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Tag: अर्चना अनुपम

जीवन संरक्षण
कविता

जीवन संरक्षण

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** ये अविष्कार या फिर विकार? सुविधा में कितनी दुविधा है। संचार दूर, संग्राम बिना क्यों? तड़प मर रही चिड़िया हैं?? ये जितना बढ़ता जाएगा उतना कोहराम मचाएगा.. अभी पक्षी मगर कल मानव भी इसका शिकार बन जाएगा। विष कम हो या फिर ज्यादा हो पर असर अवश्य दिखाएगा जीवों के जीवन से खेला इंसान सजा तो पाएगा.... ये 4जी, 5जी बन्द करो जीने दो उनको जीने दो सुन्दर सृष्टि की मधुर छटा का जीवन अमृत पीने दो.... आख़िर क्यों उनसे छिनी जा रही प्रेम-दया की छैयां है? चुन-चुन दाना नहीं खिलाती दिखती नहीं गौरैया है? निर्दोष तुम्हारा क्या लेते?? बस कलवर गान सुनाते हैं वनस्पति के बीज भूमि पर पक्षी मित्र बिखराते हैं... कर्जदार तो नहीं हैं वो जो देकर जान चुकाते हैं... मासूम दण्ड किस बात वो अब मृत्युदण्ड से पाते हैं?? परिचय :- अर्चना...
मैं उसी शास्वत की वंशज
कविता

मैं उसी शास्वत की वंशज

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** जो काल चक्र का दास नहीं जो समय बनाने वाला है जो है अक्षुण्ण सनातन से जो कभी ना मिटने वाला है.... जिसने प्रतिपल संसार समर में धैर्य ज्ञान को बरसाया जिसने रेवा के जल सा निर्मल वेद तत्व है बिखराया.... जो उपमानों की उपमा है जो सर्प्रथम जग में आया जिसने रागों की रचना की जिसने तानों को झनकाया.... जो वनस्पति में परिणित हो हर पात हरि बन बैठ गए जो भाव भक्त की विनती पर चिर-क्षीर सिंधु में लेट गए.... जो योग ज्ञान से नर को भी नारायण करने वाला है. जो सात रंग में स्वयं विवर्जित सृष्टि सजाने वाला है... जो बार-बार संसार बनाकर उसे मिटाने वाला है मैं उसी शास्वत की वंशज जो अविचल रहने वाला है.... जो जल का है जो थल का है जो गगन भूमि सरिता का है जो शशि-कांत की ज्योत्स्ना जो सूर्य प्रभा ललिता का है..... जो प्रलय स...
उन क्रूरों ने निर्ममता से
कविता

उन क्रूरों ने निर्ममता से

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** https://youtu.be/RiMP3GcPej8 रस-रौद्र, करुण उन क्रूरों ने निर्ममता से बांट दिया जब घाटी को.. आरी बींचो-बीच धरी और काट दिया जब बेटी को? तब भी धधके नहीं क्रोध के हृदय तुम्हारे क्यों शोले? मौन रहे या टाल दिया, तब एक सहिष्णु ना बोले? नन्हे-नन्हे बच्चों को जब वो गोली से भूंज रहे थे? सत्ता लोलुप चतुर लड़इये तब विदेश क्यों घूम रहे थे? 'सर्वानंद या गिरिजा टिक्कू' की ख़ातिर मोम नहीं क्यों पिघली? भारत में रहकर डरने वालों! तब जीभ तुम्हारी विष ना उगली? आज दर्द पर उनके कुछ कुर्सी के दम्भी मुस्काते हैं हँसते नहीं, दरअसल दैत्यवंशी हैं! जात दिखाते हैं। आखिर क्यों? चीखें उनकी कान के पर्दे तुम्हारे फाड़ नहीं देतीं? किसलिए तुम्हारी आँखे उन संग हुई त्रासदी पर ना रोतीं? सहमा नहीं कलेजा बोलो आख़िर क्यों चीत्कारों से.....
अनुपम दोहे
दोहा

