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स्वच्छता के दोहे
दोहा

स्वच्छता के दोहे

प्रो. डॉ. शरद नारायण खरे मंडला, (मध्य प्रदेश) ******************** बिखरी हो जब गंदगी, तब विकास अवरुध्द। घट जाती संपन्नता, खुशियाँ होतीं क्रुध्द।। वे मानुष तो मूर्ख हैं, करें शौच मैदान। जो अंचल गंदा करें, पकड़ो उनके कान।। सुलभ केंद्र तो कर रहा, सचमुच पावन काम। सचमुच में वह बन गया, जैसे तीरथ धाम।। फलीभूत हो स्वच्छता, कर देती सम्पन्न। जहॉं फैलती गंदगी, नर हो वहाँ विपन्न।। बनो स्वच्छता दूत तुम, करो जागरण ख़ूब। नवल चेतना की "शरद", उगे निरंतर दूब।। अंधकार पलता वहाँ, जहाँ स्वच्छता लोप। जागे सारा देश अब, हो विलुप्त सब कोप।। मन स्वच्छ होगा तभी, जब स्वच्छ परिवेश। नव स्वच्छता रच रही, नव समाज, नव देश।। है स्वच्छता सोच इक, शौचालय-अभियान। शौचालय हर घर बने, तब बहुओं का मान।। शौचालय में सोच हो, कूड़ा कूड़ादान। तन-मन रखकर स्वच्छ हम, रच दें नवल जहान।। जीवन में आनंद त...
ऐतिहासिक वीर गाथा
कविता

ऐतिहासिक वीर गाथा

कुंदन पांडेय रीवा (मध्य प्रदेश) ******************** हो कर्म प्रखर और मन उज्जवल इतिहास तभी दोहराता है। ओजस्व पूर्ण बलिदानों का त्रेता युग तब गुण गाता है। हो धर्म निष्ठ तब रामायण सत मार्ग हमें दिखलाता है। करुणा मय कर्म प्रकांडो से जातक जीवन सिखलाता है। गौरी हारा उसे ना मारा परिणाम बुरा तब आता है। दुष्टों को माफ नहीं करना इतिहास हमें सिखाता है। कट गया शीश पर झुका नहीं वो पृथ्वीराज महान बड़ा। कर दिया उसे निज नेत्रहीन फिर भी गौरी के प्राण हरा। जहां वीरांगनाएँ जन्मी हो भय से खल ह्रदय भी छलनी हो। स्वाभिमान भरे निज अंतः में जिनके कर्मों से धरणी हो। वीरों की विजय गायकी में तलवारों की टंकार सुनो। जो धरा हमें दिखलाती है उस गाथा का गुण गान सुनो। जहां सरस्वती का वो तट हो जो इतिहासों का साक्षी है। अस्कनी, पुरूष्णी सी नदियां जहां स्वयं धारा की थाती हैं...
बोनसाई
कविता

बोनसाई

प्रतिभा दुबे ग्वालियर (मध्य प्रदेश) ******************** स्वयं की मूल प्रकृति से द्वंद करने लगें जब मन, होने लगे जब यह स्मरण आकर, प्रकार वास्तविक सब बदला जा रहा हैं कही तब समझ लेना तुम इसे, कि कुछ यूं बदले जा रहे हो बोनसाई बनाएं जा रहे हो तुम।। जब कोई तुम्हारी जड़ों से, धीरे-धीरे काटे तुम्हीं को जब कोई तुम्हारी शाख से धीरे-धीरे टहनियों को छांटे, जब कोई संकुचित कर दे तुम्हारा जीवन, समझ लेना कुछ यूं बदले जा रहे हो तुम बोनसाई बनाएं जा रहे हो तुम।। जब अंदर ही अंदर तुम्हें खोखला किया जा रहा हो, तुम्हारी योग्यताओं का दोहन कर, तुमसे काम बस लिया जा रहा हो, छीन कर तुमसे योग्य होने का संबल अपनी ही छाप लगाकर तुम पर तुम्हें अजमा रहा हो, समझ लेना कुछ यूं बदले जा रहे हो तुम बोनसाई बनाएं जा रहे हो तुम।। जिसको ड्राइंग रूम में अपने कहीं कोने में सजाया गया ...
आओ दिव्यांगों का सम्मान करें
कविता

