नदी
श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी
लखनऊ (उ.प्र.)
********************
मेरी
परिभाषा या परिचय की आवश्यकता नहीं
मेरी भी भावनाएं हैं, मै महसूस भी करती हूं
मगर आज ये सब अस्तित्व विहीन सा लगता है।
बिना रुके बिना थके अविरल चलती रहती हूं
पर्वतों, कठोर रास्तों से टकराती, दर्द से कराहती नहीं
इठलाती बलखाती सागर से मिलती हूं।
जीवन का स्त्रोत हूं, जीने का आधार भी हूं, में।
किसी धर्म जाति के बंधन से परे हूं
कोई सीमा मुझे बांध नहीं सकती,
पूरी दुनियां में अलग नाम अलग रूप हैं मेरे,
मुझमें सुख दुख की अनुभूति भी है,
गहरी चोट खाती, आहत हूं आज,
मगर चुप हूं!!!!!!
क्यों कि प्रकृति की देन हूं, जो प्रकृति मेरी 'मां"है।
मां ने मुझे हिसाब लेना नहीं सिखाया
किन्तु आज मैं संकट में हूं।
मैं दुखी हूं !!
मेरे आंचल में ही इंसान का अस्तित्व सिमटता है,
मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन, उसके सपने,
सभी ...
























