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विश्वास
कहानी

विश्वास

अनुराधा बक्शी "अनु" दुर्ग, छत्तीसगढ़ ********************     मैं अक्सर पुस्तक लेकर जाम के पेड़ पर बने वाय आकार पर चढ़कर पढ़ाई करती। इस बार दो-तीन दिन बाद जाना हुआ। इस बात से अनजान की जाम के पेड़ पर मधुमक्खी ने घर बना लिया है। मेरी चीज निकलते ही पापा दौड़े-दौड़े आए माजरा समझते देर न लगी। लकड़ी में रूई लपेटकर मिट्टी तेल में डूबा कर धुआं से मधुमक्खियों को यह कहते हुए भगा दिया कि- "तुमने मेरी टुकटुक को काटा" और मैं हंस दी। मेरे चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए कितनी जादूगरी दिखाते। हर प्रकार की छोटी बड़ी बात व्यावहारिकता से चरितार्थ करके मुझ में स्वाभाविक तौर पर भर देते। मित्रवत व्यवहार करके जीवन के हर पहलू से अवगत कराते मुझे परिपक्व बनाने प्रयासरत रहते। वह दिन भी आ गया जब मेरी विदाई को दूर किसी कोने से खड़े हुए देख रहे थे। हम दोनों ही एक दूसरे की आंखों में आसूं नहीं देख सकते थे। शायद पापा ऐसे ...
पिता की सख्ती
कविता

पिता की सख्ती

सुरेश मीणा बांसवाड़ा (राजस्थान) ******************** पिता की सख्ती बर्दाश करो, ताकी काबील बन सको। पिता की बातें गौर से सुनो, ताकी दुसरो की न सुननी पड़े।। पिता के सामने ऊंचा मत बोलो वरना भगवान तुमको निचा कर देगा। पिता का सम्मान करो, ताकी तुम्हारी संतान तुम्हारा सम्मान करे।। पिता की इज्जत करो, ताकी इससे फायदा उठा सको। पिता का हुक्म मानो, ताकी खुश हाल रह सको।। पिता के सामने नजरे झुका कर रखो, ताकी भगवान तुमको दुनियां मे आगे करे। पिता एक किताब है जिस पर अनुभव लिखा जाता है।। पिता के आंसु तुम्हारे सामने न गिरे, वरना भगवान तुम्हे दुनिया से गिरा देगा। पिता एक एसी हस्ती है ...।। माँ का मुकाम तो बेशक़ अपनी जगह है! पर पिता का भी कुछ कम नही, माँ के कदमों मे स्वर्ग है पर पिता स्वर्ग का दरवाजा है, अगर दरवाज़ा ना ख़ुला तो अंदर कैसे जाओगे ? जो गरमी हो या सर्दी अपने बच्चों की रोज़ी रोटी की फ़िक्र ...
हाँ वो पैसे बचाते थे
कविता

हाँ वो पैसे बचाते थे

जनार्दन शर्मा इंदौर (म.प्र.) ******************** पुरानी पेंट रफू करा कर पहनते जाते थे, ब्रांडेड नई शर्ट देने पे आँखे दिखाते थे टूटे चश्मे से हीअख़बार पढने का लुत्फ़ उठाते थे टोपाज के ब्लेड से ही वो दाढ़ी बनाते थे हा वो  पिताजी  पैसे बचाते थे …. कपड़े का पुराना थैला लिये दूर की मंडी तक जाते थे, बहुत मोल-भाव करके फल-सब्जी लाते थे आटा नही खरीदते, वह तो गेहूँ पिसवाते थे.. वो  पिताजी ही थे जो पैसे बचाते थे… वो स्टेशन से घर तक पैदल ही आते थे सदा ही रिक्शा लेने से कतराते थे। अच्छी सेहत का हवाला देते जाते थे ... बढती महंगाई पे हमेशा चिंता जताते थे वो  बाबूजी थे जो सबके लिये पैसे बचाते थे ... कितनी भी  गर्मी हो वो  पंखे में बिताते थे, सर्दियां आने पर रजाई में दुबक जाते थे एसी/हीटर को सेहत का दुश्मन बताते थे लाइट खुली छूटने पे नाराज से हो जाते थे वो पप्पा ही थे जो भविष्य के लिये पैसे बचाते थे....
पापा
कविता

