कर्ण का पश्चाताप
रचयिता : श्रीमती पिंकी तिवारी
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कर्ण का पश्चाताप
ममता की शाख से टूटा हुआ एक पर्ण हूँ,
'वसुसेन' भी, 'राधेय' भी, मैं सूर्यपुत्र कर्ण हूँ।
सन्तभक्त एक स्त्री को ऋषि दुर्वासा का वरदान मिला,
जिज्ञासावश शुद्ध संकल्प से मुझको प्रादुर्भाव मिला।
लोकलाज वश निष्ठुर ममता मुझको ना अपना पाई,
शापित शैशव करके मेरा गंगा में अर्पण कर आई।
मिले अधिरथ राधा मैया, मुझको 'वसुसेन' नाम दिया,
पितृ-प्रेम और ममता से, मृत जीवन को मेरे प्राण दिया ।
दिव्य देह संग उपहार मिले, मुझको स्वर्ण कवच कुण्डल,
आकर्षित करता था प्रतिपल, सूर्यदेव का आभामंडल ।
विद्यार्जन की अभिलाषा से मैं, पहुँचा गुरु द्रोण के पास,
लेकिन क्षत्रिय ना होने से पूरी हुई न मेरी आस ।
पर आशा न खोई मैंने, परशुराम के पास गया,
झूठ बोलकर "मैं ब्राह्मण हूँ" विद्या का उपहार लिया ।
लेकिन विधान विधि का, इतना भी नही...