कौड़ियों में बिकता श्रम किसान का
माधुरी व्यास "नवपमा"
इंदौर (म.प्र.)
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क्यों श्रम मेरा, कौड़ियों में बिकता,
मेरे हस्तांतरित भोजन से,
हर एक जीव का पोषण होता,
शाक, पात, आहार में फिर क्यों
मेरा अर्पित समर्पण नहीं दिखता।
क्यों श्रम मेरा, कौड़ियों में ही बिकता!
मैं अन्न के हर एक कण को,
सींचकर जीवित न सदा रखता,
माटी से माटी के पुतलों का फिर कैसे
जगत में जीवन अनवरत चलता।
क्यों श्रम मेरा, कौड़ियों में ही बिकता!
अन्न से है दौड़ता खून नसों में,
जीव की देह को जो ऊर्जा से भरता,
धरा का प्रथम पुत्र बनकर फिर क्यों
फल में लाल रंग मेरा रुधिर नहीं दिखता।
क्यों श्रम मेरा, कौड़ियों में ही बिकता!
लेह, चौष्य, भक्ष्य हो या भोज्य,
हर पदार्थ मेरे उद्यम से ही बनता,
साधुओं-सा जीवन जीता फिर क्यों
सबमें आहुति-सा तुम्हे नहीं दिखता।
क्यों श्रम मेरा, कौड़ियों में ही बिकता!
चाहता हूँ, बस अब इतना ही,
चाहे अन्नदाता तू मुझे ना कहता,
निज स्व...

























