सर उठाकर वो चला
विवेक रंजन 'विवेक'
रीवा (म.प्र.)
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सर उठाकर वो चला जो वक्त के सांचे ढला है,
और जो उठ उठ गिरा वो तो कोई बावला है।
आज के इस दौर में, वह शख्स कहलाता भला है,
मयकदे से लौट कर जो दो कदम सीधा चला है।
किस ग़ुरूर में हैं हुज़ूर, क्या इतना भी नहीं जानते
जो भी था उरूज़ पर वह एक ना इक दिन ढला है।
गुरबत-ओ-अफलास में क्या मुस्कुराना जुर्म था,
शहर में दंगे हुये तो पहला घर उसका जला है।
जी भर जीने का मौका एक बार ही मिले विवेक,
सफ-ए-मंज़र पे ज़िंदगी का नाम ही हर्फे बला है।
परिचय :- विवेक रंजन "विवेक"
जन्म -१६ मई १९६३ जबलपुर
शिक्षा- एम.एस-सी.रसायन शास्त्र
लेखन - १९७९ से अनवरत.... दैनिक समय तथा दैनिक जागरण में रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। अभी हाल ही में इनका पहला उपन्यास "गुलमोहर की छाँव" प्रकाशित हुआ है।
सम्प्रति - सीमेंट क्वालिटी कंट्रोल कनसलटेंट के रूप में विभिन्न सीमेंट संस्थानों ...