ससुराल के बीते दिन
प्रो. डॉ. शरद नारायण खरे
मंडला, (मध्य प्रदेश)
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स्वर्णिम युग ससुराल का, याद करे दामाद।
पर अब कुछ भी है नहीं, केवल है अवसाद।।
ख़ातिरदारी है नहीं, अब सूना मैदान।
बिलख रहे दामाद जी, रुतबे का अवसान।।
स्वर्णिम युग पहले रहा, खाते थे पकवान।
अब तो सारे मिटे गए, ससुराली अरमान।।
कितना प्यारी थी कभी, जिनको तो ससुराल।
उनको दुख अब सालता, अब वह गुज़रा काल।।
अब ख़ातिरदारी नहीं, शेष बची है याद।
अब मुरझाने लगे गया, पौधा तो बिन खाद।।
स्वर्णिम युग ससुराल का, केवल है इतिहास।
दर्द घिरे दामाद जी, जीते अब बिन आस।।
पहले हलुआ, पूड़ियाँ, रबड़ी, काजू, खीर।
अब तो केवल हाथ है, कसक, कष्ट सँग पीर।।
स्वर्णिम युग ससुराल का, शायद आता लौट।
जैसा पहले दौर था, वैसा हो फिर हौट।।
परिचय :- प्रो. डॉ. शरद नारायण खरे
जन्म : २५-०९-१९६१
निवासी : मंडला, (मध्य प्रदेश)
शिक्षा : एम.ए ...