आओ दिव्यांगों का सम्मान करें

आशा जाकड़ इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** आओ दिव्यांगों का सम्मान करें उन्हें भी कुछ खुशियां प्रदान करें मन दृढ़ इच्छा शक्ति हो तो बंजर भूमि में फूल खिलते जो‌ मिला, खुश हो स्वीकारें परिस्थितियों भी दास बनते उनके मनोबल को बढ़ाकर हम कुछ तो पुण्य करें।। एक द्वार बंद करता ईश्वर तो दूसरा अवश्य खोलता आंखों की रोशनी छीनता अन्तर्मन में रोशनी भरता।। नयन हीनों के कंठ सरस्वती मधुर गायनका सम्मानकरें।। गिरतों को जो सहारा देते सबसे बड़ी है मानव सेवा दिव्यांगों के भाव समझते सबसे बड़ी है अर्चन देवा।। दिव्यांगों की भावनाओं का तन मन से प्रणाम करें।। जहां उन्हें अंधियारा लगे हम रोशनी का जहां बनाएं जहां-जहां वे चढ़ना चाहे ऊंची-ऊंची सीढ़ी बनवाए।। नई प्रतियोगिताएं शुरू करके उनमें नव उत्साह भरेंगे। खेलकूद, पढ़ाई या संगीत सभी में पाई है अपूर्व जीत पर्वत पर चढ़ने ...
इंसान का इंसान
कविता

इंसान का इंसान

संजय जैन मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** इंसान ही इंसान को लाता है। इंसान ही इंसान को पालता है। इंसान ही इंसानियत सिखाता है। इंसान ही इंसान को मिटाता है।। देखो कही धूप कही छाव है कही ख़ुशी कही गम है। फिर भी इंसान ही क्यों इस दुनियाँ में दुखी है। जबकि उसे सब कुछ विधाता से मिला है। फिर भी अपने लिए क्यों और की चाहत रखता है।। देखो बिकता है आज कल हर चीज बाजार में। सबसे सस्ता बिकता है इंसान का ईमान जो। जिसे खरीदने वाला होना चाहिए बाजार में। और उसे कमजोर का भी आभास होना चाहिए।। देखो इंसान जिंदगी भर पैसे के लिए भागता है। जितने की उसे जरूरत हो उसे ज्यादा की चाहत रखता है। इसलिए तो अपनी जिंदगी में कभी संतुष्ट नहीं हो पाता। और पैसे की खातिर वो खुदको भी बेच देता।। देखो लोगों पैसे से जिंदगी और दुनियाँ चलती है। पर सब की किस्मत में पैसा नहीं कुछ और होत...
समर्थन
कविता

समर्थन

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** विधवा शब्द कहना कठिन उससे भी कठिन अँधेरी रात में श्रृंगार का त्याग श्रृंगारित रूप का विधवा में विलीन होना जीवन की गाड़ी के पहिये में एक का न होना चेहरे पर कोरी झूठी मुस्कान होना घर आँगन में पेड़ झड़ता सूखे पत्ते ये भी साथ छोड़ते जीवन चक्र की भाति सुना था पहाड़ भी गिरते स्त्री पर पहाड़ गिरना समझ आया कुछ समय बाद पेड़ पर पुष्प हुए पल्ल्वित जिन्हे बालो में लगाती थी कभी वो बेचारे गिर कर कहरा रहे और मानो कह रहे उन लोगो से जो शुभ कामों में तुम्हे धकेलते पीछे स्त्री का अधिकार न छीनो बिन स्त्री के संसार अधूरा हवा फूलों की सुगंध के साथ मानों कर रही हो गिरे पूष्प का समर्थन। परिचय :- संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता :- श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि :- २ मई १९६२ (उज्जैन) शिक्षा :- आय टी आय व्यवसाय :- ड़ी एम (जल संसाधन विभाग) ...
लाडो सुनो हमारी…
कविता

