मत रोको पर समझो
संजय जैन
मुंबई (महाराष्ट्र)
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छम-छम करती नदी बहती
टेढ़े-मेढ़े, ऊँचे-नीचे रास्तो से।
संग मिलकर वो चलती है
छोटी-छोटी नदी नाले को।
सबको अपना पानी देती
और देती है शीतलता।
बहते-बहते किनारों को
हराभरा वो करती जाती।।
छम-छम करती नदी चलती
टेढ़े-मेड़े, ऊँचे-नीचे रास्ते से।।
उदगम स्थल से देखो तो
बहुत छोटी धारा दिखती है।
पर जैसे-जैसे आगे बहती
वैसे-वैसे बड़ती जाती है।
फिर भी अपने स्वरूप पर
कभी घमंड नहीं करती वो।
कितने गाँवो और शहरो की
प्यास बुझाती रहती है।।
छम-छम करती नदी बहती
टेढ़े-मेढ़े, ऊँचे-नीचे रास्तो से।।
जब जब रोका लोगों ने
इसके चलते रास्ते को।
तब-तब मिले उन्हें
विनाशता के परिणाम।
जितनी शीतलता ये देती है
उससे ज्यादा दुख भी देती।
इसलिए मैं कहता हूँ लोगों
मत रोको इसके रास्ते को।।
छम-छम करती नदी बहती
टेढ़े-मेढ़े, ऊँचे-नीचे रास्ते से।।
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