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जब नानी मरती है

सुधा गोयल
बुलंद शहर (उत्तर प्रदेश)
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 “मेरे बराबर काम करोगी तो नानी याद आ जाएगी”- मैने बेटी को उलाहना देते हुए कहा।
“किसकी नानी मम्मी? आपकी या मेरी? आपकी नानी को हम जानते नहीं और अपनी नानी तो यहां हैं हीं। फिर याद करने की जरूरत ही क्यों?” मुस्कराते हुए बिटिया बोली।
गलती का एहसास होते ही मैंने अपनी जीभ काट ली। बिटिया ठीक ही तो कहती हैं। काम और नानी का क्या संबंध? भला हो इन लिखने वालों का जिन। होंने नानी की वृद्धावस्था का ख्याल न कर उन्हें भी मुहावरों की लाइन में लगा दिया। नानी के आराम करने के दिन हैं या काम की लाइन में लगने के?
“जरा से काम का नाम सुनते ही इनकी नानी मरने लगती है। “बिट्टू रुआंसा होकर बोला- “मम्मी क्यों वे वक्त नानी को कोसती रहती हो।नानी मर जाएंगी तो छुट्टियों में किसके घर जाएंगे? तुम्हें अपनी मम्मी के लिए ऐसा नहीं कहना चाहिए।”
बेटा नसीहत दे रहा है पर इन लिखने वालों ने नानी शब्द ऐसा जुवान पर चढ़ाया है कि उतरता ही नहीं। शायद नानी से इनका कोई बैर रहा हो। इसीलिए काम और नानी का संबंध जोड़ दिया।
भला काम कोई और न करें लेकिन मुसीबत नानी की आए। मुश्किल काम पर याद आए तो नानी, काम से जी चुराओ तो मौत बिचारी नानी की, जैसे नानी हमेशा कामचोर रही हो। पर मेरी नानी का भरा पूरा परिवार था। उनके पांच बेटे और चार बेटियां थीं। बेचारी को चौके चूल्हे से ही फुर्सत नहीं मिलती थी और एक हम। हैं कि नानी को कायर और कामचोर ठहरा रहे हैं।
जब हम अपनी नानी के घर जाते, नानी तरह तरह के पकवान अपने हाथ से बनाकर खिलातीं और हम चटखारे लेकर खाते। रात को नानी अपने साथ सुलातीं और परियों की कहानियां सुनातीं। मम्मी हमको नानी के हवाले कर निश्चिंत हो जातीं।
छुट्टियां प्रारंभ होने से पहले ही नानी याद आने लगतीं। उनके द्वारा बनाए व्यंजन याद आने लगते और हम मम्मी से नानी के यहां जाने की जिद्द करने लगते। जब तक नानी है तब तक नानी का घर है। वर्ना मामाओं को भांजे कुनैन की गोली से कम नहीं लगते।
भला हो इन लेखकों का कि मामा के लिए कोई मुहावरा नहीं गढ़ा। हां मौसी को बिल्ली मौसी जरुर बना दिया। हां अब मंहगाई की। मार। सबसे पीड़ित नानी भी क्या करें। पहले साल में दो बार बुलावा आता था अब एक बार ही बुलाने से कतराने लगीं। फिर बूढ़े हाथों में वह ताकत भी कहां? आजकल के बालक भी कम शरारती नहीं है। अब हाथ के बने लड्डू मठरी कहां भाते हैं। नुडूल्स, बर्गर, पेस्ट्री, बिस्कुट चाहिए। नानी को प्याज, लहसुन, अंडा से परहेज़ है पर बच्चों को तो यही सब चाहिए। बच्चे मोबाइल और लैपटॉप पर लगे रहते हैं। नानी को कुछ भी समझ में नहीं आता।
नानी और नवासी के बीच बड़ा अंतर आता जा रहा है। बच्चे उनकी भाषा भूलते जा रहे हैं और नानी उनकी भाषा से अनजान हैं। फिर भी नानी मुहावरों में ही सही जिंदा तो है। नानी सबकी मरती है- यह कटु सत्य है, लेकिन जब तक मुहावरे हैं नानी नहीं मरेगी।

परिचय :– सुधा गोयल
निवासी : बुलंद शहर (उत्तर प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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