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मंजिल तो…

राजेन्द्र लाहिरी
पामगढ़ (छत्तीसगढ़)
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सब एक ही मंजिल
के मुसाफिर हैं,
इसे यहां जाना है,
उसे वहां जाना है,
दरअसल ये सब भ्रम है
सबका अंतिम मंजिल
एक ही ठिकाना है,
हमने बुद्ध का देह खोया,
कबीर का,
रैदास का,
ज्योति बा का,
बाबा साहेब
भीमराव का,
मान्यवर
कांशीराम जी का,
देह किसी
का नहीं बचा,
पर इन सभी
महापुरुषों के
विचार,जी हां
विचार जिंदा है,
अमानवीय व
पाखंडी व्यवस्थाएं
इनके विचारों के आगे
बुरी तरह शर्मिंदा है,
कौन सोच सकता था कि
भारत जैसे देश में
एक रुग्ण विचार
हावी हो सकता था,
जो आपसी सौहाद्र
को डुबो सकता था,
जातिय उच्चलशृंखला
इतना प्रभावी
हो सकता था,
जो मानवीय
संवेदनाओं को
तार तार कर
डुबो सकता था,
पर ऐसा हुआ,
मानव ने मानवता
को नहीं छुआ,
परिणामतः जातिय घमंड
नित परवान चढ़ता रहा,
सहयोग की भावना
उधड़ता रहा,
हमने इन बातों पर
सदा गौर किया है,
पर घमंडियों ने इसे
कभी महत्व नहीं दिया है,
मगर वो क्यों भूल जाता है,
उनके स्मृतियों में
कचरा क्यों घुल जाता है,
अरे भई सबकी मंजिल
आखिर में मौत ही है,
जिनसे न आप,
न मैं और
न कोई भी
बच सकता है।

परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी
निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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