पापा

रुचिता नीमा इंदौर म.प्र. ******************** हर खुशी आपके बिना अधूरी और हर गम आपसे ही दूर होता है हा पापा मेरा दिन आपसे ही शुरू होता है जब समझ न आती कोई राह तब आप ही सही राह दिखाते हो मुझ भटकी हुई को आप ही अपनी मंजिल तक पहुँचाते हो कभी गुरु बनकर कभी दोस्त बनकर तो कभी पिता बनकर आप हर क्षण मेरा मार्ग दर्शन कर जाते हो मेरे मन की बात को मुझसे पहले ही आप पढ़ जाते हो हाँ पापा हर बार आप मुझको मुझसे ज्यादा समझ जाते हो अक्स हु आपका ये कहते हुए बहुत फक्र होता है,,, इतने अच्छे पिता का मिलना बहुत कम को नसीब होता है।।। शुक्रगुजार हूं उस ईश्वर की जिसने मुझे आप जैसे पिता दिए बस विनती इतनी सी है कि हर जन्म में आप ही पिता के रूप में मिले परिचय :-  रुचिता नीमा जन्म २ जुलाई १९८२ आप एक कुशल ग्रहणी हैं, कविता लेखन व सोशल वर्क में आपकी गहरी रूचि है आपने जूलॉजी में एम.एस.सी., मइक्रोबॉयोलॉजी में बी.एस....
मेरे पिताजी
संस्मरण

मेरे पिताजी

डॉ. भवानी प्रधान रायपुर (छत्तीसगढ़) ******************** जिस तरह माँ को परिभाषित करने के लिए शब्द कम पड़ जाते हैं वैसे ही पिताजी की अहमियत को समझना आसान नहीं है। बात उन दिनों की है, जब मेरी शादी हो गई थी, और मैं एक बच्चे की माँ बन गई थी। मम्मी -पापा मुझसे मिलने हॉस्पिटल आये थे। बगल के सोफ़े में बैठे मम्मी-पापाजी बातें कर रहे थे। कह रहे थे- बिटिया जब छोटी थी और जब इसकी तबियत ख़राब रहती, तब एक इंजेक्शन लगवाने के लिए भी तैयार नहीं होती थी। बोलती थी डॉ. अंकल मुझे जितना गोली देना है दे दीजिए पर इंजेक्शन मत लगाइयेगा, और आज इतने बड़े आपरेशन के लिए कैसे तैयार हो गई। माँ बोली अब हमारी बेटी बड़ी हो गई है और आज तो हमारी बिटिया को दुनिया का सबसे बड़ा सुख मातृत्व सुख मिला है, तो भला आपरेशन के लिए कैसे मना करती। सच में वह बातें सुनकर मैं भावविभोर हो गई थी। पिताजी सब जानते थे, पर कभी बोलते नहीं थे। ह...
संवाद
कविता

संवाद

हंसराज गुप्ता जयपुर (राजस्थान) ******************** सोचिये एक माँ जिसकी असमय ही अंतिम विदाई थी शरीर शिथिल हो चला था उसने एक बार आँखें खोली पति और छोटे छोटे बच्चों की तरफ देखा उस पल संकेतों में जो संवाद हुआ प्रस्तुत है:- एक माँ की असमय विदाई नयनन पीडा, फिर भी मुस्काई गालों बालों पर पति के हाथ निःशब्द संवाद फिर छूटा साथ तब तुमसे संवाद हुआ था, इस घर को कौन चलायेगा. आगे निशा अंधकार है, ऊषा बन कौन जगायेगा. सूरज किरण, आभा से चंदा, तारा टिमटिम से भाता है. बाती से ज्योति दीपक की, तम हरता चमक जगाता है. तुमने धीरे से कहा, भ्रमर! इस भ्रम में समर न खो देना. मीठा जल है, उपजाऊ मिट्टी, श्रेष्ठ पौध हैं, बस बो देना. मैं शक्तिरूप में साथ रहूँगी, जब विषाद उन्माद करोगे. संवाद का वचन दिया प्रियतम, जब तुम मुझको याद करोगे. तुलसी कालीदास प्रसाद की, तुम ही तो कथा सुनाते थे. 'ब...
कानों की बालियां
कविता

