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कविता

तेरा एक बार संवरना बाकी है
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तेरा एक बार संवरना बाकी है

होशियार सिंह यादव महेंद्रगढ़ हरियाणा ******************** जीवन में संवारती आई हो तुम, चेहरा तेरा लगता जैसे शाकी है, बहुत बार संवार चुकी हो प्रिय, तेरा एक बार संवरना बाकी है। पैदा हुई जब परिवार ने संवारा, रूप तेरा हर जन को था प्यारा, तेरा एक बार संवरना बाकी है, कह रहा है पागल दिल हमारा। बड़ी हुई तब बच्ची कहलाई थी, पोशाक नई-नई कई मंगवाई थी, बचपन में जब तुम संवरती रहती, दिल में तुम बहुत ही इतराई थी। मेहमान जब कभी घर में आते, नई-नई पोशाक चुनकर के लाते, पहनाकर तुम्हें बेहतर से कपड़े, परियों की कई कहानियां सुनाते। सजने संवरने का क्रम यूं चला, मां बाप का मिलता रहा दुलार, पहन पोशाक रंग बिरंगी तन पे, भाग दौड़ की नहीं मानी है हार। युवा अवस्था में जब रखा है पैर, नहीं जमाने में तब युवा की खैर, सभी अपने ही तुम्हें लगते रहे हैं, माना ना तुमने कभी कोई भी गैर। ...
कलम ही ताकत है
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कलम ही ताकत है

वंशिका यादव बाराबंकी (उत्तर प्रदेश) ******************** गम,खुशी, दर्द, मोहब्बत हर चीज का हिसाब रखती है। ये लेखनी है जनाब जो हम सभी के अल्फाज़ लिखती है। इस कलम के सहारे ही हमने कितना कुछ सजोया होगा। इस लेखनी के ताकत से ही हमने कितना कुछ पाया होगा। अपनी जिंदगी के पलो को लेखनी से ही सजाया है। और इस कलम के बूते ही मैंने बहुत कुछ पाया है। ये कलम लिखती है किसी की मौत या फिर जिन्दगी। मैं अपने जीवन भर करूंगी इस कलम की बन्दगी। एक आम इंसान के लिए मामूली सी चीज है कलम। मुझसे पूछो! यारा मेरे लिए जन्नत है कलम। इन्दौरी साब, गुलज़ार साब ने नाम कमाया है। मैंने अपना कलम को ताज पहनाया है। कलम मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा साया है। इसी के दम पर ही मैंने जन्नत पाया है। वैसे तो मैंने जिन्दगी में बहुत सी चीजें पायी हैं। पर मैं दुनिया की सबसे अमीर हूँ क्योंकि मेरे हिस...
मन होता है
कविता

मन होता है

मित्रा शर्मा महू, इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** मन होता है कभी-कभी उड़ती तितलियों को देख मेरा मन भी होता है कि उड़ जाऊँ और स्वयं को आकाश के सप्त रंगों से रंग लूँ। नदी को देख लगता है निर्मल धार बनकर कल-कल बहती रहूँ। जब मन का कोई कोना घोर अंधेरे में होता है तब निशा से पूछने का मन होता है क्यों खाली-खाली सा है मन कहीं कोई आशा का चिराग क्यों नहीं जलता है ? उगते सूरज से पूछने का मन होता है भोर के संग क्यों नहीं उठती उमंग ? मन के अंतर्द्वंद से पीछा क्यों नहीं छूटता है? चलते रहते हैं प्रश्न मन को दौड़ाती रहती हूँ। मन तो आखिर मन है कभी होता उदास कभी कहीं खुशी के पल ढूँढता है। परिचय :- मित्रा शर्मा - महू (मूल निवासी नेपाल) आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्र...
वृक्ष की तटस्था
कविता

