वो बंजारन …
दिव्या राकेश शर्मा
गुरुग्राम, हरियाणा
********************
वो बंजारन दिखती मुझे
रोज धूप मे तपती
कुछ स्याह सी
कुछ सफेद
पहने घेरदार पोशाक
टीका माथे सजाकर।
वो बंजारन....
कातिल तीर निगाहें
कुछ गोदना
हाथों में गुदवाये
कुछ चूडिय़ां ज्यादा है
एक ओढनी तन पर
पैरों में कुछ जंजीरें
हाड़ तोड मेहनत कर
चिमटा बनाती।
वो बंजारन ....
ना इत्र महका है वहां
ना लाली होंठों मे सजी है
कुछ काजल से भरी आँखें
सुरत मे जादूगरी है।
वो बंजारन ....
कुछ उभार दीखते है
कसी हुई चोली मे
है गदराया जिस्म भी
मेहनत की रौशनी में।
वो बंजारन....
पास चुल्हा जला है
देग उस पर चढा है
कुछ रोटियां बनी है
कुछ गोस्त पकाती।
वो बंजारन....
है बिजलियाँ पैरो मे
ताल पर है सबको नचाती
वो बंजारन....
है सड़क किनारे बैठी
अपने आशियां मे
वो अपने महल की रानी
वो बंजारन देखी है....
.
लेखक परिचय :- दिव्या राकेश शर्मा निवासी...