कानों की बालियां

रंजना फतेपुरकर इंदौर (म.प्र.) ******************** जब जब तुम्हें देखा फूलों में कोई ख्वाब सा महका था बरसते सावन में आरजुओं का कारवां तुम्हारी ही यादों में जिया था नूर की बूंदें जो कानों की बालियों में पहनी मैंने एक कतरा चाँद का तुम्हारी मुस्कानों पर बिखरा था अंदाज़ तुम्हारी कशिश का यूं ही तो नहीं सबसे जुदा था तुम्हारी यादों में बसा दिल तुमसे ही ये कहता है बेहद हसीन था वो पल जो तुम्हारे खयालों से गुजरा था . परिचय :- नाम : रंजना फतेपुरकर शिक्षा : एम ए हिंदी साहित्य जन्म : २९ दिसंबर निवास : इंदौर (म.प्र.) प्रकाशित पुस्तकें ११ सम्मान : हिंदी रक्षक मंच इंदौर (hindirakshak.com) द्वारा हिन्दी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान सहित ४७ सम्मान पुरस्कार ३५ दूरदर्शन, आकाशवाणी इंदौर, चायना रेडियो, बीजिंग से रचनाएं प्रसारित देश की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में निरंतर रचनाएं प्रकाशित अध्यक्ष रंजन कल...
आत्महत्या
कविता

आत्महत्या

मनोरमा पंत महू जिला इंदौर म.प्र. ******************** कभी हम भी मुस्कराया करते थे, दोनों हाथों से खुशियाँ लुटाते थे, चेहरे पर नूर, होंठों पर मुस्कान सजती थी, चाँद सितारों को तोड़ने की शर्तें लगती थी फिर मन में क्यों मचा हाहाकार जीवन काअंत क्यों लेरहाआकार, कह न सका अन्तस की पीड़ा को, सह न सका दुःख के आवेगों को सागर. मन के उठे हुए उद्वेगों को, सह न सका पत्थरीलें चेहरों को, फिर क्यों न मन में हो हाहाकार, इसीलिए जीवन का अंत ले रहा आकार कहाँ लुप्त हुआ आशा का प्रपात क्यों हुआ मेरे साथ पक्षपात, क्यों नही लिपट सकी प्यार की किरण क्यों लगा फौलादी इरादों को ग्रहण। तभी मन में मच रहा हाहाकार आ रहा जीवन के अंत का विचार दूर गगन में उगता सूरज, दे गया नया विश्वास, इश्क करना है तो देश से कर, मरना है तो, देश के लिए मर जीवन है अनमोल, इससे प्यार कर, अन्तस से निःसृत नव सजृन चाप सुन, मन में अब नह...
मायने यारी के
कविता

मायने यारी के

निर्मल कुमार पीरिया इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** बिछड़ गये हम साथी तो क्या, मन मे कोई पीर नही, याद तुम्हें करते ना हो हम, ऐसी कोई रात नही... संग बतियाए हर इक लम्हा, भुला सको तो हम जाने, बरसों का था संग हमारा, कल परसो की बात नहीं... यारी का दम भरते थे तुम, यारी के है मायने क्या, संग यारो के जिंदा है हम, समझे क्यो ये मर्म नही... अगर कभी रुसवा हो जग से, याद हमे कर लेना तुम, हाथ बढ़ा थामेगे तुमको, "निर्मल" मन की पीर यही... परिचय :- निर्मल कुमार पीरिया शिक्षा : बी.एस. एम्.ए सम्प्रति : मैनेजर कमर्शियल व्हीकल लि. निवासी : इंदौर, (म.प्र.) शपथ : मेरी कविताएँ और गजल पूर्णतः मौलिक, स्वरचित और अप्रकाशित हैं आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने ...
असहनीय पीड़ा
कविता