वृक्ष की तटस्था

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** हे ईश्वर मुझे अगले जन्म में वृक्ष बनाना ताकि लोगों को ओषधियाँ, फल-फूल और जीने की प्राणवायु दे सकूँ। जब भी वृक्षों को देखता हूँ मुझे जलन सी होने लगती क्योकि इंसानों में तो अनैतिकता घुसपैठ कर गई है । इन्सान-इन्सान को वहशी होकर काटने लगा वह वृक्षों पर भी स्वार्थ के हाथ आजमाने लगा है। ईश्वर ने तुम्हे पूजे जाने का आशीर्वाद दिया क्योंकि बूढ़े होने पर तुम इंसानों को चिताओ पर गोदी में ले लेते शायद ये तुम्हारा कर्तव्य है। इंसान चाहे जितने हरे वृक्ष-परिवार उजाड़े किंतु वृक्ष तुम इंसानों को कुछ देते ही हो। ऐसा ही दानवीर मै अगले जन्म में बनना चाहता हूँ उब चूका हूँ धूर्त इंसानों के बीच स्वार्थी बहुरूपिये रूप से। लेकिन वृक्ष तुम तो आज भी तटस्थ हो प्राणियों की सेवा करने में। परिचय :- संजय वर्मा "द...
ये हवाएँ
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ये हवाएँ

कु. आरती सिरसाट बुरहानपुर (मध्यप्रदेश) ******************** ये हवाएँ....मन को चीरते हूए..... मेरी रूह को छेड़ रही है..... लगता है....छू कर तुम्हें..... मेरी ओर बड़ रही है..... ये हवाएँ.....कुछ कह रही है...... लेकर तुम्हारा नाम बह रही है..... गंध तुम्हारा..... स्पर्श तुम्हारा..... एहसास एक नया सा साँसों में खोल रही है..... उलझ कर मेरे बालों से खेल रही है..... ये हवाएँ.....कुछ कह रही है...... लेकर तुम्हारा नाम बह रही है..... बार बार टकराकर मुझसे..... बस एक ही आवाज मेरे कानों में दे रही है..... भटकाकर मुझकोे मुझ से...... तुम्हारा नाम मेरे ध्यान में भर रही है.... ये हवाएँ.....कुछ कह रही है...... लेकर तुम्हारा नाम बह रही है..... कभी दायीं तरफ से.....तो कभी बायीं तरफ से..... अपने भँवर में मुझे ये कैद कर रही है..... आकर मेरे करीब तुम्हारी याद दे रही है..... ये हवाएँ.....
कुछ इस तरह
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कुछ इस तरह

राजीव डोगरा "विमल" कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) ******************** हम बिखरगे कुछ इस तरह कि तुम संभाल भी न पाओगे। हम टूटेंगे कुछ इस तरह तुम जोड़ भी न पाओगे। हम लिखेंगे कुछ इस तरह कि तुम समझ भी न पाओगे। हम सुनाएंगे दास्तां कुछ इस तरह कि तुम कुछ कह कर भी न कह पाओगे। हम जाएंगे इस जहां से कुछ इस तरह कि तुम्हारे बुलाने पर भी कभी लौटकर न आएंगे। परिचय :- राजीव डोगरा "विमल" निवासी - कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) सम्प्रति - भाषा अध्यापक गवर्नमेंट हाई स्कूल, ठाकुरद्वारा घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख...
पुरानी यादे
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पुरानी यादे

संजय जैन मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** कैसे भूलूँ में बचपन अपना। दिल दरिया और समुंदर जैसा। याद जब भी आये वो पुरानी। दिल खिल जाता है बस मेरा। और अतीत में खो जाता हूँ। कैसे भूलूँ में बचपन अपना।। क्या कहूं उस, स्वर्ण काल को। जहां सब अपने, बनकर रहते थे। दुख मुझे हो तो, रोते वो सब थे। मेरी पीड़ा को, वो समझते थे। इसको ही स्वर्णयुग कह सकते ।। मेरा रहना खाना और पीना। माँ बाप को, कुछ था न पता। ये सब तो, पड़ोसी कर देते थे। इतनी आत्मीयता, उनमें होती थी।। अब जवानी का, दौर कुछ अलग है । शहरों में कहां, आत्मीयता होती हैं। सारे के सारे, लोग स्वार्थी है यहाँ के। सिर्फ मतलब के, लिए ही मिलते है।। पत्थरो के शहर, में रहते रहते । खुद पत्थर दिल, हम हो गए है। किस किस को दे, दोष हम इसका। एक ही जैसे सारे, हो गए है।। अन्तर है गांव और शहर में। अपने और पराए में । वहां सब...
तोहफा जिन्दगी का
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तोहफा जिन्दगी का