लाडो सुनो हमारी…

शैलेष कुमार कुचया कटनी (मध्य प्रदेश) ******************** डेटिंग वाले एप्प पर मुलाकाते हो रही लड़कियों को फँसाने पैसों से सेटिंग हो रही...... झूठा प्यार का नाटक होता है सात जन्मों का वादा होता है...... माँ बाप से झगड़ते है घर छोड़ भाग आते है लिव इन मे ये रहते है इसे ही आजादी कहते है...... दिखावटी जो प्यार था अब सामने आता है....... हर रोज घुट-घुट कर मरना लेकिन जीना पड़ता है फिर वो दिन भी आता है जब प्यार में श्रद्धा मारी जाती है 35टुकड़ो में फ्रिज में रखी जाती है.... बहन बेटी अब किसी आफताब की बातों में नही आयेगी मां-बाप की बातें मानेंगे तो कोई अब श्रद्धा नहीं मारी जाएगी.... परिचय :-  शैलेष कुमार कुचया मूलनिवासी : कटनी (म,प्र) वर्तमान निवास : अम्बाह (मुरैना) प्रकाशन : मेरी रचनाएँ गहोई दर्पण ई पेपर ग्वालियर से प्रकाशित हो चुकी है। पद : टी, ए विध...
मैं तुझे भुला ना पाउँगा
कविता

मैं तुझे भुला ना पाउँगा

प्रमेशदीप मानिकपुरी भोथीडीह, धमतरी (छतीसगढ़) ******************** तेरी यादो के सहारे ये जिंदगी बसर कर लेंगे जहाँ की सारी दुष्वारियां नजरे करम कर लेंगे तेरी याद आने से पहले, मैं तुझे याद आऊंगा तुम भुला देना मुझे, मैं तुझे भुला ना पाउँगा हम तुम एक ना हुये तो क्या हुआ सनम चाहतो के भी अपने ही होंगे नजरें करम चाहतों के किस्से सारे जहाँ को बताऊंगा तुम भुला देना मुझे मैं तुझे भुला ना पाउँगा पत्थर के शहर में चाहत के शीशे बेच लेंगे सामने ना सही अक्स हम दिल में देख लेंगे दिल में तेरे लिए एक छोटा सा घर बनाऊंगा तुम भुला देना मुझे, मैं तुझे भुला ना पाउँगा जो मिल ना सके हम तुम कोई बात नहीं सवेरे उजाले भी तो होंगे हमेशा रात नहीं खुशियों की महफ़िल में तुमको बुलाऊंगा तुम भुला देना मुझे,मैं तुझे भुला ना पाउँगा हम वादों इरादों संग जीवन सफर कर लेंगे बिछुड़कर यादों संग जीवन बसर कर लेंग...
रक्तदान
लघुकथा

रक्तदान

प्रो. डॉ. द्वारका गिते-मुंडे बीड, (महाराष्ट्र) ******************** कॉलेज के कैंपस में रक्तदान शिविर का आयोजन किया गया था। उसमें श्रेयस ने भी अपनी स्वेच्छा से रक्तदान किया। उसके दस साल बाद एक सड़क दुर्घटना में श्रेयस का अ‍ॅक्सीडेंट हो गया। गहरी चोट लगने से बहुत रक्त स्त्राव हो गया था। उसे अस्पताल में भर्ती किया गया। उसकी हालत देखकर 'उसे रक्त देना पड़ेगा। जल्दी से रक्त का प्रबंध करो।' ऐसा डॉक्टर ने कहा। रक्त देने के लिए माता-पिता और कई रिश्तेदार तैयार हो गए पर श्रेयस की दीदी ने उसका रक्तदान का प्रमाणपत्र रक्तपेढ़ी में दिखाया और जल्द ही रक्त का प्रबंध हो गया। दूसरे दिन श्रेयस जब होश में आया तब उसकी दीदी ने कहा- "भैया, तेरे रक्तदान ने आज तुझे ही जीवन दान मिला है।" हास्य करते हुए श्रेयस ने कहा- "मुझे कहां मालूम था कि, आगे चलकर मुझे ही जीवनदान मिलने वाला है। पर, आज मैं यह समझ गया हूं...
मृत्यु की रात
लघुकथा

