मैं कुछ कह रही हूँ
अनुश्री अनीता
मुंबई (महाराष्ट्र)
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ये कविता खुद के जीवन पर आधारित है।
छोटी उम्र में शादी के बन्धन मे जब लडकी को बाँध दिया जाता है...
स्त्री के अंतर्मन की आवाज
कच्ची उम्र के पक्के रिश्ते...
बाबुल के आंगन से...
पिया की दहलीज तक।
घर से परायी हुई
तो नये अन्जान लोंगो मे आयी।
जेसे धान को, क्यांरियो से निकालकर
ले जाया जाता हैं खेतों मे।
फिर उन्हे दिया जाता है बहुत सारा पानी
अपनी जडे जमाने के लिये।
पर नई जगह मे हमें वो पानी मिले
ऐसी आशा बहुत कम ही होती है।
सम्हलना होता हे अपने ही बलबूते पर
और चलना होता है
जीवन का एक एक कदम
वॅहा कोई खुद को नहीं बदलता
हमें ही बदलना होता है खुद को
कोई इन्तजार नहीं करेगा
हमारे धीरे-धीरे सीख जाने का
हम ढाल लेते हें खुद को
सबकी जरूरतो के हिसाब से।
और चल पडती हें गाडी
हिस्सा बनते जाते हैं
हम सबकी जरूरतो का
हमारे बिना पत्ता भी नहीं हिल पाता।
सुन...