गगन खरे क्षितिज कोदरिया मंहू (मध्य प्रदेश) ******************** कल भी मेरा था, आज भी मेरा हैं ये जग भी मेरा है फिर किस बात की चिंता है, सब अपने पराये है ये दुनिया तो एक रेन बसेरा है। ये धरती ये आसमां खूबसूरत दुनिया का तोहफा है। मुस्कुराते, गुनगुनाते हुए आज के सफ़र को अपनी खुशी समझो यही प्यार का तोहफा है। जाने अनजाने मुलाकात उस रब से हो जाये प्रीत की रीत चंदन की खुशबू की हवाओं में बिखेर देना ताकि सांसौं को मिलें एक नया तोहफा। जानते हों रब से बात तो एक मजाक था मैं ईश्वर को अपने अन्दर देखता हूं, अपनों में देखता हूं, चंचल है, चकोर है, नित नये स्वरूप लिए दिखाई देते हैं गगन जब गहरी नींद में होता हूं मेरे करीब आकर बैठ जाते हैं सपनों का सागर लिए मधुबन में कहते यही प्रिय तुम्हारा तोहफा है। परिचय :- गगन खरे क्षितिज निवासी : कोदरिया म...
आदमी
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आदमी

ममता रथ रायपुर (छत्तीसगढ़) ******************** खुद तमाशा आजकल बनने लगा है आदमी खुद की परछाइयों से अब डरने लगा है आदमी टुकड़े कर रहे हैं हम धर्म और भाषा की इसलिए नफरतों की भीड़ में चलने लगा है आदमी सारी खुशियां पास है अपने फिर भी कस्तूरी की तलाश में भटक रहा है आदमी घर परिवार संगी साथी सब छोड़ कर पैसों के पीछे भाग रहा है आदमी आज स्वार्थ की खातिर अपनो को मार रहा है आदमी क्या आदमखोर हो गया है आदमी परिचय :-  ममता रथ पिता : विद्या भूषण मिश्रा पति : प्रकाश रथ निवासी : रायपुर (छत्तीसगढ़) जन्म तिथि : १२-०६-१९७५ शिक्षा : एम ए हिंदी साहित्य सम्मान व पुरस्कार : लायंस क्लब बिलासपुर मे सम्मानित, श्री रामचन्द्र साहित्य समिति ककाली पारा रायपुर २००३ में सांत्वना पुरस्कार, लोक राग मे प्रकाशित, रचनाकार में प्रकाशित घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार ...
बेटी बना पाओगे क्या…?
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बेटी बना पाओगे क्या…?

अर्जुन सिंघल जालोर (राजस्थान) ******************** बेटी बना पाओगे क्या...? बहु बनना मुझे आता नही, बेटी बना पाओगे क्या घुंगट मे रहना पसंद नही मुझे, इस प्रथा को ठुकरा पाओगे क्या मै एक बेटी थी, बेटी सा अनुभव करा पाओगे क्या बहु बनना मुझे आता नही, बेटी बना पाओगे क्या अकेली काम करना मुझे पसंद नहीं, आप हाथ बटा पाओगे क्या तवे पर रोटिया सेंकी मुझसे जाती नही, आप सिखा पाओगे क्या बहु बनना मुझे आता नही, बेटी बना पाओगे क्या हर बार मेरा चुप रहना मुझे भाता नही, कभी मेरी भी राय ले पाओगे क्या कभी मम्मी की तो कभी पापा की याद मे, उन जैसा प्यार कर पाओगे क्या बहु बनना मुझे आता नही, बेटी बना पाओगे क्या मम्मी के डाटने पर, पापा की तरह चुप करा पाओगे क्या कभी डर लगने पर, पापा की तरह गले से लगा पाओगे क्या बहु बनना मुझे आता नही, बेटी सा सम्मान दे पाओगे क्या काम करते-करते,...
समय
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समय