अनुपम दोहे

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** १) दिनन बाड़ बीते जग सत्य ना दीखो मोए । टहरत आऊं मशान तौ साँचहिं सन्मुख होए।। २) क्रोधि शील सज्जन चपल ज्ञानी मूर्ख अनजान। लेकर सबको जो चलैं। वो ही चतुर सुजान।। ३) पर परनिंदक को नहीं अनुपम पाए पार। कपट, घृणा, छल ईर्ष्या निंदा कै श्रृंगार।। ४) दूरी इनसन राखिए जो निज हित की चाह। दिखैं जहां कर जोड़ कै तुरत बदल लो राह।। ५) स्वप्न दिखै चितवऊं उहय 'अनुपम' तोरो रूप। हाँसे जग मुझपर स्वयं लेकर चरित कुरूप।। ६) जे भगतन खैं जो कहैं तसहिं तुरत तस पाएं। ज्ञान डरो बौनो जहाँ भगति बो रस कहलाए।। ७) लंबी रचना का कहूँ ? जा में शब्द हजार। दोह बखानत मैं चली ले ग्रंथन को सार।। ८) पण्डित सो ना बांचिये जिनके ज्ञान अगाध। शीश स्वयं के दम्भ अरु प्रशनन करत हैं घाघ।। ९) हरि से गाढ़ी प्रीति तौ शास्त्र रटे...
विलोपित धर्म हमारे
कविता

विलोपित धर्म हमारे

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** मानवता के मूल मिटे जिम धूल शूल स्वारथ के गाड़े। स्वास करे निर्मूल धरावे फूल चिता जीवत महि बारे ।। लालच को संसार बढ़ो व्यापार विचार अपावन सारे। नाता ना मनुहार भयो अंधकार विलोपित धर्म हमारे।। बैरी भए मनमीत प्रीत की रीत हार संसार बिसारें। वृद्ध जनन की सीख दंत तल पीस खीज आपन पे झारें।। समुझावत बड़वार तबउ मय पीवत नाद पड़े भिन्सारे। वस्त्र लुप्त उन्मुक्त संतति घूमें हाय देह उघारे।। व्याख्या- मानवता के मूल्य सड़क पर पड़ी किसी धूल की भांति उड़ाती आज की पीढ़ी स्वार्थ के तीखे बाण हृदय में चुभोती सी, स्तर स्वार्थ का यूँ कि स्वास लेते शरीर को कौन पूँछे? उनका बस चले तो कपट कर अपना मतलब साधकर बुजुर्गों को जीवित स्वाहा कर दें कर भी रहे हैं। लालच व्यापि इस संसार में संबंधों का व्यापार अब आम हो चला है, अर्थात नवीन सम्बंध अब म...
रस-श्रृंगार
कविता

रस-श्रृंगार

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** मदमस्त नयन के प्याले से, छलकाओ प्रेम हृदयवन में। कुंदन सम ज्योत्स्ना का भी, आलिंगन कर लो मधुबन में।। हिम स्वम् धराशायी होवे, अभिमान पूस का हुआ जिसे। ठिठुरन सलज्ज हो स्वीकारे कामिनी ने ऐंसा छुआ मुझे।। ललिता अधरों की दिखलाओ, शीतल ऋतु धराशायी होवे। मन्मथ के बाणों से छलनी, हे! स्वयं सुलोचन बलखाओ।। हो सप्तप्रभा सी नूतन तुमपर, स्वेत रंग यूँ रहा झलक। इठलाती दरिया को ओढ़े, हिम चादर देखूँ ज्यों अपलक।। परिचय :- अर्चना पाण्डेय गौतम साहित्यिक उपनाम - अर्चना अनुपम मूल निवासी - जिला कटनी, मध्य प्रदेश वर्तमान निवास - जबलपुर मध्यप्रदेश पद - स.उ.नि.(अ), पदस्थ - पुलिस महानिरीक्षक कार्यालय जबलपुर जोन जबलपुर, मध्य प्रदेश शिक्षा - समाजशास्त्र विषय से स्नात्कोत्तर सम्मान - जे.एम.डी. पब्लिकेशन द्वारा काव्य स्...
मूक क्रांति हो
कविता

