
सुधा गोयल द्वारा लिखित उपन्यास ‘मैं सौमित्र’ की समीक्षा
लेखक :- नील मणि
मवाना रोड (मेरठ)
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विदुषी, प्रबुद्ध, सुविख्यात लेखिका श्रीमती सुधा गोयल जी ने अपने उपन्यास ‘मैं सौमित्र’ में रामचरित मानस के पात्रों का ‘मानवीकरण चिंतन’ कर वाकई साहस पूर्ण कृत्य किया है।
प्रस्तुत हैं उपन्यास के कुछ अंश-
मर्यादा पुरुषोत्तम राम का अनुज लक्ष्मण इतना दीन हीन कैसे हो सकता है? जिसकी अपनी कोई इच्छा ना हो। बच्चे का स्वभाव अक्सर अपने जन्म दाता अर्थात माता पिता के ऊपर जाता है। यानी दशरथ और सुमित्रा। क्या सुमित्रा वास्तव में राजपुत्री थी या दासी? इस किताब की खोज यहाँ से प्रारंभ हुई। राजा दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ किया और अग्निदेव स्वयं खीर लेकर प्रकट हुए। कौशल्या, केकैयी राजा को प्रिय थी। इसी से आधी खीर कौशल्या को दी। तदनंतर सुमित्रा आ गई। तो बची खीर के दो भाग कर एक केकैयी को दिया। फिर बची खीर के दो भाग कर कौशल्या व केकैयी को देकर सुमित्रा को देने को कहा। रानी कौशल्या से राम, केकैयी से भरत और रानी कौशल्या द्वारा सुमित्रा को दिए गए भाग से लक्ष्मण व केकैयी द्वारा दिए गए खीर भाग से शत्रुघ्न उत्पन्न हुए। इसीलिए लक्ष्मण, राम के अनुगामी और शत्रुघ्न, भरत के अनुगामी हुए।
सुमित्रा का पुत्र सौमित्र वह निरीह पात्र है, जिसको स्वयं सौमित्र ही भुलाये रहे। लेकिन जब पुरुषोत्तम राम द्वारा काल से वार्ता के समय दुर्वासा ऋषि के आगमन पर व्यवधान पड़ा, तब एक पल गंवाए बिना श्रीराम ने लक्ष्मण का त्याग कर दिया। उस त्याग से लक्ष्मण का हृदय विदीर्ण हो गया और भ्रातृ प्रेम मैं डूबे लक्ष्मण अपनी वेदना उर्मिला को सुनाते हैं। ‘जीवन मेरा था, लेकिन मेरे जीवन की डोर किसी और के हाथों में थी, मैं तो बस एक कठपुतला था। मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने सीता का त्याग किया। गौतम ऋषि ने अहिल्या का। चुल्लू में जल लेकर इंद्र को नपुंसक हो जाने का श्राप क्यों नहीं दिया? क्यों आमने सामने युद्ध के लिए नहीं ललकारा? क्या समरथ का नहीं दोष गोसाईं।‘ एक पति जो श्राप देकर पत्नी अहिल्या को अरण्य में मरने के लिए छोड़ जाता है, दूसरा उसे समाज में प्रतिष्ठित करता है। दोनों ही शक्तिशाली पुरुष उस तीसरे पुरुष (इन्द्र) को भूल जाते हैं जो सारे कांड का सूत्रधार है। जो पुरुष अपनी पत्नी की रक्षा न कर सके वह कैसा पति?