मंजुषा कटलाना झाबुआ (मध्य प्रदेश) ******************** पर लग गए हो जैसे, हाथ से फिसली रेत हो जैसे। बचपन से जवानी आ गई, बीत गया कहा समय ये कैसे। कल तक आंगन चिड़िया थी में, बाबुल संग डोला करती थी। कब बड़ी हो कर पराई हो गई, घर से मेरी डोली उठ गई। आम, इमली, फूलो की डाली, तुलसी पौधा रोपी थी। बड़े हो गए ये कब जाने, बातें बीते कल की हो गई। घड़ी की टिक-टिक रोज है कहती, मेरे साथ बढ़ते चलो। में तो यही रहूँगी कल भी, जीवन अपना बिताये चलो। बचपन की वो मेरी सखिया, दर्पण पर इतराती थी। बुढ़ापे में वही सखिया, सफेदी अपनी छुपाती है। समय का पहिया तेज है भागे, यादें छोड़ जाता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक का, हिसाब छोड़ जाता है।। परिचय :- मंजुषा कटलाना निवासी : झाबुआ (मध्य प्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप ...
शब्दों की परिभाषा
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शब्दों की परिभाषा

रीमा ठाकुर झाबुआ (मध्यप्रदेश) ******************** आज शब्द मौन क्यू हैं, चुप सभी विकल्प क्यू है! चुप क्यु सारी है "प्रकृति ये, अब हवा'विपरीत क्यू है! ये प्रलय आगाज कैसा हर तरफ, वियोग कैसा! हर तरफ अंधकार फैला, डस रहा है, दंश कैसा! शेर के जबडे मे फंसकर, मौत तांडव 'कर रही है! दीपशिखा की लौ है मध्यम' क्यू उदासी छल रही है! सब तरफ है, डर समाहित, अब भरोसा उठ रहा है! धरा है विहीन होती, संसार सूना हो रहा है! अब हुआ, कमजोर मानव, दंभ से अदृश्य मानव! कल तक पिंजरे था बनाता, अब फंसा अफसोस मानव! फिर से ताल ठोक ले तू' अपने डर को रोक ले तू! मानव तू है उर्जा शक्ति, अपने बल से रोक ले तू! न होगी विहीन प्रकृति, तुझमें ही है, सारी शक्ति! उठ अभी मत हार मानव, तू है एक ब्रह्माण्ड मानव! परिचय :- रीमा महेंद्र सिंह ठाकुर निवासी : झाबुआ (मध्यप्रदेश) घोषणा ...
ऐसा क्यों?
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ऐसा क्यों?

ओमप्रकाश श्रीवास्तव 'ओम' तिलसहरी (कानपुर नगर) ******************** नये जमाने में कितना आगे हम आ गए, दिल के भाव सोसल मीडिया में समा गए। आज हम सबका दिवस मनाने लगे, फेसबुक व्हाट्सएप में भाव जताने लगे। मातृ दिवस व पित्र दिवस खूब मनाते हैं, पटलों में श्रद्धा भावो की गंगा बहाते हैं। नये जमाने में कितना आगे हम आ गए, दिल के भाव सोसल मीडिया में समा गए। जो निशदिन सम्मान करते माता का, सच वही श्रद्धा से मातृ दिवस मनाते हैं। जो माता को एक रोटी देने से बचता, वह झूठ मूठ श्रवण बन पटल सजाते हैं। नये जमाने में कितना आगे हम आ गए, दिल के भाव सोसल मीडिया में समा गए। पर्यावरण, पृथ्वी, जल दिवस खूब मनाते हैं, बड़े-बड़े काव्य और आलेख लिख जाते हैं, पर सोचो क्या हम वर्ष में एक पेड़ लगाते हैं, उपदेश तो देते पर स्वयं ही पीछे रह जाते हैं। नये जमाने में कितना आगे हम आगए, दिल के भाव सो...
बुद्ध पूर्णिमा
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बुद्ध पूर्णिमा