असहनीय पीड़ा

अंजली सांकृत्या जयपुर (राजस्थान) ******************** सुना हैं मैं बेज़ुबान जानवर हूँ!! बहुत विस्मय की बात हैं ना? जहाँ मानुष जीवन हैं वहाँ मेरा भी अस्तित्व हैं सुनो ना! मैं भी भूखा हूँ मुझे भी खाना चाहिए मुझे भी खिलाओ ना खिलाओगे ना? मैंने तो जंगल में ख़ूब ढूँढा पर सब सूखा हैं मानुष ने अपने लिए वृक्षों की कटाई जो की हैं। देखो ना वहाँ कुछ मानुष हैं लगता हैं भले लोग हैं अब मेरी भूख प्यास मिट जाएँगीं हैं ना? देखो वो आ रहे हैं साथ अपने कुछ ला रहे हैं मालिक मुझे खिलाओ ना बहुत भूखा हूँ मालिक हाँ खिलाता हूँ। मैं सब खा गया उनका ज़िन्दगी भर का क़र्ज़दार बन गया... कब तक ? आह मानुष ये क्या किया ? मुझे इतनी पीड़ा क्यूँ मुझसे सहन नहि हो रही... ये मुझे मार देगी हँस रहे हो? मानुष ऐसा क्यों किया.. मेरी हत्या क्यों कि? मानुष तुमने ये क्या किया! हाहाहाहाहा...।। ये...
बेटियां
कविता

बेटियां

मनीषा व्यास इंदौर म.प्र. ******************** बेटियां आसमान पर का रही हैं बेटियां, पदक भी पा रही हैं बेटियां। श्रृंगार तक वो सीमित न रही, जिंदगी के फर्ज भी निभाती हैं बेटियां। फूलों सी नाज़ुक दिखती हैं बेटियां, महलों के ख्वाब बुनती हैं बेटियां। परियों सी नाज़ुक होती हैं सपनों को साकार करती हैं बेटियां। उदास मन को कोमल सा अहसास देती हैं बेटियां। मुश्किल घड़ी में कोमल सा आभास देती हैं बेटियां। पंछियों की उड़ान सी चंचल, आकाश की बुलंदियां भी छूती हैं बेटियां। जिंदगी का मान बढ़ाती हैं बेटियां, जिस घर से अनजान रहती हैं बेटियां, उस घर की पहचान बन जाती हैं बेटियां। टूटी हुई चीजों से घर बनाती हैं बेटियां, माटी के खिलौनों से संसार रचाती हैं बेटियां। नींदों में भी ख्वाबों के साथ मुस्कुराती हैं बेटियां। खुशियों के लम्हे सी सुहानी हैं बेटियां, माटी की सौंधी खुशबू बिखेरती हैं बेटियां। बारिश की बू...
अमर शहादत
कविता

अमर शहादत

माधुरी व्यास "नवपमा" इंदौर (म.प्र.) ******************** ना थी उनकी कोई रियासत, ना की उनने कोई सियासत, माँ के आँचल के शहजादों में, सर देने की थी लियाकत। मन मयूरा उनका होगा नाचा, जब रंगीन बहारे जीवन में आई, माँ का आँचल देख निशाने पे, खुद सीने पर उसने गोली खाई चैन से जी सके अपना ये वतन, अर्पित कर दिया तन, मन, बदन। चीनी-सी मिठास देने के खातिर, चीनियों की उसने मिट्टी चटकाई। नापाक इरादे ने नजर उठाई, दुश्मन ने जब भी घात लगाई, रणबाँकुरे सच्चे सपूत ने तब, हर हुँकार पर उसे धूल चटाई। ना तो थे वो कोई बाजीगर, ना कि भावों की तिजारत, माँ के मुकुट के सितारों में, अमर वीरों की जड़ी शहादत। . परिचय :- माधुरी व्यास "नवपमा" निवासी - इंदौर म.प्र. सम्प्रति - शिक्षिका (हा.से. स्कूल में कार्यरत) शैक्षणिक योग्यता - डी.एड ,बी.एड, एम.फील (इतिहास), एम.ए. (हिंदी साहित्य) आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, ल...
पिताजी
कविता

