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दीवारें पत्थर की

भीमराव झरबड़े ‘जीवन’
बैतूल (मध्य प्रदेश)
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हाथ हथौड़ी ले शिक्षा की,
छेनी साथ हुनर की।
तोड़ रही सच आज नारियाँ,
दीवारें पत्थर की।।

जकड़े थे कोमल भावों पर,
रूढ़िवाद के बंधन।
हाथ-पाँव चक्की-चूल्हे में,
झुलसे बनकर ईंधन।
परंपराओं की कैंची ने,
बचपन से पर काटे,
पाषाणी सदियों ने इनके,
सुनें न अब तक क्रंदन।।

प्रीति युक्त जिनके चरित्र को,
पुड़िया कहा जहर की।
तोड़ रही सच आज नारियाँ,
दीवारें पत्थर की।।१

कसी कसौटी पर छलना के,
आदिम युग से नारी।
वत्सल पर धधकाई जग ने,
लांछन की चिनगारी।
धरा तुल्य उपकारी जिसके,
भाव रहे हो उर्वर,
हुए नहीं संतुष्ट भोग कर,
रागी स्वेच्छाचारी।।

हर पड़ाव पर बनी निशाना,
व्यंग्य युक्त नश्तर की।
तोड़ रही सच आज नारियाँ,
दीवारें पत्थर की।।२

उठ पौरुष के अहंकार ने,
पग-पग डाले रोड़े।
गाँठ प्रीति की जिनसे बाँधी,
ताने सबने कोड़े।
शिक्षा की साँसों ने जब से,
नभ के द्वार दिखाएंँ,
आत्म बोध से जाग गए अब,
स्वाभिमान के घोड़े।।

डरे कबूतर हुए उड़न-छू,
राह जिधर अंबर की।
तोड़ रही सच आज नारियाँ,
दीवारें पत्थर की।।३

परिचय :- भीमराव झरबड़े ‘जीवन’
निवासी : बैतूल मध्य प्रदेश
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।

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