प्रभा लोढ़ा मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** धधकी अंतस में ज्वाला, छोड़ राजपाठ सब निकल पड़ा सिद्धार्थ, सत्य की खोज में। दिव्य ज्ञान की मिली ज्योति, पाया महायान उसने बोघी गया में वृक्ष के नीचे मिला उसे बोघी ज्ञान, बोध वृक्ष के नाम से जग में हुआ प्रसिद्ध। तृष्णा को माना सब दुखों का मूल, अष्टांग योग का मार्ग दिखाया दुनिया को, सत्य अहिंसा और शांति का किया प्रसार। प्रथम उद्देश्ना दिया बुद्ध ने सारनाथ की पवित्र भूमि पर, मुक्ति मार्ग का दिया संदेश जग में बौद्ध धर्म का किया प्रसार, अध्यात्मिक सुख शांति का पाठ पढ़ाया मनुज ने किया जन जन का उद्धार भगवान तुम्हें शत शत प्रणाम। परिचय :- प्रभा लोढ़ा निवासी : मुंबई (महाराष्ट्र) आपके बारे में : आपको गद्य काव्य लेखन और पठन में रुचि बचपन से थी। आपने दिल्ली से बी.ए. मुम्बई से जैन फ़िलोसफी की परीक्षा ...
चंदन
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चंदन

प्रीति जैन इंदौर (मध्यप्रदेश) ******************** जीवन की तपती तपिश में, मैं जलकर निखरता मृदु कुंदन मन में बसे घावों पर तेरी प्रीत, मल दिया जैसे शीतल चंदन सांसो में बसे हो ऐसे के संदल की मनमोहक महक रूप सुनहरा चंचल, भोर के प्रहर की हो पहली झलक लिपट जाओ नागिन सी, खड़ा हूं पसारे बाहुपाश का बंधन मैं जलता एक अंगारा, छुअन तुम्हारी भीगा सा चंदन महका मन का उपवन, जब यादें घिरी मन नंदनवन मे घिरी गंध गुलाबों सी, मंत्रमुग्ध हुए प्रिये आलिंगन में घेरे हुए हैं मुझे सांसो की लय पर, अमूर्त जीवन का स्पंदन प्रेम की तपन में या चंद्रमा सी छुअन में, तू महकता चंदन राह तकते तकते प्रिये, पतझड़ सी वीरान हुई सुरमई अखियां शाख से झरने लगे हैं पत्ते, तेज़ आंधियों में झुकी डालियां मधुमास बन उतरो ह्रदयतल में, मन के मरुस्थल को कर दो मधुबन तु मृग कस्तूरी प्रियतम, कस्तूरी गंध से हुआ ...
प्रेरणा गीत
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प्रेरणा गीत

रशीद अहमद शेख 'रशीद' इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** सुखद सफलता के सपनों को, यत्नों से साकार करें। जीवन में जब मिले चुनौती, आप सहज स्वीकार करें। साहस हो धीरज हो मन में, संकल्पित अभियान रहे। बाधा बन गंतव्य-डगर पर जो आए दीवार ढहे। पर्वत आएँ राहों में तो हँसते-हँसते पार करें। जीवन में जब मिले चुनौती, आप सहज स्वीकार करें। कभी-कभी मिलती हैं हमको, असफलताएँ जीवन में। भाव निराशा के भरती हैं, पीड़ित-विचलित तन-मन में। सकारात्मक सोच रखें नित, शुभ को बारम्बार करें। जीवन में जब मिले चुनौती, आप सहज स्वीकार करें। अच्छे कर्मों का प्रायः जग, आलोचक बन जाता है। ''करे या नहीं करे' हृदय में, महा द्वंद ठन जाता है। हिम्मत हारें नहीं कभी भी, आशा का संचार करें। जीवन में जब मिले चुनौती, आप सहज स्वीकार करें। परिचय -  रशीद अहमद शेख 'रशीद' साहित्यिक उपनाम ~ ‘रशीद’ ...
प्रवाह
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प्रवाह

