां बाप और गुरु के आगे बच्चों ने खोली ज़ुबां। क्या मोड़ ले रहा बचपन, हुआ करता जो सुहाना‌। एक आज का ज़माना, एक वो भी था ज़माना। ना घर अलग-अलग थे, एक छत के नीचे ठिकाना। सुख दुख थे एक सबके, गुलज़ार था आशियाना। बुज़ुर्गों के साए में, ना हम राह कभी भटकते। अपने पराए सभी, थे दिलों में आकर बसते। अपनों के आंसू, मुस्कुराहट से बचा न कोई वास्ता। मतलब में जी रहा इंसान, भटक गया है रास्ता। आज खून भी अपना, हो रहा क्युं बेगाना। एक आज का ज़माना, एक वो भी था ज़माना। घर की बहू बेटी, होती थी घर की लाज। रहती थी मर्याद...
ये भी विकलांगता है
कविता

ये भी विकलांगता है

अशोक शर्मा कुशीनगर, (उत्तर प्रदेश) ******************** नर मूर्तियाँ बना प्रभु ने, किया काम उत्तमता है। रह गयी कुछ कमियाँ, जग कहे अपंगता है। ये भी विकलांगता है। पाँव एक ही होकर भी, गिरी राज लांघता है। जो है दो पैरों वाला, देखो टाँग खींचता है। ये भी…। पैदा हुआ है मंद बुद्धि, खामोश ही रहता है। जो ज्ञान का सागर बन, गर समाज बाँटता है। ये भी…। जिनके हैं चक्षु दुर्बल, ना साफ दिखता है। वह आंखें है मक्कार, जिनका पानी गिरता है। ये भी…। हाथ अंग भंग हों पर, पद भोजन कराता है। मजबूत बाहुबली आज, अबला चीर हरता है। ये भी…। अपंग हस्त पाद चक्षु, मन झकझोरता है। और भूखों न्याय मांगे, सत्ता से न मिलता है। ये भी …। देखो यह सवाल हमें, भी रोज सालता है। होगी दुनिया से दूर कब, ये विकलांगता है। ये भी…। परिचय :- अशोक शर्मा निवासी : लक्ष्मीगंज, कुशीनगर, (उत्तर प...
खुद को गढ़ना…. होगा
कविता

खुद को गढ़ना…. होगा

प्रीति शर्मा "असीम" सोलन हिमाचल प्रदेश ******************** अपनी तकदीर से, अब तुम को, खुद ही लड़ना होगा। तुम हाथों की, कठपुतली नही। अपने अस्तित्व को, खुद ही गढ़ना होगा। खुद ही लड़ना होगा। अपनी तकदीर से, अब तुम को, युगों-युगों से, हाथों के कारागृह बदलते आये है। तुम को कैसे जीना है। यह सीखाने वाले, बस नाम बदलते आयें है। अपने नाम को, नारी तुम... आयाम नये भर दो। खोखले आडंबरों पर, पलट अब वार जरा कर दो। खुद को गढ़ कर, अपनी पहचान बिना... किसी के मोहताज तुम कर दो। जीवन को असितत्व देती हो। तुम क्यों रहो मोहताज। खुद को गढ़ लो। फौलाद से, तोड़ दो अबला का ताज। परिचय :- प्रीति शर्मा "असीम" निवासी - सोलन हिमाचल प्रदेश घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्...
बादल मन मेरा
कविता

बादल मन मेरा

रमेशचंद्र शर्मा इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** गरम रेत पर बरसता बादल मन मेरा ! बूंद-बूंद को तरसता बादल मन मेरा ! हमेशा हालात हवाओं ने बदला किए कतरा-कतरा बिखरता बादल मन मेरा ! समंदर सी खारी किस्मत बनी हमारी ऊंची लहरों से मचलता बादल मन मेरा ! काली घटाओं के साथ मिलता कभी पहाड़ों पर फिसलता बादल मन मेरा ! काली बदलियों के झुंड आकर घेर लेते बिजलियां देख गरजता बादल मन मेरा ! जलाती गर्मियों में आकाश पर चढ़ाई प्रेम सागर को भटकता बादल मन मेरा ! युगों से वाष्प बनकर खुद को छलता बार-बार मन बदलता बादल मन मेरा ! अपूर्णता से पूर्णता प्राप्ति की ललक सदा नदियों संग बहता बादल मन मेरा ! अजब आकर्षण वसुधा और व्योम में गिरता, छुपता, निकलता बादल मन मेरा ! परिचय : रमेशचंद्र शर्मा निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्व...
सिंदूरी बंधन
कविता

सिंदूरी बंधन

अर्चना लवानिया इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** सिंदूर का यह सिंदूरी बंधन बांधे रहे तुम्हें मुझसे ... और मुझसे तुम्हें ।। चमको मेरे माथे पर बिंदिया की तरह महको मेरे तन मन में गुलाबों की तरह बिखरी हुई ये सांसे बांधे रहे तुम्हें मुझसे .... और मुझसे तुम्हें ।। बस जाओ मेरी आंखों में काजल बन कर बिखरो मेरी जुल्फों में फूलों की तरह संदली सी ये खुशबू बांधे रहे तुम्हें मुझसे और मुझसे तुम्हें ।। लिख दो मेरे आंचल पे कहानी अपनी भर दो मेरे दामन में सारी रवानी अपनी डूब जाऊं कि तेरे रंग के सिवा कोई रंग ना भाई मुझको रंगों का यह सतरंगी बंधन बांधे रहे तुम्हें मुझसे .... और मुझसे तुम्हें ll परिचय :- अर्चना लवानिया निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपन...