मैं एक नारी हूँ
मंजू लोढ़ा
परेल मुंबई (महाराष्ट्र)
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मैं एक नारी हूँ।
सदियों से अपनी
परंपराओं को
निभाया हैं,
उसके बोझ को
अकेले ढोया हैं,
इस पुरूष प्रधान
समाज ने हरदम
हमको दौयम
दर्जे पर रखा है,
अपनी ताकत को
हम पर आजमाया है।
पर अब मुझे दुसरा
दर्जा पसंद नहीं
मैं अपनी शर्तों पर
जीना चाहती हूँ।
हक और सन्मान के साथ
रहना चाहती हूँ।
मेरी सहृदयता को मेरी
कमजोरी मत समझो।
मैं परिवार को न संभालती,
बच्चों की परवरिश न करती,
बुर्जुंगो की सेवा न करती,
पति को स्नेहही प्रेम न देती,
तो क्या यह समाज जिंदा रहता?
मै कोमल हूँ, पर कमजोर नहीं,
अगर कमजोर होती तो
क्या यह नाजुक कंधे
हल चला पाते?
पहाड़ों की उतार-चढा़व पर
काम कर पाते?
घर और बाहर की दोनों
दुनिया क्या यह संभाल पाते?
मेरे त्याग को तुमने
मेरी कमजोरी समझ लिया,
घर-परिवार
बचाने की भावना को
मेरी मजबुरी समझ लिया।
अगर नारी पुरूष के
अहंम को न पोषती,
तो पुरूष आ...