मूक क्रांति हो

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** भार ज्यों धरा उठा रही पवित्र पातकी। क्लेश ना ही द्वेष हिय समान भाव मातृ सी। हो सशक्त नारी तो ना बंदिनी वो वंदनीय। अवनि के आलोक से करे प्रभा आकाश की।। बन कुमुद है शोभती जो दामनी सी कौंधती। रोड़ो को स्वयं वधे वैधव्यता को बांधती। कर दमन आडंबरों का शांत व्यंग्य रागिनी। भेदभाव भस्म यूँ करे कोई दावाग्नि।। निश्चयों को दृढ़ करे सुमार्ग पथ स्वयं वरे। लक्ष्य पक्ष में करे वो दिव्यता को धारती। तर्क भेदी शूल कुप्रथाएं सारी धूल हों चित्त शांति व्यक्त तृप्त आत्माभिमान की।। सूर्य के समान तेज वायु सा प्रचंड वेग। फूल सी खिली हो फिर भी अग्नि में तपी हो जो। झेलती चली हो रूढ़ि और सारे बंधनो को। उठ खड़ी बेबाक उनको रौंदती बढ़ी हो वो।। राह में हों कितने कष्ट लोग हो चले हों रुष्ट । हों अनन्य दुष्ट एक क्षण भी ना डिगी हो जो। ...
नष्ट ये जंगल ना हो पाए
कविता

नष्ट ये जंगल ना हो पाए

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** कहीं अमंगल ना हो जाए। नष्ट ये जंगल ना हो जाए।। बादल को तोड़ेगा कौन? कहो नदी मोड़ेगा कौन? माटी को रोकेगा कौन? गरल वायु सोखेगा कौन? उज्जर त्रिभुवन ना हो जाए उपवन 'अनुपम' ना खो जाए; कहीं अमंगल ना हो जाए। नष्ट ये जंगल ना हो पाए।। (त्रिभुवन-जल,थल,नभ) रौंद-खौन्द खोखली धरा का गर्भ-पात जो कर जाओगे? हो भूचाल उजाड़े आँगन कोप अवनि का सह पाओगे? ताप बढ़ा हिम पिघलाओगे अति मति की दिखलाओगे! प्रलय समन्दर ना हो जाए; कहीं अमंगल ना हो जाए। नष्ट ये जंगल ना हो पाए।। मृग-खग, सिंह-गज गृह निवास जो यूँ टुकड़ों में बाँटोगे, हरियाली ही नहीं रही तो! बन्धु 'हीरा' चाटोगे? भूख का दंगल ना हो जाए; कहीं अमंगल ना हो जाए। नष्ट ये जंगल ना हो पाए।। पानी को बाँधेगा कौन? कंठो को साधेगा कौन? स्वास संचरित कौन करेगा? खनिज तुम्हार...
‘दम्भ अपार’- पहेली बूझो तो जानें
कविता

‘दम्भ अपार’- पहेली बूझो तो जानें

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** पहेली का उत्तर आप नीचे दिए गए प्रतिक्रया कॉलम (कमेंट्स बॉक्स) में अवश्य दें ...🙏🏻 अनगढ़-मनबढ़ एक चलत गजराज करत हुड़दंग, दंभ से चूर उलीचत धूर मूढ़ बिरझात चिंघाड़त। शक्ति सम्पन्न देह नहीं धीर भरे घरमण्ड, कहत निज काज राज कै ख़ातिर क्रोध प्रचंड। उजाड़त बाग छांव जस बाँस-साँस भ्रम पाल, बनो महीपाल खींच जयमाल स्वयं मय स्वयं उघारत। समुझत पालनहार जिला कै धीश झुकावत शीश, डरे सब लोग बियाहत जोड़-तोड़ मण्डप से भागत। मूरख करत बखान है 'अनुपम' ज्ञान राज विपदा ना आवत, जे विवेक के हीन बौद्धि जिम बाज मीन से शान बतावत। लीलत पग झषराज खींच मुख फाड़ नक्र जस नाच नचावत, उतरत गर्व अपार क्षमा पुनि माँग हृदय तब नाथ पुकारत। गजराज-हाँथी.. झषराज, नक्र- मगर.. परिचय :- अर्चना पाण्डेय गौतम साहित्यिक उपनाम - अर्चना अनुपम मूल निवासी - जिला कटनी, मध्य प्रदेश वर्तमान...
याद है
कविता

