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दुविधा और चुनाव (ये, वे और जनता) ।।स।। (अन्तिम भाग)

गिरेन्द्रसिंह भदौरिया “प्राण”
इन्दौर (मध्य प्रदेश) 

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अर्थ-बाण चढ़ गए धनुष पर, खुलने लगे खजाने जी।
खुलने लगे खजाने फिर तो ,लगने लगे निशाने जी।।१।।

लगने लगे पराए अपने, जुटने लगे पटाने में।
ऐसी दरियादिली कि अब तक, देखी नहीं ज़माने में।।२।।

बकरी से कह उठे भेड़िए, चल नाले के पार चलें।
हरी-हरी है घास वहीं पर, जमकर खेलें खूब चरें।।३।।

जमने लगे चिलमची तनकर , फूँक छपाके लेती है।
दम भरकर दम मार रहे दम, चिलम लपाके लेती है।।४।।

बँटी रेवड़ी अपने खुश हैं, अन्धों की दिलदारी पर।
कौए तक ले उड़े कमीशन, कोयल की किलकारी पर।।५।।

जब से माँग बढ़ी ककड़ी की, तरबूजों को बुरा लगा।
तरबूजों के भाव सुने तो, खरबूजों को बुरा लगा।।६।।

बिना बुलाये घेर रहे घर, वोटर की है लाचारी।
थोड़ा सा कुंकू चावल है, भीड़ परीतों की भारी।।७।।

माँग रहे सब अपनी पूजा, यूँ खुलकर मत दान करो।
इसको मत दो उसको मत दो, बस मुझको मतदान करो।।८।।

उछल-कूद कर रहे भयंकर, डरी बहू ने टोका है।
धीरे खेलो अरे देवता, वैसे ही घर दो का है।।९।।

जैसा भूत भवानी वैसी , जैसा भगत जुगत वैसी।
जैसा धुआँ-धूप-अज्ञारी, कला-गुलाँट चपत वैसी।।१०।।

तगड़ा भूत भगत दुबला सा, अटका-पटकी ठीक नहीं।
सिर्फ भभूत दूर से फैंको, झूमा झटकी ठीक नहीं।।११।।

एक रोज इनके चमचे ने, दिया भोज अँधियारे में।
सिर्फ चुड़ैलें ही बैठीं थीं, भूतों के भण्डारे में।।१२।।

अब क्या हाहाकार करूँ, या फिर करुण पुकार करूँ।
या फिर भूत बना लूँ खुद को, खुद भुतहा परिवार करूँ।।१३।।

किसे दोष दूँ किसे सराहूँ, किसकी जय-जयकार करूँ ।
दुविधा नहीं मिटाए मिटती, कितना ही उपचार करूँ।।१४।।

परिचय :- गिरेन्द्रसिंह भदौरिया “प्राण”
निवासी : इन्दौर (मध्य प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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