धैर्यशील येवले इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** वो भी न रहा है ये भी न रहेगा समय के प्रवाह में ये भी तो बहेगा बदलती है रुते बदलती है राते रुकता नही जीवन झुकता नही जीवन सुहाने पलो में ये भी तो जियेगा वो भी न रहा है ये भी न रहेगा समय के प्रवाह में ये भी तो बहेगा सुनहरी धूप में सुरमई छांव में दिन और रात में पीपल के गांव में ऊर्जा से भरा ये भी तो गायेगा वो भी न रहा है ये भी न रहेगा समय के प्रवाह में ये भी तो बहेगा काली राते बदलेगी दमकती सुबहे आएगी कौन रुका जो रुकेगा कालचक्र तो चलेगा धुरी पर नही परिधि पर ये भी तो घूमेगा वो भी न रहा है ये भी न रहेगा समय के प्रवाह में ये भी तो बहेगा न ऊँचाई न गहराई कौन तुझे रोक पाई जब जब तूने ठाना तेरी हर बात को माना चल चला चल पीछे तेरे ये भी तो चलेगा वो भी न रहा है ये भी न रहेगा समय के प्रवाह...
अन्वेषण
कविता

अन्वेषण

मालती खलतकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** हर वृक्ष चुपचाप है सुना है शहर का कोना कोना सहमी-सहमी सड़क सुनसान हर पाखी है सहमा-सहमा किरण में सूरज की होते हैं नितघात यहां स्वार्थ यहां चढ़ बोलता है फुनगीपर बैठे पक्षी सा। मटिया ले पानी सा जीवन रुकता कराहता निढाल हो आगे बढ़ता आगे करने अनवेषण सतपथ का सत चरित्र सतपथ का सज्जनता का पर, पर नहीं कर पाता फलो के अंदर की सडान्ध का अन्वेषण नहीं कर पाता नहीं कर पाता ऊंची आवाज क्योकि फुनंगी पर बैठे पक्षी की आवाज उसे कहीं अधिक ऊंची है बहुत ऊंची.... परिचय :- इंदौर निवासी मालती खलतकर आयु ६८ वर्ष है आपने हिंदी समाजशास्श्र में एम ए एल एलबी किया है आप हिंदी में कविता कहानी लेख गजल आदि लिखती हैं व आपकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं मैं प्रकाशित होते हैं आप सन १९६८ से इंदौर के लेखक संघ रचना संघ से जुड़ीआप शासकीय सेवा...
संभव है
कविता

संभव है

अखिलेश राव इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** संभव है क्या रीते मन में या फिर मेरे ही जीवन में होता है विश्वासघात क्यूं या में करता आत्मसात हूं क्यूं अपेक्षा बढती जाती और उदासी छाती। या फिर मेरे ही जीवन में तृप्त ना होता मन मेरा है या फिर जीवन का घेरा है तनिक मुझे इतना बतला दो मुझको भी पथ प्रेम बता दो वरना भटकूंगा वन वन में प्यास बुझेगी ना जीवन में आओ और बसंत बन जाओ मेरे उजड़े से मधुवन में। संभव है क्या रीते मन में या फिर मेरे ही जीवन में। परिचय :- अखिलेश राव सम्प्रति : सहायक प्राध्यापक हिंदी साहित्य देवी अहिल्या कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय इंदौर निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं...
प्रिय डायरी
कविता, संस्मरण, स्मृति

प्रिय डायरी

संजू "गौरीश" पाठक इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** प्रिय डायरी, आज तुम फिर मेरे हाथ आ गईं। अच्छा हुआ !! अब मैं तुमसे ढेर सारी बातें करूंगी। इसलिए कि आज मेरे पापा की द्वितीय पुण्य तिथि है। सुबह से बहुत याद आ रही है उनकी। तुम्हारे माध्यम से मैं अपने पापा से ही बातें करूंगी। पापा, सुनोगे न मेरी बातें। आज के दिन २०१९ में लगभग ११ बजे भैया ने जब मुझे फोन किया तो मैं सिहर सी गई। पिछले चार पांच दिन से मुझे नींद नहीं आ रही थी। एक अजीब सी बेचैनी हो रही थी। आपने फोन उठाना भी बंद कर दिया था। चिंता लगने लगी थी। जरा सी बात करके फोन रख देते थे तो भी मन को शांति मिल जाती थी। दो सेकंड बात करके आप फोन मम्मी को पकड़ा देते थे। जैसे ही भैया ने दीदी बोला, उसका गला रूंध हुआ था। बोल ही नहीं पाया। बोला, दीदी, पापा चले गए। कैसे, क्या, कब इन सब सवालों के जवाब न मैं पूछने की स्थिति में थी, ना वह जवाब द...
स्वयं का पुरूषार्थ
कविता

स्वयं का पुरूषार्थ

प्रियंका पाराशर भीलवाडा (राजस्थान) ******************** मत रख किसी से कोई आस सिर्फ पुरूषार्थ पर रख विश्वास हाथ फैलाने पर नहीं मिलती भीख मुफ्त में बँटती सलाह और सीख भाग्य को छोड़ लगा पुरूषार्थ से दौड़ विपत्ति में यही है सच्चा आश्रय भूलकर भी मत बैठ पराश्रय कर आत्म गौरव का अनुभव सफलता करेगी चहुँ ओर कलरव पुरूषार्थ से जो हुआ लगाव तो धन, यश, सम्मान का न होगा अभाव पुरूषार्थ बल से असाध्य भी हो जाता साध्य उन्नति के मार्ग पर चलने को यह कर दे बाध्य हर तरह की मदद के सहारे में तो छिपा है स्वार्थ पर सबसे मीठा फल देगा स्वयं का पुरूषार्थ .... स्वयं का पुरूषार्थ .... स्वयं का पुरूषार्थ .... परिचय :- प्रियंका पाराशर शिक्षा : एम.एस.सी (सूचना प्रौद्योगिकी) पिता : राजेन्द्र पाराशर पति : पंकज पाराशर निवासी : भीलवाडा (राजस्थान) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ क...
कोहरा
कविता

कोहरा

मनवीन कौर पाहवा ‘वीना’ पलावा (महाराष्ट्र) ******************** चाँदनी बिखरी पड़ी थी, कुछ शांत निखरी पड़ी थी। चाँद गुमसुम गुनगुनाता, गगन सुनता झूम जाता। ढाँप कर प्रत्येक छोर को, कोहरा बढ़ता ही जाता। मार्तण्ड भी कैसे उदित हों , गया कहीं छिप, वह सोचती। कमलनीय उदास बैठी, रवि किरण को खोजती। धुआँ-धुआँ हुआ प्रभात, प्राण हीन से सभी गात, भयभीत लहर से कांपते, स्थिर हुए सब जलाशय शाख़-पात चुप चाप खड़े, इस विपत्ति को भाँप रहे। कब छटेगा कोहरा, ताकि
मैं नीड़ से निकल सकूँ। नदी पर्वत चीर कर पुनः 
भ्रमण को फिर चलूँ। अंत होगा कोहरे का, नव भोर, फिर से आएगी। पा कर सुनहरा सूर्य प्रकाश, फिर से दुनिया हर्षाएगी। परिचय :-मनवीन कौर पाहवा ‘वीना’ निवासी : पलावा (महाराष्ट्र) शिक्षा : राजस्थान विश्विद्यालय जयपुर से, समाज शास्त्र और राजनीति शास्त्र मै स्नातकोत्तर व बी.एड सम्प्रति : सेवानिवृत...
द्रोपदी का सवाल
कविता

