फुलवारियां
विजय गुप्ता
दुर्ग (छत्तीसगढ़)
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निज बगिया में छटा बिखेरती फुलवारियां
बहुत सहेजी घर उपवन की वो क्यारियां।
कोर कोर में रची-बसी थी किलकारियां
होश जोश दौड़ में देखी सबकी यारियां।
अफवाह बाजार में पनपा करती भ्रांतियां
निर्भय पथ-संचालन की नई-नई अनुभूतियां
एकाकी विवश जन की साहसपूर्ण चुनौतियां
दुर्गम दुर्लभ पथ की बड़ी अजीब बेचैनियां।
बड़े बड़े आयोजन में आसमयिक दुश्वारियां
काम रुका, ना धाम हटा, रहती हैं तैयारियां।
देखी समझी राहत ताकत की कई मजबूरियां
विस्मृत हो सहयोगी बनने, हो जाती हैं दूरियां
कर्मवान को आभास दिलाती हैं नाकामियां
ईश्वर क्षमा करें उन्हें, जिनकी नाफरमानियां।
साथ चार जनों से भी रह जाती हैं खामियां
पर अकेले दायित्व वहन की गहन हैरानियाँ।
सामान्य रिवाजों में दिखती रहें नजदीकियां
कोई समझ ना पाए रिश्तों की बारीकियां।
बालपन से चौथेपन वाली सब जिम्मेदारियां
खेल यही जीवन क...