याद है

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** सिहर उठता बदन खिल उठती सांसे कि उनका आगोश में आना याद है। सर्द हवाओं का धुंध सा पर्द मौसम मानो छिपा रहा हो फिजा के रुखसार छिपते सूरज सी तेरी; मुस्कान याद है... गुनगुनी धूप, मद्दम पैरों के थाप सरीखे दबे पाँव बिखेरने आती हो खुशरंग, गुलों का मुड़कर उस ओर तेरी तरह इतराना; याद है। होले से रेशमी दुपट्टे का; नाजुक डालियों की तरह लहराना पंखुडियों जैंसे गुलाब की अधरों का खिल जाना फिर कहीं छिप जाती रश्मि; जाने कहाँ? कलियों की धीमी ढ़िढ़ुरन जैसा; तेरा वो शर्माना, याद है। परिचय :- अर्चना पाण्डेय गौतम साहित्यिक उपनाम - अर्चना अनुपम मूल निवासी - जिला कटनी, मध्य प्रदेश वर्तमान निवास - जबलपुर मध्यप्रदेश पद - स.उ.नि.(अ), पदस्थ - पुलिस महानिरीक्षक कार्यालय जबलपुर जोन जबलपुर, मध्य प्रदेश शिक्षा - समाजशास्त्र विषय से स्नात्कोत्तर सम्मान - जे.एम....
हमारी हिन्दी
कविता

हमारी हिन्दी

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** (हिन्दी दिवस पर राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कविता लेखन प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त रचना) प्रतिपल राग विराग छंद रस; के समागम सुर निहित। अवतीर्ण तत्सम सहित तत्भव; दिव्य सर्व सुभाष हित। कौशल सहोदर संस्कृत; सर्वस्व अक्षर अंतरित, भावोमयी उत्कर्ष मर्म अनुराग संचय द्वंदजित। युग नवल अथ प्राचीन; सहज अकाट्य रचना सुवासित। अंतर सुशोभित शब्द व्यंजन; गूँजते स्वर दिग्विजित। सौरम्य कांति नवल अम्बर; भ्रांतिहीन स्वउज्जवलित। संधि समासों जनित पूरित; चिन्ह विस्मय बोधवित। मानक सुनिधि परिपूर्ण ग्रंथ; क्रांति तेजस काव्यतित। 'हिन्दी' विराजित विश्व मस्तक; पटल व्यापक सात्विक। परिचय :- अर्चना पाण्डेय गौतम साहित्यिक उपनाम - अर्चना अनुपम मूल निवासी - जिला कटनी, मध्य प्रदेश वर्तमान निवास - जबलपुर मध्यप्रदेश पद - स.उ.नि.(...
कन्या भ्रूण हत्या
कविता

कन्या भ्रूण हत्या

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** कन्या भ्रूण के हत्यारे नरपिशाचों के विरुद्ध धिक्कारती स्वरचित रचना गायत्री, सावित्री, दारा, गार्गी, उपाला कन्या थीं। गंगा, गौरा, सिया-जानकी वंश वृद्धिका कन्या थीं। प्रजापति की वीर पुत्रियाँ प्रकटे जिनसे अस्त्र सहस्त्र। रण में विजयी राम बने वो शस्त्र जननी भी कन्या थीं। शक्ति के मंदिर में जाकर शक्ति को दुत्कार रहा। मानव चाहे पुत्र जन्म नित स्वारथ यूँ चित्कार रहा। जिससे चाहे जने पुत्र ही वह माता भी कन्या है। गर्भ में कन्या मार रही जो वह 'दुष्टा' भी कन्या है। दानव बनता मानव देखो निरत अजन्मी मार रहा। वधु चाहिए बेटे ख़ातिर इतना जबकि जान रहा। एक दिन वधु भी नहीं मिलेगी गर तेरी यह नीति रही। विधुर सरीखे जीवन होगा सुनले मेरी खरी-खरी। ढूढ़ने जाता जिस कन्या को मैया के नवरातों। उन दुर्गा का दोषी है जगता जिनके जगरातों में। न्यायशील प्रकृति शा...
विरह की वेदना
कविता

विरह की वेदना

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ********************         रस- करुण, शांत। भाषा- तत्सम हिन्दी शब्द संयोजन। समर्पित- शास्वत पौराणिक पात्र हेतु। कर धर भटकते मौन कम्पित स्वर, दशा ज्यों मार्मिक। सती देह मृत स्थूल शिव, वो शास्वत भी पार्थिव।। मधुकर लताकर वट समूहों से व्यथा निज गा रहे। श्री राम सिय की वेदना सह अश्रु जनित सुना रहे।। प्रियतम पुनः मधुमास में आकर हमारी स्वास में। वंशी की देकर तान वृन्दावन सुसज्जित रास हो।। अनिमेष अपलक राधिका कुछ यूँ वो विरहाधीन है। निष्ठुर नियति के सामने मछली ज्यों नीर विहीन है।। विक्षिप्त, गिरती सी संभलती कौंध कहती हे!वरा । सर पीटती रोती विलापित भाव बेसुध उत्तरा।। दावाग्नि ज्वलित प्रतीत श्रावण की घटा प्रिय क्षोभ में। देवों के हित ले प्रीत भस्म, रति; अति विकल विक्षोह में।। व्यापक अनादि देव विह्हल, द्रवित अंतर श्री पतैय। व्याकुल विहंगम हंस, निर्झर नयन ...
महान कौन?
लघुकथा

महान कौन?

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** दोनों हाथों में कत्थाई रंग की तलवारनुमा आकृति वाली दो सूखी बड़ी फल्लियाँ लिये ग्यारह वर्षीय साकेत मित्र सहित शाम ढले घर आया अतिउत्साह में! "मम्मा! देखो मैं क्या लाया?" मां- "अरे सक्कू! बेटा क्या लाये ये? गुलमोहर की सूखी फल्ली?" (आश्चर्य पूर्वक) साकेत- "नहीं मम्मा ये तो तलवारें हैं, तलवारें, दो मेरी दो मेरे दोस्त शिवु की।" मां- "पर तुम ये क्यों लाये?" साकेत- "महान बनने।" मां- "महान बनने!" (अत्यंत विस्मय से) विभु- "हां आंटी जी, महान बनने, अब हम दोनों मुकाबला करेंगे फिर, जो जीता वो बाकियों से लडे़गा ऐंसे ही तो महान बनते हैं ना?" मां- "तुमदोनों से किसने कहा ऐंसे कामों से कोई महान बनता है?" (क्रोधपूर्वक) साकेत- "वैभव एक साथ-आपने! और हमारी इतिहास विषय की शिक्षिका जी ने।" (सहज भाव से) मां- "क्या; मैने कब कहा? और शिक्षिका से अभी पूंछती हूँ...
अपनों ने ही मारा है
कविता

अपनों ने ही मारा है

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** समर्पित- दंगो के दौरान फर्ज निभाती निर्दोष पुलिस पर होने वाले हिंसक हमलों की अमानवीयता दर्शाने का प्रयास परसी थाली छोड़ मैंने फोन उठाया जबकि अभी हाल ही सत्तरह घण्टे ड्यूटी कर, घर आया। रात के बजे हैं एक, बच्चे लंबे समय तक राह देख, कि, पापा कुछ लाएँगे आस लगाए सो गए हैं। ना जाने पापा किस दुनियां में गुम हो गए हैं? देखकर सोते बच्चों को आँख मेरी भर आईं। हिम्मत बाँधती उसनींद पत्नी नज़दीक आई। हाँथ ही धोये की वो झट खाना ले आई। समझ गई, दौरान ड्यूटी, खाना तो आया होगा। कईलाशों के बोझ! कंधों, चीखों के कान में थे; मैंने नहीं खाया होगा। भूख लगती भी किसे है ऐंसे हालातों में? एक पुलिस रखती धैर्य उन्मादी जज्बातों में। एक ही खाया था कौर; की उस ओर; घण्टी फिर से फ़ोन की बजी। रोका संगिनी ने हाँथ थाम लिया कल ही तो देखी है एक पुलिस वाले कि अर्थी सजी। ...
अमिट वीर बलिदानी हो
कविता

अमिट वीर बलिदानी हो

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** समर्पित- महान क्रांतिकारी वीरांगना झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई के अमर बलिदान को समर्पित श्रद्धांजली। रस- वीर, रौद्र। धार तेज बरछी की करली थी ऐंसे परिवेश में। चूड़ी पहन छुपे बैठे जब, कुछ रजवाड़े देश में।। ललकारी थी झलकारी, रघुनाथ नीति भी बड़ी कुशल। गौस खान का लहु तेज, सुंदर मुंदर भी बहुत सबल।। पेंशन का एहसान रखो, अधिकार हमारा झांसी है। अपनी भूमि तुमको दें यह, बिना मौत की फांसी है।। प्रथम युद्ध वो आजादी का, रोम-रोम में जागी थी। क्रांति जनित हृदय ज्वालायें, लंदन तक ने भांपि थीं।। कमजन-कमधन कम से कैसे रानी युद्ध अटल होगा? लड़ने का साहस जानो पर विजयी भला महल होगा? नारी है सृजना जीवन को जनती, पीर बड़ी सहके। लड़े हमारे बांके घर पर क्यों बैठें हम चुप रहके? सुन रानी की बातें तब नारी शक्ति भी जागी थी। भारत की लक्ष्मी से डरकर विक्टोरिया भी का...
मेरी आस्था
कविता

मेरी आस्था

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** मूर्ति पूजा की आलोचना के प्रतिउत्तर स्वरुप प्रथम प्रयास बिखर जाते हैं बनाने हमारा वजूद खुद चोट खाकर। रौंदे गए होकर मिट्टी अपनी रौनक गंवाकर।। जिससे बनी ये सारी कायनात है कीमती हर पत्थर निर्भर जिसपर सिर्फ इंसान नहीँ भगवान् है।। अगर गलत है इसे पूजना तो सिर्फ इतना बता मेरे दोस्त बिन मिट्टी और पत्थर के वजूद है किसका?? किसमें है दम जो मूल चुका दे ब्याज सहित इसका?? जर्रा जर्रा इसी ने बनाया है। तुझे दी ये अनमोल काया है।। गर चुका नहीँ सकते मूल ; तो नहीँ कभी भूलेंगे फक्र से ताउम्र पत्थर की मूरत पूजेंगे।। अपनी आलोचना का डर किसी और को दिखाना । आइन्दा मेरी आस्था पर अंगुली नहीँ उठाना।। तुम करोगे निंदा हमारी थोथे बन बैठे बड़े, ना वेद पढ़े ना शास्त्र पढ़े नित बने आलोचक ही मनगढे। ना नीति रची ना गीति वची वैचित्र कुंठाजित मूढ़मढें।। केवल कर्मों का ...
अपनी जड़ें खोदते हैं
कविता

अपनी जड़ें खोदते हैं

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** समर्पित- अंधी पश्चात्य संस्कृति के अश्व पर आरूढ़ भारतीय परिवेश को। है वर्तमान की यही वेदना मानव से मानवता दूर हुई। अनुभव में दृष्टिभूत यही की आज सभ्यता ढेर हुई।। कल संम्पत्ति थे मात पिता उनकी सेवा ही प्यारी। और आज दे रहा बेटा है अपने ही पता की सुपारी।। पतियों से ज्यादा बाॅयफ्रेण्ड अब पत्नी जी को भाते हैं। पत्नी की साड़ी से अच्छी गर्लफेण्ड के वस्त्र लुभाते हैं।। बस कुछ पैसों का आ जाना घर में कुत्ते पल जाना है। कुछ बुरा तो नहीं पर इसपर काहेका उतराना है? इस फोरव्हिलर की दुनिया में साइकल का कहां ठिकाना है? भूले भक्ति अरु दान पुण्य तीरथ में खूब उड़ाना है।। रोगों से छुब्ध देह किंतु मौजों में समय बिताना है। असमय मृत्यु की ओर बढ़े पर चुभता पूर्व जमाना है।। पैदल चलने वाला तो अपनी किस्मत को गरियाता है! क्योंकि मित्रों और सखियों से वह व्यंग्य बाण ह...
चने का झाड़
हास्य

चने का झाड़

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** समर्पित-अनायास ही तनिक-अधिक उन्नति पाकर मनः स्थिति में उपजित परोक्ष निर्मूल अभिमान को।   मैं चने का झाड़ हूँ नहीं कोई ताड़ हूँ। बावजूद इसके मेरी घनघोर छाया क्योंकि फैली दुनिया में बेपनाह माया हर किसी को सुलभ कराता भरपूर 'लाड़ हूँ' मैं 'चने का झाड़' हूँ। कुछ तो उपलब्धि पाता है, यूँ ही नहीं हर कोई मुझमें बैठ अन्य को धता बताता है । "चढ़ गए चने के झाड़ में" ये तंज मुस्कुराकर झेल जाता है। मिली ज़रा सी शोहरत इज्ज़त दौलत तब उसका ना कोई अपना ना ख़ूनी ना जिगरी रिश्ता काम आता है। सिर्फ़ एक 'चने का झाड़' ही तो दुलरता है। ऐंसा मैं नहीं मानता पर दुनियां में ही तो कहा जाता है। ज़नाब, तब तो कंधे पर बैठाकर घुमाने वाले, मां-बाप भी छूट जाते हैं। (व्यंग्य का तड़का) मेरी मजबूत टहनियों में लटककर ही तो आदमी और मजबूती पाते हैं। उत्तरोत्तर उन्नति की मिसाल हूँ, ब...
दानवता स्वीकार
कविता