मृत्यु की रात

संगीता सूर्यप्रकाश मुरसेनिया भोपाल (मध्यप्रदेश) ******************** घर में निर्मला की मम्मी उसका भाई राजू छोटी बहन पिंकी घर में थे। पिता भोपाल से बाहर अपनी छोटी बहन की सगाई करने गए थे। तभी दो और तीन दिसंबर की रात १९८४ को मृत्यु की रात बन कर आई। निर्मला की मकान मालिक ने दरवाजा खटखटाया बोली धुआं-धुआं फैला है और आंखों में जलन हो रही है। जैसे ही दरवाजा खोला तो बाहर भीड़ दौड़े जा रही जान बचाने। निर्मला का भाई भी मोहल्ले वालों के साथ जान बचाने कहां गया पता ही नहीं। निर्मला की मां बहन छोटी अपनी सहेली के घर पहुंचे सहेली से बोली- "चलो हम भी कहीं चलते हैं।" सहेली के पति भी बाहर गए हुए थे। उनके तीन बच्चे थे। वह बोली- "हम कहीं नहीं जाते"। हम तो यही घर में रहते हैं। जिसको भी उल्टी आ रही है। उल्टी घर में ही कर लो, लेकिन घर में ही रहेंगे, तो कम से कम घर वालों को अपनी लाश मरने के बाद मिल तो जा...
नासमझ बेटा, समझ ना पाया बापू
कविता

नासमझ बेटा, समझ ना पाया बापू

सीमा रंगा "इन्द्रा" जींद (हरियाणा) ******************** काश समझ पाते कीमत वक्त की काश मान जाते बात मात-पिता की काश रहते ना उतावले हमेशा काश कभी तो शांति से करते बात काश झुक जाते फर्ज की खातिर काश भनक लग जाती तूफ़ा की हमें भी काश आंचल में संभलते रहते धीरे-धीरे काश पिता का साया पहले याद करते काश कुछ जिम्मेदारियां हम भी बांट लेते काश कुछ वजन हम भी कर देते कम काश उन्हें भी सोने देते बेफिक्र होकर काश कभी हम भी उठ जाते पहले उनसे काश जिन हाथों ने हमेशा रखा सिर पर हाथ काश हम भी लगा लेते हाथ उनके चरणों के काश हमारी तरह होता सीना चौड़ा उनका काश मैं भी कर लेता पिता संग काम कुछ काश घर ऐसो आराम के बजाय दिखता घर काश हम भी समझ पाते दर्द उनका का भी परिचय :-  सीमा रंगा "इन्द्रा" निवासी :  जींद (हरियाणा) विशेष : लेखिका कवयित्री व समाजसेविका, कोरोना काल में कव...
मैंने कहा था
कविता

मैंने कहा था

अनुराधा शर्मा रायगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** मैंने कहा था, लड़का बड़ा होके सहारा होगा। बेटा समझ बैठा, पैसे से ही गुज़ारा होगा। अब सोने की छड़ी तो है, पर सहारा मिलता नहीं। मखमली बिस्तर तो है, नींद आंखों में बसती नहीं। खाने को लज़ीज़ पकवान है, भूख़ लगती नहीं पीने को मीठा पानी है, प्यास बुझती नहीं। टेहलने को बाग है, मगर दिल बेहलता नहीं। रहने को बंगला है, पर वीराना दिल से जाता नहीं। जी खुशियों का मंज़र चाहता है, पर परिवार का इंतजाम नहीं। मैंने कहा था, लड़का बड़ा होके सहारा होगा। बेटा समझ बैठा, पैसे से ही गुज़ारा होगा। परिचय : अनुराधा शर्मा निवासी : रायगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी र...
कोई पता नहीं
कविता

