सफ़लता का अंकुर
प्रीति धामा
दिल्ली
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न जाने कब मेरी असफलताओं की,
बंजर भूमि से,
वो एक सफ़लता का अंकुर फूटेगा!
न जाने कब मेरी इन पथराई आंखों में,
वो जागृत करने वाला ख़्वाब सजेगा!
उदास हूँ,ग़मगीन भी,
शिकायतों की ढ़ेरो तख्तियाँ,
मन में समेटे मैं बस मौन हूँ!
कब,कहाँ,और कैसे ये सवाल लिए,
एकांत हूँ,अनेकांत हूँ,
ख़ुद से पूछती,ख़ुद को टटोलती,
न जाने मैं कौन हूँ?
जब-जब शून्य हुई मैं,
तब-तब आत्ममंथन किया है!
ये कैसे संभव होगा,ये कैसा होना चाहिए,
अब तो इस असफ़लता का भी,
दंभ टूटना चाहिए!
क्यूँ क़िसमत रूठी लगती है,
क्यूँ मेहनत वो अधूरी लगती है।
अब तो इसका अंत होना चाहिए,
मेरी असफ़लताओं की बंजर भूमि में भी,
वो सफलता का अंकुर पनपना चाहिए !
परिचय :- प्रीति धामा
निवासी : दिल्ली
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक...