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आंखें … एक ऐतिहासिक कहानी

सुधा गोयल
बुलंद शहर (उत्तर प्रदेश)
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शाम का धुंधलका फैलने में अभी देर थी। पवन में हलकी सी सरसराहट थी। पक्षी उद्यान में क्रीड़ारत थे। सरोवर के स्वच्छ जल में अस्ताचलगामी सूर्य का प्रतिबिंब किसी चपल बालक की तरह अठखेलियां कर रहा था। कमल हंस रहे थे। मोर नाच रहे थे। सुगंधित समीर उड़कर गवाक्ष में एकाकी, मौन, शून्य में निहारती महादेवी तिष्यरक्षिता की अलकों से अठखेलियां कर रहा था। परंतु वह इस समय इस सबसे बेखबर अपने ही विचारों में खोई थी। उनके रुप माधुर्य की आभा तिरोहित होते सूर्य की रश्मियों के साथ मिलकर दुगुनी हो गई थी।
प्राकृतिक दृश्य पावक बनकर महादेवी के तन-मन को प्रज्वलित करने लगे थे। जब शाम अपने डैने फैलाए राजमहल की प्राचीरों पर उतरती तब महादेवी का मन उदास हो जाता। और सम्राट अशोक का इंतजार करते-करते वे कमलिनी सी मुरझा जाती। श्रृंगार ज्योति विहीन हो जाता। काम की दारुण ज्वाला उन्हें और भी झुलसाने लगती। सम्राट अशोक, प्रियदर्शी अशोक यदि पाश्रव में हों तो भी….
‘प्रियदर्शी अशोक’स्मरण मात्र से वे खिलखिला उठीं। लोग प्रियदर्शी सम्राट क्यो कहते हैं। प्रियदर्शी जैसा क्या है उनमें? प्रियदर्शी ….न दृश्य में, न स्पर्श में और न व्यवहार में। तो फिर कहां हैं प्रियदर्शी? किसने दिया है यह नाम? देखने में कुरुप, स्पर्श में कठोरता के साथ वृद्धावस्था के साथ लिजलिजा पन और व्यवहार में मुझ जैसी षोडषी के साथ बलात् विवाह….।
कहां वृद्ध सम्राट और कहां जीवन के महज बाइस वसंत देखें हुए वह। कोई मेल है? और महादेवी तिष्यरक्षिता की स्मृति में उभर आया वह दिन जब महाराज अशोक की शोभायात्रा उज्जैन में निकल रही थी।
उज्जैन के सबसे धनी श्रेष्ठि उसके जनक ने अपने श्रेष्ठ भवन में सम्राट के स्वागत करने का निश्चय किया और स्वागत का भार पुत्री तिष्यरक्षिता पर डाल दिया।
स्वर्णाभूषणों से अलंकृत यौवन की दहलीज पर खड़ी चंचल, चपल, मनमोहिनी तिष्यरक्षिता ने नुपूरो की सुमधुर ध्वनि के मध्य अपनी सखियों के साथ सम्राट अशोक पर पुष्प वर्षा कर स्वागत किया तो सम्राट की दृष्टि उसके सर्वांग पर चिपक कर रह गई।
पिताश्री ने उनकी दृष्टि में उभरे प्रश्न को लक्ष्य किया। वह बोले- “सम्राट की जय हो। पुत्री तिष्यरक्षिता आपका स्वागत कर धन्य हुई।”
तभी सम्राट ने अपना बहू मूल्य मुक्ताहार अपने कंठ से निकाल तिष्यरक्षिता के गले में डाल दिया। फिर बोले- “इस स्वागत से हम अभिभूत हुए नगरश्रेष्ठि”.
“आपका अनुग्रह हमेशा हृदयस्थल पर रहेगा सम्राट”- अभ्यर्थना की औपचारिकता निभाई तिष्यरक्षिता ने। परंतु सम्राट उस चपल मोहक दृष्टि से बंधकर रह गए।
राजमहल में लौटकर अपने विश्वस्त अनुचर से सम्राट ने विवाह का संदेश भिजवाया, जिसे सुनकर पिताश्री स्तंभित रह गये। कहां कोमलांगी तिष्यरक्षिता और कहां वृद्ध सम्राट। फिर सम्राट की दो दो रानियां पहले से है। क्या सम्राट तिष्यरक्षिता को पट्टमहिषी का पद दे सकेंगे? यदि नहीं तो उनकी पुत्री महज विलास की सामग्री बनकर रह जाएगी। उन्होंने सोचा तो क्या सम्राट से सौदा करें। वह परेशान हो गए कि सम्राट के कोप से तिष्यरक्षिता को कैसे बचाएं ?
उधर सम्राट का दूत उत्तर की प्रतिक्षा में था।इसी उहापोह में दिन खिसकने लगे। आखिर सम्राट के पक्ष में ही निर्णय लेना पड़ा। जो शक था वहीं सच हुआ। पट्टमहिषी तो असंधिमित्रा ही रहीं। वह तो मात्र महादेवी ही रहीं। यह भी कैसी त्रासदी रही कि महादेवी होते हुए भी वह अतृप्त ही रहीं। तभी एक मधुर स्वर लहरी तिष्यरक्षिता के कानों से टकराई। वह चौंक उठीं। वीराने में जैसे बहार आ गई। इतना मधुर संगीत इससे पहले उन्होंने कभी नहीं सुना था। उनकी समस्त चिंता संगीत के स्वरों में डूब गयी।
महादेवी तिष्यरक्षिता की दृष्टि उस मधुर स्वर का पीछा करती अमलतास के नीचे बैठे एक युवक से टकराई। वह मुग्ध हो उठीं।पीतवसन धारण किए, रत्न जड़ित उत्तिरीय कंधे पर डाले, वीणा के तारों से अठखेलियां करतीं स्वर्ण मुद्रिकाओ वाली चंचल उंगलियां, दुनिया से बेखबर अपने संगीत में खोया यह युवक कौन है? इससे पहले राजोद्धान में इस युवक को नहीं देखा।
तभी दासियों से घिरी मंथर गति से आती हुई उन्हें एक रुपसी दिखाई दी।
दासियां उस युवती को वीणावादक के पास छोड़कर चलीं गईं। वह युवती कुछ पल ठोड़ी पर हाथ रखे वीणा के स्वरों में खोई रही। फिर धी-धीरे युवक के बाल सहलाने लगी। वाद्य यंत्र का स्वर और भी मधुर व उत्तेजक हो उठा। देह का रोमांच वीणा के तारों में आकर समा गया।
संगीत एकाएक अपने चरम पर पहुंच कर रुक गया। युवक ने उस युवती को अपने अंकपाश में बांध लिया। प्रकृति जैसे इस दृश्य को देखकर ठिठक गयी। महादेवी तिष्यरक्षिता अपने गवाक्ष से चित्र लिखित सी युग्म क्रीड़ा देखती रह गई। उनके दिल में एक तूफान सा मचल उठा। क्या यह युवक मुझे नहीं मिल सकता? महादेवी ने ताली बजायी। तत्क्षण परिचारिका महादेवी को अभिवादन कर नतमुख खड़ी हो गई-‘आज्ञा करें महादेवी’ ‘पता लगाओ ये युगल कौन है? ‘महादेवी ने अमलतास के नीचे बैठे युगल की ओर इशारा करके कहा।
परिचारिका ने एक दृष्टि उधर डाली और तत्काल सविनय बोली- “क्षमा करें महादेवी, शायद आपको ज्ञात नहीं है। कुमार महारानी पद्मावती के पुत्र युवराज कुणाल हैं। यही मगध के भावी सम्राट होंगे। इस समय तक्षशिला के अधिपति हैं। साथ में युवराज्ञी कनकलता हैं।”
“हमारे विवाह को इतना समय हो गया। युवराज और युवराज्ञी हमें प्रणाम करने भी नहीं आए।”
“कल संध्या में ही तक्षशिला से लौटे हैं”- परिचारिका ने निवेदन किया।
“ठीक है। युवराज कुणाल को हमारा संदेश देना कि महादेवी तिष्यरक्षिता मिलना चाहती हैं।”
“जो आज्ञा महादेवी”- अभिवादन कर जाने के लिए मुड़ी पर महादेवी ने टोका- “अभी नहीं, रात्रि के प्रथम प्रहर में। जाते हुए वासुमित्रा को भेज देना।”
परिचारिका ने पुनः अभिवादन किया और मुड़ कर चली गई।
कुछ समय बाद वासुमित्रा ने महादेवी के कक्ष में प्रवेश किया। कक्ष में अंधेरा था। उसने आगे बढ़ कर दीपस्तंभ प्रज्वलित कर दिए। कक्ष प्रकाश से जगमगा उठा।
महादेवी स्वर्ण पीठिका पर उदास बैठी है- लक्ष्य किया वासुमित्रा ने। फिर प्रणाम करते हुए पूछा- “महादेवी कैसे याद किया? क्या उदासी का कारण जान सकती हूं?”
“क्या सम्राट राजभवन में पधार चुके हैं?” वासुमित्रा के प्रश्न का उत्तर देने के स्थान पर महादेवी ने पूछा।
“नहीं महादेवी, आज तो सम्राट को लौटने में बिलंब होगा। ज्ञात हुआ है कि सभा भवन में महामात्यों के साथ कोई गुप्त मंत्रणा चल रही है। उसके बाद धर्माचार्य पद्मपाद का प्रवचन धर्मप्रांगण में होगा। अर्द्ध रात्रि से पहले सम्राट राजप्रासाद में क्या लौट पाएंगे? हां धर्मसभा में सभी को उपस्थित रहने की राजाज्ञा प्रसारित हुई है।”
“हां वासुमित्रा, सम्राट के पास अपनी महादेवी के लिए समय ही कहां होता है”- कहते-कहते उनका कंठ भर आया। फिर स्वंय को संभाला और बोली- “क्या तू आज मेरा श्रृंगार करेगी?”
“क्यो नही महादेवी? आप कहें तो फूलों से सजा दूं?”
महादेवी तिष्यरक्षिता की सहमति पा वासुमित्रा श्रृंगार करने लगी। वासुमित्रा के आदेश से कुछ पलों में ही राजोद्धान से चंपा, चमेली और मोंगरे की अधखिली कलियों का ढेर लग गया। कलियां गूंथ-गूंथ कर वासुमित्रा महादेवी की वेणी सजाने लगी। हाथ अपना काम कर रहे थे पर मन कौतूहल से भरा था। स्वंय को रोक नहीं पाई वासुमित्रा- “क्षमा करें महादेवी, आज असमय इस श्रृंगार का कारण?”
“युवराज कुणाल हमें प्रणाम करने आने वाले हैं। आखिर मगध के भावी सम्राट हैं। क्या उनका स्वागत ऐसे ही करना चाहिए?”
वासुमित्रा नहीं समझ पायी कि महादेवी युवराज का उपहास कर रही है या प्रशंसा? उसने कहा- “युवराज कुणाल हैं ही ऐसे। जो भी उन्हें देखता है प्यार करने लगता है। क्या स्वंय उन्होंने कहलवाया है?”
“नहीं, हमने आदेश दिया है ।”
सुनकर वासुमित्रा ने महादेवी की ओर देखा कि आखिर वो क्या चाहती हैं। आगे पूछने की हिम्मत नहीं हुई। हांलांकि वासुमित्रा महादेवी की बालसखी है। महादेवी के साथ उज्जैन से आई है। महादेवी को बहुत प्रिय है। तभी इतना बोलने की हिम्मत कर सकी है। फिर भी मर्यादा का उल्लंघन शोभनीय नहीं है। यह सोचकर वासुमित्रा मौन हो गई।
स्वंय महादेवी ने ही उसका आश्चर्य कम किया। युवराज कुणाल वीणा बहुत अच्छी बजाते हैं। कक्ष में बिठाकर वीणा सुनूंगी। हां, वीणा को अच्छी तरह फूलों से सजाकर वहां सामने चंदन की चौकी पर रख देना।
‘दीपालोक में कुमार वीणा बजाते कितने सुंदर लगेंगे। ‘उन्होने सोचा और अपनी सोच पर मुस्करा पड़ी।
रात्रि का प्रथम प्रहर व्यतीत होने को था। वासुमित्रा महादेवी का श्रृंगार करके जा चुकी थी। बेले और मोगरे की कलियां वेणी में गुंथे-गुंथे ही खिल चुकी थीं। पूरा कक्ष फूलों की सुवास से सुगंधित था। फूलों की झालरें पर्दा बनी कक्ष के दीवार पर इंतजार में खड़ी थीं।
महादेवी स्वंय को क ई बार दर्पण में निहार चुकीं थीं। अपने सौंदर्य पर आप ही मुग्ध हो रहीं थीं। मन ही मन अपनी तुलना कनकलता से करने लगीं। कनकलता किसी भी कोण से मेरे सम्मुख नहीं ठहर सकती।
वे मन ही मन कनकलता को चुनौती दे बैठी। ‘कनकलता अब युवराज मेरी बाहों में होगा।मेरी उंगलियां उसके स्वरों पर मच लेंगी। मेरी धड़कनों पर उसके बोल निकलेंगे। मेरी रुपमाधुरी पीकर वह तेरी ओर देखेगा भी नहीं। आज ऐसा जाल बिछाया है कि बच कर निकल ही नहीं सकता। यदि युवराज कुणाल मेरे नहीं हुए तो तेरे भी नहीं होंगे कनकलता। मैं ऐसा प्रतिशोध लूंगी कि तुम कल्पना भी नहीं कर सकोगी।
उद्गिग्नता से महादेवी प्रतिक्षारत थीं। वे हल्की सी आहट पर भी चौंक उठीं। कभी कक्ष में चहलकदमी करने लगतीं तो कभी झरोखे से झांक कर देखती। एक-एक पल जैसे युग बनकर गुजर रहा था।
वह सोचने लगीं कि क्या कुमार के सामने प्रणय निवेदन करें? बुलाने का प्रयोजन क्या बताएं? मात्र दर्शन या वीणा वादन? क्या युवराज इतने नासमझ है कि इशारा नहीं समझेंगे?
“पुत्र के सम्मुख मां का प्रणय निवेदन”- विवेक ने धिक्कारा।
‘पुत्र मां से बड़ा नहीं होता। युवराज आयु में बड़े हैं और मेरे पुत्र नहीं है’- मन ने समझाया
महारानी पद्मावती का पुत्र हुआ तो क्या? है तो सम्राट अशोक का पुत्र ही, पति का पुत्र….विवेक ने फिर रोका।
सम्राट अशोक का पुत्र, पति का पुत्र? क्या सम्राट मुझे भी ऐसा पुत्र दे सकते हैं? कदापि नहीं। जिसकी काम शक्ति चुक गई हो, जिसका मन धर्म-कर्म में लग चुका हो, वह केवल औरत को तड़पा सकता है। फिर शास्त्रों में लिखा है कि पति के असमर्थ होने पर पत्नि किस अन्य पुरुष से पुत्र प्राप्त कर सकती है। तो फिर वह पुरुष युवराज कुणाल भी हो सकते हैं। वह आज ऐसी महिनी डालेगी कि युवराज उसे छोड़कर वापस नहीं जा सकेंगे।
तभी बाहर पदचापों के साथ शोर उभरा। मार्ग प्रशस्त करने वाली परिचारिका ने जयघोष किया- “महादेवी की जय हो। युवराज पधार रहे हैं”.
परिचारिका कक्ष तक युवराज कुणाल को पंहुचा कर मुड़ी।
“प्रणाम मां, इस पुत्र पर इतना अनुग्रह? “युवराज ने झुककर प्रणाम किया।
“तुमने हमें स्मरण नहीं किया, हमको ही कराना पड़ा”.
“क्षमा करें। महाराजाधिराज पिताश्री से आवश्यक यंत्रणा में विस्मृत कर गया।”
“क्षमा तो मिल सकती है कुमार, पर एक शर्त है”
“शर्त कैसी? आप आज्ञा करें।”
मुझे मां नहीं महादेवी तिष्यरक्षिता कहो।”
“आप क्या कह रही है? ऐसा कैसे सम्भव है। आप मां हैं। मैं आपको नाम से कैसे पुकार सकता हूं? “चौंक उठे कुमार।
“मैं आयु में तुमसे छोटी हूं कुमार। मां शब्द सुनकर मुझे संकोच होता है”
“लेकिन मुझे आपको मां कहने में कोई संकोच नहीं।”
तभी महादेवी ने परिचारिका को आदेश दिया- कुमार के लिए चषक ढ़ालों।
“क्षमा करें मां। मैं सुरापान नहीं करता। “यह बात सुनकर तिष्यरक्षिता के माथे पर बल पड़ गए।
“क्या कुछ देर बैठेंगे नहीं कुमार? तुम वीणा बहुत अच्छी बजाते हो। कुछ गाकर सुनाओ।”- फिर महादेवी परिचारिका से उन्मुख हुईं-“कल्याणी, कुमार के लिए जलपान का प्रबंध करो।”
युवराज असमंजस की स्थिति में कुछ पल बैठे रहे, फिर विनीत हो बोले- “मैं आपके प्रति अपराधी हूं मां। लेकिन यह मेरी विवशता है।इस समय अधिक रुक नहीं पाऊंगा। सभा कक्ष में एक आवश्यक मंत्रणा चल रही है। आपका संदेश मिला तो दौड़ा चला आया। वीणा किसी अन्य दिन सुना कर आपका आशीर्वाद लेकर कृतार्थ होउंगा।” और कुणाल जैसे आए थे वैसे ही उठकर चले गए।
तिष्यरक्षिता का क्रोध अपने श्रृंगार पर उतरा। एक-एक आभूषण नोच नोच कर फेंक दिए। घायल नागिन सी फुफकारने लगी। इतना अपमान, जैसा पिता वैसा ही पुत्र। कुणाल तूने मेरा अपमान कर अच्छा नहीं किया।
वह दिन फिर नहीं आया कि कुणाल आकर महादेवी को वीणा सुनाते। महादेवी प्रतिक्षा ही करती रह गई। कई दिन बाद पता चला कि युवराज वापस चलें गये है। महादेवी बल खाकर रह गई।
समय गुजरता गया और तिष्यरक्षिता का क्रोध समय के साथ बढ़ता गया। वह दिन रात सोचती। मन ही मन योजना बनातीं कि किस प्रकार युवराज से अपने अपमान का बदला ले।
तभी सम्राट अशोक अस्वस्थ हो गये।
राजवैद्य बुलाए गए। परिचारिकाएं सम्राट की सेवा में तत्पर रहतीं। लेकिन तिष्यरक्षिता सम्राट की सेवा स्वंय करती।
महादेवी के इस सेवा भाव ने सम्राट अशोक को अभिभूत कर दिया। वे प्रसन्न होकर बोले- “महादेवी तुमने हमें नया जीवन दिया है।हम तुमसे बहुत प्रसन्न हैैं। जो चाहो मांग लो।”
“कुछ भी सम्राट?”
“यह प्रश्न पूछकर क्या सम्राट अशोक की परीक्षा लेना चाहती हो? मांग कर देखो तो……”
“महाराज, अपने वचन से पीछे मत
हटिएगा।,”हंसकर महादेवी ने चेताया।
“सम्राट अशोक वचन देकर पीछे नहीं हटता। क्या यह महादेवी को स्मरण नहीं?”
“मेरा यह आशय नहीं महाराज।”
“….तो फिर इतना बिलम्व क्यो?”
“मैं अपने ही मन को तोल रही थी महाराज। क्षमा करें। यदि आप देना ही चाहते हैं तो मुझे कुछ दिनों के लिए मगध का साम्राज्य चाहिए।”
“मगध का साम्राज्य तुम्हारा कब नहीं था महादेवी? यदि फिर भी मगध की एकछत्र साम्राज्ञी होना चाहती हो तो तुम्हें आठ दिनों के लिए मगध का राज्य देता हूं।”
“जय हो सम्राट की”- पुलकित हो महादेवी करबद्ध हो उठी।
“जय हो मगध की साम्राज्ञी महादेवी तिष्यरक्षिता की”- कहकर सम्राट ने अपना राजमुकुट उतार कर महादेवी के सिर पर रख दिया।और अपनी अंगुली से राजमुद्रिका निकाल महादेवी की अनामिका में पहना दी। महादेवी का मन खिल उठा। इसी अवसर की तो उन्हें प्रतिक्षा थी।
दूसरे दिन प्रातः ही राजमुद्रिका से अंकित एक राजाज्ञा लेकर महादेवी का विश्वास पात्र संदेश वाहक तक्षशिला के महामात्य वीरभद्र के पास पंहुचा। पत्र महामात्य के नाम था।
पत्र पढ़कर महामात्य चौंक पड़े। यह कैसी राजाज्ञा? युवराज कुणाल जैसे परपीड़क के लिए ऐसी कठोर राजाज्ञा? महामात्य सोच में पड़ गये। युवराज कुणाल के समय से तक्षशिला में पूर्ण शांति और सुव्यवस्था है। युवराज स्वंय तक्षशिला वासियों के सुख-दुख का ध्यान रखते हैं। वह प्रजा के प्राण हैं। उनसे किसी का अनर्थ हो ही नहीं सकता।
जब कोई बात महामात्य को समझ में नहीं आई तो सभी अमात्यो की एक गुप्त बैठक आमंत्रित की। पत्र पढ़कर सुनाया गया।
‘महामात्य वीरभद्र, पत्र मिलते ही युवराज कुणाल की दोनों आंखें निकलवा कर पत्र वाहक के द्वारा भिजवा दी जाएं। तथा कुमार को पत्नी सहित राजभवन से ही नहीं तक्षशिला से निर्वासित कर दिया जाए। यह राजाज्ञा है। इस राजाज्ञा से कुमार को अवगत कराया जाए।राजाज्ञा पालन में बिलम्ब क्षम्य नहीं होगा।’
पत्र के नीचे राजचिंह और राजमुद्रिका अंकित देख शक की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। सभी अमात्य सोच में पड़ गये।
कुमार के लिए इतने कठोर दंड की व्यवस्था क्यो? क्या कुमार के प्रति यह कोई षड्यंत्र है? यह राजाज्ञा कुमार को पढ़कर कौन सुनाए?सभी के चेहरे लटक गये और इसी उहापोह में समय खिसकता रहा।
महामात्य वीरभद्र ने एक बार फिर पत्र की अच्छी तरह जांच की। आखिर राजाज्ञा का पालन तो करना ही था। राजाज्ञा के विषय में स्वंय सम्राट से पुष्टि करना राजाज्ञा का अपमान था। जो किसी भी रूप में मृत्यु दंड से कम नहीं था। राजाज्ञा का उल्लंघन देशद्रोह के समान था।
दुःखी मन से महामात्य वीरभद्र ने पत्र युवराज कुणाल के सामने रख दिया। पत्र पढ़कर युवराज ने पूछा- “महामात्य, इस पत्र को यहां पहुंचे तीन दिन निकल चुके हैं। तुमने राजाज्ञा पालन में बिलम्ब कर राजकोप को आमंत्रित किया है। मैं तुम्हें आदेश देता हूं कि मेरी आंखें लेजाकर तुम स्वंय महाराज सम्राट के सम्मुख उपस्थित होंगे।”
“क्षमा करें युवराज, इतना कठोर दंड मुझे न दे”- कातर हो उठे महामात्य वीरभद्र
“महामात्य, वधिक को लेकर तक्षशिला के दक्षिण में स्थित बौद्ध विहार के सम्मुख पहुंचो। मैं राजसी वस्त्रों का त्याग करके पत्नी कनकलता के साथ पंहुचता हूं। तुम अगली राजाज्ञा आने तक यहां किसी अन्य अमात्य की व्यवस्था क्यो।”
कुमार फौरन उठकर राजग्रह में चले गए। और महामात्य दुःखी मन से राजाज्ञा पालन में लग गए।
पलभर में यह बात दावानल सी पूरी तक्षशिला में फ़ैल गई। तक्षशिला के सभी नर-नारी बौद्ध विहार के पास इकट्ठे होने लगे। वे सम्राट के लिए अशोभनीय शब्दों का प्रयोग करने लगे। कुमार की दुर्दशा पर वे रोते जा रहे थे। उनका वश चलता तो वे युवराज और युवराज्ञी कनकलता को कहीं छिपाकर राजकोप से बचा लेते।
सब यही सोच रहे थे कि कैसा बाप है? इसकी मति मारी गई है। अपने ही बेटे की आंखें निकलवा रहा है। पहले जुर्म तो बताएं। युवराज की आंखों की जगह हम अपना सिर कटा सकते हैं। इतिहास में कहीं भी ऐसा नहीं हुआ कि एक बाप ने अपने बेटे को अंधा बनाया हो।
कुछ समय बाद लोगों ने देखा कि युवराज कुणाल और युवरानी कनकलता परिव्राजक वेश में है। कुमार के हाथों में वीणा है। वे नंगे पांव राजपथ पर निर्दिष्ट दिशा की ओर चले जा रहे हैं। लोगों का हुजूम कुमार की जय जयकार करता हुआ पीछे पीछे चलने लगा।
नौंवे दिन महामात्य वीरभद्र संदेश वाहक के साथ राजभवन पहुंचे। अकस्मात महामात्य को देखकर सम्राट चौंक उठे।
“तक्षशिला में सब कुशल मंगल है अमात्य?”