दानवता स्वीकार

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** समर्पित - अवनि से अम्बर तक प्रत्यक्ष परोक्ष रूप से मानव जाति के अधिकृत अतिक्रमण पर। उद्देश्य - प्रकृति-जीव संरक्षण। पशु-पक्षी पर बाज ना आये, करके अत्याचार। मानवता की अति कर्मगति, धरा देय चित्कार। अंध मार्ग औचित्यहीनता, हुआ बहु विस्तार। स्व स्वारथ निज सुविधा हेतु, रौंदे तिमिर हज़ार। छीन लिए मासूम खगों से, उनके घर- संसार। स्वास् वास् अब शुद्ध नहीँ, हवा में ज़हर घुलाया है। मानव के अधिकारों ने कुछ, ऐंसा तांडव मचाया है। जीवन से बढ़कर हो चले, वैनाशिक आविष्कार? मैं मानव हूँ और हैं केवल, मेरे ही अधिकार। इस विकार से कर चुका, दानवता स्वीकार। मति भ्रमित कर ली स्वयंमय, करके अंगीकार। सर्वाधिकार सुरक्षा पर, लगातार प्रहार? राष्ट्र हितैषी नीति की पगबेड़ि, बने हर बार। ऐंसे मानवाधिकार को, बार-बार धिक्कार। इसी हेतु कर्तव्यवाद की, हुई पुनः दरकार। शास...
प्रीति की रीत
कविता

प्रीति की रीत

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** प्रीत की पाती ना ये मद है ना ही मदिरा, ना बंधन है ना आज़ादी। प्रीति की रीत ही ऐंसी, मेरे मन को सदा भाती।। नहीं क्लोशों के झुरमुट में, हृदय का द्वार है खुलता। पतित पावन हो अंतर्मन, तो निर्मल  भाव ये मिलता।। समय की चाकरी में तुम, नहीं ये साधना पीसो। नयन धर नेह के अश्रु, पटल नव कल्प के सीचों।। ना रह जाता जहाँ में कुछ, हो प्रियतम राग की रसना । ऋषि मुनि संत विद्ववों के  कथानक  सार का कहना।। नैसर्गिक एक दृष्टि रख ना देखे वंश जीव जाती। सदा सुरभित है दुनिया में ये अनुपम 'प्रीत की पाती'।। करे लौकिक जहाँ को हेतु रक्षित भाव की थाती। विरह तत् नित्य चिंतन में अवनि अंबर वरे स्वाति ।। समर्पित प्रेम से बढ़कर नहीं कुछ ओर रे मितवा। जो त्यागे अन्य की ख़ातिर स्वयं उज्ज्वल हो ज्यों बाती।। . परिचय :- अर्चना पाण्डेय गौतम साहित्यिक उपनाम - अर्चन...
नमन सदा कुर्बानी को
कविता

नमन सदा कुर्बानी को

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** समर्पित - वीर देशभक्त बलिदानियों हेतु भाव - देशभक्ति नमन सदा कुर्बानी को। उनकी ही नहीं, उन अपनों की, जिनने खोए कुल के चिराग, जिनका सेंदुर लेकर वैराग, माटी का मूल्य चुकाया है। भारत का मान बढ़ाया है।। माटी का मूल्य चुकाया है। भारत का मान बढ़ाया है।। वो शीश देख भगनी बोले, तेरी राखी आज तरसती है; रोती है बहुत बिलखती है। हम तो दो दिन ही याद रखें, वह मां; की आंखों से छिपकर बाबुल को कुछ हिम्मत देकर। धीमे से कहीं से सिसकती है। गर्मी में छत तपते होंगे। सर्दी ठिठुरन सहते होंगे। बारिश में हर कोने कोने, परिवार सहित रोते होंगे। आंचल जननी का प्यारा है, अश्रु का एक सहारा है। ग़म हम भी उनका भूल चले, अपने ही में मशगूल चले। वो फिर शहीद हो जाएंगे, हम फिर अफसोस मनाएंगे। किसलिए किया बलिदान दिव्य? यह कब खुद को समझाएँगे? हम भी इस प्रण को अब जी लें, भारत न...
कर्तव्य पटल पर
कविता