पिताजी

जीत जांगिड़ सिवाणा (राजस्थान) ******************** मैं दफ्तर से लौटू तो ऐसा लगता हैं कि कोई बुला रहा है, घर के अन्दर से निकलकर जैसे कोई मेरे पास आ रहा है। लगता हैं कि वो डाँटेगा और कहेगा कि मास्क लगाया नहीं तूने, अरे ये बाईक और मोबाईल भी आज सेनेटाइज किया नहीं तूने। महामारी फैली हुई हैं और तू बेपरवाह होता जा रहा है, हेलमेट भी नही लगाया कितना लापरवाह होता जा रहा है। हर रोज की तरह आज भी तू मुझको बताकर नही गया, तेरी माँ सुबह से परेशान है कि तू खाना खाकर नही गया। सोचता हूँ कि ये सब घर पर सुनूंगा और सहम जाऊंगा मैं, मगर ये क्या पता कि अब ये सिर्फ एक वहम पाऊंगा मैं। अब घर लौटते ही दरवाज़े पर खड़े पिताजी नहीं मिलते, मेरी जीवन नौका तारणहार मेरे वो माझी नहीं मिलते। अब क्या गलत है और क्या सही है ये बताने वाला कोई नहीं, बार बार डांटकर फटकार कर अब समझाने वाला कोई नहीं। आज सब कुछ पाकर जब अपने पैरो...
सोच
लघुकथा

सोच

श्रीमती अंजू निगम जाखन, (देहरादून) ******************** मन में प्रचंड उथल-पुथल मची हैं। ऑफिस के माहौल में राजनीति पैठ रही हैं। इसी मनोदशा में, अंधेरे से घिरते कमरे में वह अपने बिस्तर में औधें मुँह पड़ी थी। दीदी ने आकर केवल उसका हाल-चल ही तो लेना चाहा था। पर नेहा को यह दीदी की, अपने जीवन में जरूरत से ज्यादा दखलअंदाजी लगी और उसने बड़े-छोटे का लिहाज छोड़ दी को खुब खरी-खोटी सुना दी। तबसे दोनो के बीच अबोला ठना था। आज नेहा जब इसी मनोस्थिति में घी दानी में घी उलीचने लगी तो काफी घी बाहर फैल गया। उसे ध्यान आया कि दीदी हमेशा कहती कि घी या तेल उलीचते समय नीचे परात लगा लिया करो ताकि घी स्लैब में न फैले और परात में सिमटा रहे। उस दिन अगर वो भी अपने बहते मन के नीचे सब्र की परात लगा लेती..... . परिचय :- श्रीमती अंजू निगम जन्म : २० अगस्त १९६८ निवासी : जाखन, देहरादून आप भी अपनी कविताएं, कहानिया...
पिता
संस्मरण

पिता

ममता रथ रायपुर ******************** हम सभी ने नारियल देखा है, ऊपर से सख्त पर अंदर से नरम और मुलायम, एक पिता भी ऐसे ही होते हैं, ऊपर से सख्त और कठोर पर अंदर से नरम। ज्यादातर हम मां के बारे में ही लिखते हैं पर पिता के बारे में लिखना भूल जाते हैं। पिता के द्वारा अपने परिवार, रिश्तेदार और समाज के लिए किया गया संघर्ष कोई नहीं जानता। हर दुख और कठिनाई को सहकर भी हमें खुश रखने की कोशिश करते हैं वो पिता ही होते हैं। ‌‌पिता का ह्रदय बहुत बड़ा होता है वह हर गलती को सरलता से माफ कर देते हैं। मां की लोरी सुनकर हम बड़े होते है और जीवन की कठोर राह में अपने ऊंगली पकड़कर चलाने वाले पिता ही होते हैं। वो पिता ही होते हैं जो जिंदगी की ठोकर लगने पर दर्द को सहना सिखाते हैं। पिता जीवन भर अपनी सारी इच्छाओं को मारकर हमारे उज्जवल भविष्य के लिए संघर्ष करते रहते हैं। मां का आंचल अगर ठंडी छांव हमे देती है तो उस आं...
पिता का करें सम्मान
कविता

