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रिश्तों में दरार

राजेन्द्र लाहिरी
पामगढ़ (छत्तीसगढ़)
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सबको अपनी पड़ी है
कोई नहीं कर रहा विचार,
पता नहीं क्यों आ जाते हैं
रिश्तों में दरार,
अपनों का रूखापन,
अपनों की दगाबाजी,
किसी को मजबूत कर देता है तो
कई बन जाते हैं अपराधी,
रिश्तों की दरारों से
बढ़ सकता है बैर,
एक दूजे को भूल,
नहीं सोचते कभी खैर,
करने लग जाते हैं
एक दूसरे की बुराई,
इसकी न उसकी नहीं
किसी की भलाई,
तब हो जाये शायद
बच्चों का बंटवारा,
दुलार भी नहीं सकते
चाहे हों सबसे प्यारा,
आना जाना खतम
और बढ़ती है दूरी,
पहल कोई भी कर सकता है
नहीं कोई मजबूरी,
मगर इस हालात में
आड़े आता है अहम,
बुराई मेरी ही कर रहे
सब हो जाता है भरम,
लग जाते हैं पहुंचाने को नुकसान
और अपनाते हैं साम-दाम-
दंड-भेद की नीति,
भूल जाते खून से
बंधे संबंध व प्रीति,
हां ये मेरा भी दर्द है,
घुस चुका मुझमें भी ये मर्ज है,
इन्हें घेर ले हर मुसीबत,
दिल में ले जिज्ञासा,
हर रिश्ता दूर खड़े
देख रहा तमाशा।

परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी
निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।

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