कोई पता नहीं

राजीव डोगरा "विमल" कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) ******************** अपने थे या बेगाने कोई पता नहीं। गम देगे या खुशियां कोई पता नहीं। मुस्कुरा कर गए या रुलाकर गए कोई पता नहीं। हंसते हुए रुला गए या रुलाते हुए हंसा गए कोई पता नहीं। बेनाम का नाम कर गए या फिर बदनाम कर गए कोई पता नहीं। अपनापन दे गए या बेगाना कर गए कोई पता नहीं। परिचय :- राजीव डोगरा "विमल" निवासी - कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) सम्प्रति - भाषा अध्यापक गवर्नमेंट हाई स्कूल, ठाकुरद्वारा घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित क...
क्या हो गया ज़माने को
कविता

क्या हो गया ज़माने को

रामेश्वर दास भांन करनाल (हरियाणा) ******************** क्या हो गया है इस ज़माने को, होड़ लगी है ज़्यादा पाने को, क्या हो गया .... भूल गये हैं अपने पराये को यहाँ, ज़िद्द लगी है अब दूर जाने को, क्या हो गया .... खो गया है आदमी अपनी ही चाल में, समा कर खुद में, भूल गया है ज़माने को, क्या हो गया .... लालच में पड़कर, लालच की बात करता है यहांँ, अब भूल गया है आदमी साथ रहने के तरानों को, क्या हो गया .... धर्म के नाम पर बंटता ही जा रहा हैैं यहांँ, खून तो एक ही है, लगा दिया है पैमाने को, क्या हो गया .... परिचय :-  रामेश्वर दास भांन निवासी : करनाल (हरियाणा) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाच...
नियमों कानूनों की धौंस बताता हूं
कविता

नियमों कानूनों की धौंस बताता हूं

किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया (महाराष्ट्र) ******************** चेयर पर बैठने के बाद अपनी स्यानपत्ती चलाता हूं जनता के कामों में रोड़े अटकाता हूं मलाई हरे गुलाबी का इशारा देता हूं नियमों कानूनों की धौंस बताता हूं ऊपर से मिली हिंट दिशा निर्देशों पर काम करता हूं अर्जियों को हवा में उड़ा देता हूं ऊपर से नीचे तक हिस्सेदारी पर काम करता हूं नियमों कानूनों की धौंस बताता हूं डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर को भी चलाता हूं बड़े हिसाब से खूंटी गढ़ाता हूं डिजिटल काम भी चालाकी से लटकाता हूं नियमों कानूनों की धौंस बताता हूं हम सभी कर्मचारी हमाम में वो हैं समझता हूं कोई किसी की पोलपट्टी नहीं खोलता जानता हूं निलंबित होकर फ़िर वापस आ जाता हूं नियमों कानूनों की धौंस बताता हूं पद पर लगे का ब्याज सहित वसूलता हूं छोटे-छोटे कामों का भी बड़ा बड़ा लेता हूं कंप्लेंट का डर नहीं क्योंकि...
बच्चे माँ-बाप की जागीर नहीं होते…
कविता

बच्चे माँ-बाप की जागीर नहीं होते…

डॉ. संगीता आवचार परभणी (महाराष्ट्र) ******************** बच्चे कभी अपने माँ-बाप की प्रतिमा नहीं होते, वे उनकी खुद की स्वतंत्र प्रतिभा के धनी है होते। बच्चें शायद माँ-बाप के जीवशास्त्र के वारिस होते होंगे, अपितु उनकी ख्वाहिशों की जागीर हरगिज़ नहीं होते। बच्चे जब अपनी माँ-बाप की आँखों का तारा हैं होते, यकीनन माँ-बाप अपने नन्हें मुन्नों के आका नहीं होते। बच्चें कभी अल्लाउद्दीन के चिराग का ज़ीन नहीं होते, बच्चों की जादुई नगरी के अपने-अपने फ़साने हैं होते। बच्चें जबरदस्ती से रिअ‍ॅलिटी शोज में भरे नहीं जाते, बच्चों की जिन्दगी के अपने अनगिन आयाम है होते। बच्चें लापरवाही से मोबाइलों के हाथ मे थमाए नहीं जाते, बच्चें माँ-बाप की गोद मे प्यार से सहलाये है जाते। बच्चें टीवी व चैनलों को 'बेहिचक दान' नहीं दिए जाते, वे प्रकृति की गोद मे खेल-कूद के आदी है बनाये जाते।...
सायरा का दायरा
लघुकथा