“सम्राट की जय हो। राजाज्ञा का पालन कर आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूं”- कहते-कहते महामात्य का स्वर भर्रा गया। उन्होंने वह राजपत्र तथा कुमार कुणाल की आंखें सम्राट के सम्मुख रख दीं।
“यह सब क्या है महामात्य? ये किसकी आंखें हैं?”
“क्षमा करें सम्राट, युवराज कुणाल की आंखें निकलवाकर उनको तक्षशिला से निर्वासित करना था। यही राजाज्ञा थी। लेकिन साक्ष्य रुप में आंखें लेकर आपकी सेवा में उपस्थित होने का कुमार का आदेश था।”
“कुमार कुणाल की आंखें? ऐसा अनर्थ? यह आज्ञा किसने दी?” सम्राट दहाड़ उठे।
“सम्राट यह राजपत्र”….
सम्राट अशोक ने राजपत्र देखा। “महामात्य संदेश वाहक कहां है?”
“सभा भवन से बाहर पहरेदारों के बीच”
“संदेश वाहक को उपस्थित किया जाए”
सैनिकों ने संदेश वाहक को सम्राट के सामने लाकर उपस्थित कर दिया। संदेश वाहक भय से पीला पड़ रहा था। सम्राट के कुछ पूछने से पहले ही वह कहने लगा- “दुहाई सम्राट की। मुझे नहीं मालूम कि पत्र में क्या लिखा था। महादेवी तिष्यरक्षिता के आदेश का पालन किया।”
“सेनापति, इस संदेश वाहक का निर्णय बाद में होगा। इसे काल कोठरी में डाल दिया जाए। महादेवी तिष्यरक्षिता तथा उनकी सभी अनुचरों को बंदी बनाकर तत्काल सभा भवन में उपस्थित किया जाए। युवराज कुणाल और युवरानी कनकलता की खोज में सैनिक भेजे जाएं।”- सम्राट ने आदेश दिया।
सारा सभाभवन किसी अनहोनी की आशंका से स्तब्ध रह गया। सम्राट अशोक के नेत्र अंगारे से दहकने लगे। उनको इतना क्रोधित पहले किसी ने नहीं देखा था। राजाज्ञा का फौरन पालन किया गया। कुछ ही देर में सेनापति महादेवी तिष्यरक्षिता तथा उनकी सभी अनुचरों के साथ सभा भवन में उपस्थित हो गये।
सम्राट के अगले आदेश से उसी क्षण सबको कारागार में डाल दिया गया।
शीघ्र ही सम्राट ने घोषणा की- “इन सबका न्याय कल होगा। समस्त पुरवासियों को सूचित किया जाए कि दंड स्थल पर अवश्य पहुंचें।”
पूरे नगर में मुनादी करा दी गई। अगले दिन नगर वासी दंडस्थल पर पहुंचे। देखा- बड़ी-बड़ी भट्टियां जल रही है। जिन पर पानी से भरी देंगे रखी हैं। उनमें पानी उबल रहा है।
निश्चित समय पर बंदियों को वहां लाया गया। सम्राट अशोक स्वंय सभासदों के साथ वहां उपस्थित हुए।
उन्होंने स्वंय घोषणा की- “सर्व प्रथम चाण्डालिनी तिष्यरक्षिता को इस खौलते पानी में तब तक डाल कर उबाला जाए जब तक इसका प्राणांत न हो जाए। युवराज की दुर्गति और राजमुद्रिका का दुरुपयोग करने का यही इसका दंड है। इसके साथ षड्यंत्र में शामिल सभी को यही दंड दिया जाता है। आज्ञा का तुरंत पालन हो।”
आदेश देकर सम्राट लौट गए। शीघ्र ही दंडस्थल असंख्य चीख़ों से गूंज उठा।।
तक्षशिला के दक्षिण में सम्राट अशोक ने सौ फुट ऊंचा एक स्तूप बनवाया। कुणाल की दोनों आंखें स्तूप में जड़वायीं। यह वही स्थल था जहां युवराज कुणाल ने अपनी आंखें निकलवाई थीं।

परिचय :– सुधा गोयल
निवासी : बुलंद शहर (उत्तर प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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