द्रोपदी का सवाल

बबिता अग्रवाल "कँवल" सिलीगुड़ी (पश्चिम बंगाल) ******************** मैं द्रोपदसुता द्रोपदी करतीं रही सवाल। मिला नहीं जवाब मुझे, दुखित मन विकराल। पांडव वंश की कुलवधु, हस्तिनापुर की आन। दास बनें रक्षक मेरे, धूमिल हो गई शान। राजा का धर्म भुला गये, जुएं में लगाया राज। प्रजा का सेवक था फिर, निभाया कौन सा अधिकार। स्वयं को हार दास बना, थी नीची जब नार। हस्तिनापुर की रानी को, कैसे लगाया दांव। दुर्योधन जंघा पीट रहा, कर्ण करें अट्टहास, भरी सभा में करें दुस्साहसन, चीरहरण का दुस्साहस। अटा पड़ा था महल सारा, ज्ञानी और विद्वान से। मौन खड़े थे सभी मुर्दे, जैसे खड़े हो शमशान । धर्म के राजा युधिष्ठिर, भीम सा बलसाली वर, पत्नी की रक्षा हेतु, क्यों हो गए आज निर्बल। तीरंदाज अर्जुन भी है, नकुल और सहदेव ज्ञाणी तुम। बिलख रही पांचाली फिर भी, चुप्पी साधे तुम। धर्मराज का भाई कृष्ण, अर...
तुम्हारे चले जाने से
कविता

तुम्हारे चले जाने से

मुकेश शर्मा कुशीनगर (उत्तर प्रदेश) ******************** तुम्हारे चले जाने से, उदास है घर, उदास है आँगन, उदास हैं साँसें, उदास है मन। मुरझाने लगी है आँगन की तुलसी, खिलती थी जो तुम्हारे स्नेह से। अस्त-व्यस्त से रहते हैं अब कमरे, दीवारें सभी घर की उदास हो रोती हैं। उदासियाँ और वीरानियाँ ही अब, फैली हुई हैं चारों तरफ। घर भी जैसे काट खाने को दौड़ता है, तुम्हारे चले जाने से। परिचय :- मुकेश शर्मा पिता : स्व. श्री रामदयाल शर्मा माता : श्रीमती किस्मती देवी जन्म तिथि : १५/९/१९९८ शैक्षिक योग्यता : स्नातक निवासी : ग्राम- डुमरी, पडरौना जनपद- कुशीनगर (उत्तर प्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र क...
बचपन
कविता

बचपन

विनीता मोटलानी इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** राह अपनी में बनाने लगी हूं मंज़िल को भी पाने लगी हूं अपने हिस्से का आसमान चुनकर सुनो बचपन में बड़ी होने लगी हूं गुड्डे गुड़ियों का ब्याह रचाना कभी रूठना सभी मनाना खेल खेल में कुछ सीखने लगी हूं सुनो बचपन में बड़ी होने लगी है तुम से जुड़ी है मीठी सी यादें चुलबुली चंचल जाने कितनी बातें यादों की पोटली बनाने लगी हूं सुनो बचपन में बड़ी होने लगी हूं तुम मेरे साथ ताउम्र रहना कभी भी मेरा दामन न छोड़ना इसी वादे के साथ जीने लगी हूं सुनो बचपन में बड़ी होने लगी हूं राह अपनी में बनाने लगी हूं मंजिल को भी पाने लगी हूं अपने हिस्से का आसमान चुनकर सुनो बचपन में बड़ी होने लगी हो... परिचय :-  विनीता मोटलानी निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश) प्रकाशन : दो सिंधी पुस्तकें प्रकाशित हैं। जिसमें से एक लघुकथा संग्रह है एवं दुसरी कहानी...