सायरा का दायरा

सरला मेहता इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** मैं मंगोड़ी की थाल लिए जीना चढ़ने ही वाली थी कि पीछे से सायरा बानो बोली, "लाओ आंटी मैं रख दूँगी धूप में, ऊपर ही जा रही हूँ।" यह उसका रोज का धंधा है। आते-जाते भाभी, दीदी, भैया सबके काम हँसते-हँसते निपटाना। सभी से आत्मीय सम्बंध बना लेना उसका स्वभाव ही है। मैं बालकनी में बैठी सोचने लगी कि वह सभी घरों का अटाला, कपड़े, पुरानी चीज़े आदि सहर्ष ले जाती है। जैसे ही वह ऊपरी मंजिल से उतरी मैं जिज्ञासावश पूछ बैठी, "सायरा ! मैं तुम्हें इतने सूट...।" वह बीच में ही बात काटते हुए बोली, "आंटी ! मैं तो बस कॉटन ही पहनती हूँ, आप रोज देखते ही हो। लेकिन मेरी सब सहेलियाँ रास्ता ही देखती है कि कब मैं पोटला लाऊँ? वे सब अपने हिसाब से छाँट बाँट लेती हैं।" "और दूसरा सब सामान....।" मैने टोका। बातूनी सायरा तपाक से बोली, "रब की दुआ से मेरे पास तो सब कुछ है। आप लो...
घड़ी मिलन की आती
कविता

घड़ी मिलन की आती

अंजनी कुमार चतुर्वेदी निवाड़ी (मध्य प्रदेश) ******************** जब सौभाग्य उदय होता है, घड़ी मिलन की आती। पल-पल बढ़ती दिल की धड़कन, दूरी सही न जाती। मधुर मिलन है प्रियतम तुमसे, है उमंग निज मन में। है रोमांच हृदय में मेरे, जीवन के उपवन में। घड़ी मिलन की अति सुखदाई, हर्षित करती मन को। प्रमुदित हो मन मोर नाचता, खुशी मिले जीवन को। मिलन प्यार को उपजाता है, युगल प्रेम को जाने। पाकर प्यार, युगल हो जाते, गाते प्यार तराने। जब भी दिल में प्यार उमड़ता, मन मयूर हर्षाता। प्रेम हिलोरें उठती मन में, मन प्रसून खिल जाता। उभय हृदय में प्रेम पल्लवित, जब भी है हो जाता। दाम्पत्य स्थिरता पाता, प्रेम प्रकट हो जाता। बँधें प्यार के बंधन में जब, अपनापन आ जाता। जीवन की सूनी बगिया में, मधुर प्रेम छा जाता। झुकी नजर सजनी की कहती, दिल में उठी हिलोरें। प्रियतम हैं नजदीक ह...
प्रिये! तुम्हारे रूप का …
दोहा

प्रिये! तुम्हारे रूप का …

भीमराव झरबड़े 'जीवन' बैतूल (मध्य प्रदेश) ******************** प्रिये! तुम्हारे रूप का, ज्यों ही खिला बसंत। नैनों में हँसने लगा, सुधियों का हेमंत।।१ ठिठुरन ले जब आ गई, माघ-पौष की रात। बैरन निंदियाँ कर रही, रोज कुठाराघात।।२ प्रत्यूषा के द्वार पर, दिखलाने औचित्य। कुहरे का स्वेटर पहन, घूम रहा आदित्य।।३ साया ज्यों ही झूठ का, लगा निगलने धूप। गरम चाय की केतली, ले आया ठग भूप।।४ शर्मिंदा जब-जब हुआ, कर्मों पर दरबार। लिखते गौरव की कथा, चारण बन अखबार।।५ परिचय :- भीमराव झरबड़े 'जीवन' निवासी : बैतूल मध्य प्रदेश घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आ...
आई याद जो तेरी
कविता