कर्तव्य पटल पर

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** प्रत्येक विपत में सबल पुलिस। कर्तव्य पटल पर अटल पुलिस।। कोई व्याधि आँधि प्रकृति तांडव। हिंसक उत्पात करे संभव। भूमि का दांव लगे वैभव। तब निडर प्रवर रण प्रबल पुलिस।। प्रत्येक विपत में सबल पुलिस। कर्तव्य पटल पर अटल पुलिस।। व्यभिचार कुठार हो क्रूर कर्म। आतंकवाद सब मेटे धर्म। ना समझे जन जब नीति मर्म। संकट मोचन ज्यों प्रखर पुलिस।। प्रत्येक विपत में सबल पुलिस। कर्तव्य पटल पर अटल पुलिस।। दारिद्र छुद्र डाका चोरी। वैमनस्य विवाद बहुत-थोरी। परिवार पृथक कहीं छेड़-छाड़। कुछ नियम तोड़ जब बनें ताड़। ना हो समाज से विलग पुलिस। हर समाधान कर सुफल पुलिस। प्रत्येक विपत में सबल पुलिस। कर्तव्य पटल पर अटल पुलिस।। करे कोई राष्ट्र से गद्दारी। बेईमानी हावी अरु मक्कारी। बढें विवादित उत्पाती। लाठी कर धर फिर संभल पुलिस। प्रत्येक विपत में सबल पुलिस। कर्तव्य पट...
रे सुन मानव
कविता

रे सुन मानव

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** रस - करुण, रौद्र विषय - कोरोना त्रासदी के कारण भाव - जीवों पर दया विश्व का कल्याण। https://www.youtube.com/watch?v=gKb0mJfS-dU रे सुन मानव! तू ही तो अपनी निहित गति का कारक है। कल जीवों पर था जुल्म किया अब स्वयं स्वयं का मारक है। यह अथक दण्ड जो भोग रहा तू ही उसका अवतारक है। रे सुन मानव! तू ही तो अपनी निहित गति का कारक है। बनने की ख़ातिर शेर, ढेर अब गिरी जमी पर शाख तेरी। एक अदने ना दिखने वाले ने समझाई औकाद तेरी। अभी तलक अपनी ग़लती को तूने ना स्वीकार किया। चल बता जीव को स्वाद हेतु हनने किसने अधिकार दिया? तू देने हरि को दोष चला, ख़ुद में ख़ुद ही निर्दोष चला। तब अपने दोष गिनायेगा जब स्वयं भी मारा जाएगा? सुन लाख चौरासी योनि में सबको जीवन अधिकार सुलभ। जब-जब भूलोगे यह नेकी तब-तब भुगतोगे कष्ट अलभ। मछली मुर्गे को छोड़ चला चमगादड़ मूर्ख तू खा...
फगुआ बयार हुड़दंग की हुलार
कविता

फगुआ बयार हुड़दंग की हुलार

अर्चना अनुपम जबलपुर मध्यप्रदेश ******************** समर्पित- बुन्देली बघेली सहित बृज की त्रिक्षेत्रीय होरी के हुड़दंग को। भाषा- बृज, बघेली, बुन्देली शब्द संयोजन। छंद- घनाक्षरी। रस- हास्य, वीभत्स खाबन के गुजियन, शकरा की लड़ियन। डार-डार कंठन पे आज निकरे हैं।। मेहर घरे की सारी घोर- घोर फुलवारी। टेंसुअन तोर तोर द्वारे ला खड़ी हैं।। खूबन अबीर सों महावर गुलाल लाल। रंग-रंग केरे मेंक, भूतन बने हैं।। होय-होय हल्ला करें होहड़ मोहोल्ला डरे।। अरी..री.. री. रक्तन कपार लो करे हैं।। पीय-पीय भंग लहरातन भुजंग घाईं। कीच की उलीच मीच देह रगड़े हैं।। जोंन-जोंन भगत पकड़ उहे पटकत। बच्चन जवान छाड़ि बूढ़े रगदे हैं।। फगुआ बयारि री नियारी है बघेलन की। कम ना बुन्देलन बिरज हुंदड़े हैं। गोबर की छोकर बनावल गड़हियन। लोटत घासोटत सूकर से बने हैं।। अटपट सूरत ले मटकत घूरन पे। लटक-लटक कंध विकट करे हैं।। दारू के सुरूर के गुरू...