ये भीरू लक्ष्मण जन्मा ही क्यों? मनसा वाचा कर्मणा सभी पर तो दूसरों का अधिकार था। उर्मिला, मैंने हमेशा तुम्हारी उपेक्षा की। उर्मिला- ‘आदमी परिस्थितियों का दास होता है, बहुत कुछ अनचाहे झेलना होता है।‘ ‘लंका विजय का लक्ष्य भी भाभी थी। आपके उद्देश्य का निमित्त भी।‘ भ्राता राम ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ इसलिए है क्योंकि जनकनंदिनी ने समय समय पर उनकी मर्यादा बनाए रखी। रावण ने स्पर्श किया, इसलिए भाभी की अग्निपरीक्षा ली गयी।
‘यदि भाभी चिता में कूदने से इनकार कर देतीं।‘
‘भाभी कोई वस्तु है कि कोई भी उठा ले कहीं भी रख लें। ‘पत्नी क्या है मातृ चरण धूलि?’ लंका में सीता जी का विचार- ‘किसी भी तरह सांसों की डोर को टूटने से बचाना है। यदि सांसों की डोर टूट गई तो आर्यपुत्र समक्ष पृथ्वी को राक्षस विहीन कैसे करेंगे?’ ‘हम भी तो वन में कितने राक्षसों के बीच रह कर आये, क्या हम अपवित्र नहीं हुए? पहली बार सौमित्र राम से विरोध करने का साहस कर रहे थे। ‘जन कल्याण के लिए भाभी का त्याग करना ही है तो राजसिंहासन छोड़ दीजिए और स्वयं भाभी के साथ वनवास लीजिए।‘ ‘ऋषि कुल में घुमाने के बहाने बीहड़ जंगल में भेज दिया। ऐसी सजा मर्यादा पुरुषोत्तम राम ही दे सकते थे। यदि यह राजाज्ञा थी तो राजभवन में सबके समक्ष दी जानी चाहिए थी और यदि पति का आदेश तो पत्नी को पता होना चाहिए था कि उसे त्यागा जा रहा है।‘
मैं संज्ञाशून्य, विवेकहीन, अविचारक, निगूढ़ था, नहीं तो भाभी को किसी आश्रम में या जनकपुर भी ले जा सकता था। कम से कम पर्णकुटी तो बना ही सकता था। एकाध दासी, धन, स्वर्ण भी साथ ले जा सकता था। अपराध का मूक दृष्टा अपराधी से भी बड़ा अपराधी है। पिता की महत्वकांक्षाओं के तुरंग पर पुत्रों ने ही नकेल डाली। आप तो कहते हैं- ‘रघुकुल रीति सदा चली आयी प्राण जाए पर वचन न जाई।‘ आपने तो अग्नि के सम्मुख भाभी को वचन दिया था, दुख सुख में पत्नी का साथ निभाने का। ‘भ्राता राम बिना फल वाले तीर से बिना मारीच जैसे राक्षस १०० योजना दूर फेंक सकते थे, एक तिनके से कौवा बने इंद्र पुत्र जयंत को तीनों लोकों से घुमा सकते थे। अकेले चौदह सहस्त्र भयानक राक्षसों को मार सकते थे तो उन्हें स्वर्ण मृग के पीछे जाने की क्या आवश्यकता थी? कुटी से ही तीर छोड़ देते।‘
लक्ष्मण स्वयं को दंड देने के लिए सरयू में जल समाधि लेना चाहते थे लेकिन उर्मिला (पत्नी) के प्रति की गई नाइंसाफ़ी की माफी मांगकर।
उर्मिला- ‘ये ऋषि मुनि त्रिकालदर्शी होते हैं। घटना को कैसे घटना है? ये पहले ही निश्चित होता है। हम सब तो मात्र उन के माध्यम हैं। नाथ बड़ी विचित्र बात है आपको अपना गंतव्य नहीं मालूम पर राक्षस, ऋषि और वनवासी आपके आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं।‘ उर्मिला द्वारा उठाए गए प्रश्न किसी भी बुद्धिजीवी को मथने के लिए काफी हैं। लेखिका की दो वर्ष की साधना के बाद लिखे गए सौमित्र उपन्यास ने बहुत से प्रश्न खड़े कर दिए हैं। लेखिका द्वारा उठाए गए प्रश्न वाकई सोचने पर मजबूर करते हैं। विरोधाभासी लगते हैं। पितृ सत्तात्मक समाज का परिचय देते हैं।
उपन्यास के अंत में लेखिका ने आशावादी सोच का परिचय देते हुए लक्ष्मण के सरयू जल में समाधि लेने के निर्णय पर उर्मिला से कहलवाया है कि जीवन की सांध्य बेला में आप की सहचरी बन, वन में अध्ययन मनन करना चाहुंगी। मैं तो यही कहूँगी कि राम विष्णु जी के सातवें अवतार थे। लीला करने आए थे, लीला कर चले गए। “होइहि सोइ जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढ़ावै साखा।।”
निवासी : राधा गार्डन, मवाना रोड, (मेरठ)
घोषणा : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।
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