आई याद जो तेरी

दिनेश कुमार किनकर पांढुर्ना, छिंदवाड़ा (मध्य प्रदेश) ******************** आई याद जो तेरी! लगाई हृदय ने फिर, सुधि डगर की फेरी! अहे प्रीत गात की गंध, नवपुष्प की ज्यों सुगंध, मानो आ गया वसंत, सुमुखि तुम रति की चेरी!... जबसे तुम मुझको भाई, मन ने प्रीत की टेर लगाई, तुमने सारी प्यास बुझाई, प्रिये, तुम रूप की चितेरी!... मन मेरा था कोरा दर्पण, किया तुमने प्रेम समर्पण, प्रेम क्या है तर्पण अर्पण, तुम मिलन की शाम घनेरी... लगाई हृदय ने फिर, सुधि डगर की फेरी! आयी याद जो तेरी! परिचय -  दिनेश कुमार किनकर निवासी : पांढुर्ना, जिला-छिंदवाड़ा (मध्य प्रदेश) घोषणा पत्र :  मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा सकते है...
अतीत की परछाई
कविता

अतीत की परछाई

अशोक कुमार यादव मुंगेली (छत्तीसगढ़) ******************** मेरे अतीत की परछाई धुंधली, मुझे याद आ रही है बीते दिन। दिवास्वप्न में दिखाई देता चित्र, इंद्रायुध अर्धवृत्ताकार रंगीन।। मैं उतरा भू पिण्ड सा चमकता, अर्ध रात्रि का प्रहर नींद में डूबा। देखकर स्तब्ध थे चांद और तारें, मुझे आवाज दी मेरी महबूबा।। ओ भविष्य गामी अभिजन नर, बदहाली देख तू हरित धरा की। स्वर्ग का राज वैभव त्याग अभी, हे!महापुरुष दुःख हटा जरा की।। प्राचीन देश का नवीन विचार लिए, खेल मेरी अंगों से कोई नवीन खेल। हम दोनों में विद्युत तरंग की शक्ति, शिशु का विस्तार कर बनाकर मेल।। भूत को भूलाकर वर्तमान जिए जा, यही पल सुखद और आनंद वाला। मत भाग अपने कर्म से सुदूर अनंत, बनकर राजा, राज कर पहन माला।। परिचय : अशोक कुमार यादव निवासी : मुंगेली, (छत्तीसगढ़) संप्राप्ति : सहायक शिक्षक सम्मान : मुख्यमंत्री शिक्षा...
कशमकश का मंजर
कविता

कशमकश का मंजर

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** प्रकृति का मस्त मंजर, न आंधी तूफान का डर न पास में समंदर, कुदरत का दिया खाना कुदरत का दिया पानी, स्वछंद जिंदगी की स्वछंद कहानी, नीला आकाश, जंगल की मिठास, मिलजुलकर रहना, जीवन का हर पल उजास, आम, अमरूद, पीपल, पलाश, प्रकृति का बिछौना फैले दूर तक घास, प्राकृतिक निवासी, जंगल के रहवासी, कुछ आक्रांताओं की नजरें अब शांत जंगलों पर पड़ी है, पर्यावरण को दुहने काली नीयत आज खड़ी है, जंगल को बचाने वो हर दम सजग खड़े, कशमकश देखिए बाहरी से तो लड़ लेंगे लेकिन अपनी सरकार से कैसे लड़ें। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी ...
संस्कार
कविता

संस्कार

किरण पोरवाल सांवेर रोड उज्जैन (मध्य प्रदेश) ******************** बच्चों के आप दोस्त बने, करे दोस्त सा व्यवहार, मजा उसी मै आयगा, सदा साथ व्यवहार। खुलकर रहे वो भी सदा, करे मन-तन की हर बात। अब मात-पिता पर आती है, कैसे दिये संस्कार। नींव यदि मजबूत हे, डिगा ना सके कोई माय का लाल। मात-पिता दृढ़ निश्चय हे, चले कदम वह साथ। हिम्मत मेहनत दिन रात कर, बढता समय के साथ। साथ रहे वह हर पल, हर दम उसके साथ। दुख सुख की सब बात करे, दोस्त बने रहे साथ। संस्कार और संस्कृति का, मान और सम्मान का, आदर और सत्कार का, प्यार और व्यवहार का। दिया हे तुमने ज्ञान, सबके मन को जीतेगा, उसका यह व्यवहार। चाहे (प्यार करे) उसको, हर पल हर दम, उसका ही व्यवहार। आगे बढाते जायेगा, उसका यह स्वभाव। परिचय : किरण पोरवाल पति : विजय पोरवाल निवासी : सांवेर रोड उज्जैन (मध्य प्रदेश) घोषणा पत्र :...
विध्वंकमाला छंद
छंद

विध्वंकमाला छंद

आचार्य नित्यानन्द वाजपेयी “उपमन्यु” फर्रूखाबाद (उत्तर प्रदेश) ******************** पानी बचाओ न फेंको बहाओ। मानो कहा आप हे! मित्र आओ।। पृथ्वी हमारी तभी ही बचेगी।। सातों अकूपाद धारे रहेगी।। रोपो नए वृक्ष प्यारे सखाओं। वर्षा करें मेघ न्यारे सखाओं।। पर्याप्त वर्षा से भूमि प्यारी। फूले फले हो नई पुष्प क्यारी।। मित्रों यही धर्म भी है हमारा। सच्चा सही कर्म भी है हमारा।। आओ उठो बाल वृद्धों युवाओं। व्याही कुवाँरी धरित्री सुताओं।। मैं आपको धर्म सच्चा बताऊँ। दो हाथ से वृक्ष बीसों लगाऊँ।। लो आपभी धर्म का मर्म पाओ। दो-चार-छः वृक्ष नए उगाओ।। नीरांजली तृप्त पृथ्वी बनेगी। वृक्षाम्बरी नृत्य न्यारा करेगी।। ऊर्जा धरा में है नीर लाता।। माँ मेदिनी को सुधा है पिलाता।। सौभाग्य से मानवी देह पाई। निष्णात है कर्म की कौशलाई।। क्या द्वंद क्यों आप नहीं बताते। आनंद क्यों 'नित्य' तु...
परछाई
कविता

परछाई

मालती खलतकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** वह खड़ी थी द्वार के बाहर अनमनी ही, परित्यक्ता सी झूम-झूम कर बरसते मेघ को देखते उसकी चुनर भी चुकी थी पानी से। शायद शायद भविष्य में उसे परित्यक्ता होना पड़े वह वहां दृढ़ खड़ी थी कुछ सीखने के लिए पदृह वर्ष पूर्व श्रास झेल रही है जो उसे दृढ़ बना देगा, ताने सुनने के लिए जल बना देगा जलने के लिए सहन शक्ति देगा समाज से लड़ने के लिए उसका चुपचाप खड़े रहना उसको दृढ़ बना रहा है भींगी चूनर को निचोडना मजबूत बना रहा है। भूखे पेट मां की बाट जोहना आसक्ति है मां के प्रति टूटे हुए द्वार की चौखट पर खड़ी, फिर भी वह मुस्कुरा रही थी खुश थी कि मैं माता-पिता की छत के नीचे खड़ी हूं जहां मुझ अबोध का शोषण कोई नहीं कर पाएगा क्योंकि मैं रक्षित हूं अबोध, अनजान मां की परछाई हूं। जिसे कोई छू नहीं सकता। परिचय :- इंदौर निवासी मालती खलतक...