पिता का करें सम्मान

रशीद अहमद शेख 'रशीद' इंदौर म.प्र. ******************** नहीं है दूजा पिता समान। पिता का करें सभी सम्मान। पिता है जनक,पिता पालक। पिता ही होता है रक्षक। पिता गृहशाला का शिक्षक। पिता संयोजक-संचालक। सृष्टि में बहुत पिता का मान। पिता का करें सभी सम्मान। पिता सर्वदा है सुखदाई। पिता के मन में गहराई। पिता से डरती कठिनाई। पिता शंकर सम विषपाई। गगन भी करता है गुणगान। पिता का करें सभी सम्मान। पिता के जीवन का संघर्ष। निकेतन में लाता है हर्ष। साक्षी दिवस साक्षी वर्ष। पिता के श्रम ही से उत्कर्ष। पिता के सफल सभी अभियान। पिता का करें सभी सम्मान । पिता की छाया है वरदान। पिता का होना घर की शान। पिता जीवन-अनुभव की खान। पिता की सेवक हो सन्तान। पिता से मानव की पहचान। पिता का करें सभी सम्मान। पिताश्री जब हो जाएं वृद्ध। या किसी निर्बलता से बद्ध। आप अक्षम हो या समृद्ध। करें सेवा सविनय करबद्ध। नहीं हो वृ...
जंग जरूरी है
कविता

जंग जरूरी है

धैर्यशील येवले इंदौर (म.प्र.) ******************** जंग जंग जंग जरूरी है, जंग स्वाभिमान के लिए। परंतु, जंग, छीन लेती है मुस्कान। टूट जाता है घोसला चिड़िया का जो ऊंचे चिनार की टहनियों पर बना है। हो जाता है पानी सुर्ख नदियों का, पिघलती है बर्फ जाड़ो में भी, और रिसने लगती है आँखे, बून्द बून्द। जंग जंग जंग जरूरी है, जंग स्वाभिमान के लिए परंतु, टूटी चूड़ियां खनका नही करती सिंदूर की लाली मांग की हद तोड़ कर उतर आती है, वर्धियो पर कस के चिपक जाती है वर्धिया बेजान जिस्मो पर। फिर खो जाता है सिंदूर अनंत में हमेशा हमेशा के लिए। अबोध बचपन लाचार बुढापा बेबस जवानी टुकुर टुकुर ताकते रहते है उन बक्सों को जो दूर कही से लाया होता है घर के आंगन में। सपने व सिंदूर रिसते रहते है उसकी किनारों से बून्द बून्द। जंग जंग जंग जरूरी है, जंग स्वाभिमान के लिए परंतु, ढक लेते है धूल के गुबार गेंहू की बालियों को भर जाती है ...
भारत पर स्वर्ग
कविता

भारत पर स्वर्ग

विनोद सिंह गुर्जर महू (इंदौर) ******************** थाली, लोटे, शंख बजाये, और खुशी में नाचे हम। यज्ञ, हवन भी कर डाले, देव ऋचायें वांचे हम।। राम नाम के दीपक भी घर-घर सभी उजारे थे। देवों जैसे वो क्षण पाकर, सारे दुख विसारे थे।। विनाश काल विपरीते बुद्धि, मति कैसी बौराई है। अर्थतंत्र को पटरी लाने, व्यर्थ की सोच बनाई है। किसने तुमको रोका-टोका, वेतन हिस्सा दान किया। देश समूचा साथ तुम्हारे, किसने यहाँ अभिमान किया।। महिलाओं का छिपा हुआ धन, बच्चों ने गुल्लक फोड़ी है। आपदा के इस संकट में, नहीं कसर कोई छोड़ी है।। गर और जरूरत थी तुमको, आदेश का ढोल पिटा देते। खुद को गिरवी रख करके, ढेरों अर्थ जुटा देते।। किंतु नहीं ये करना था मंदिर भूले, मदिरा खोले। पवित्र घंटियां मूक रहीं, प्यालों के कातिल स्वर बोले।। मदिरालय सब खोल दिये। देवालय सारे बंद पड़े। कोरोना को आज हराने बुलंद हुए स्वर मंद पड़े।। बोतल और प्...
पार्थिव शहीद का
कविता

पार्थिव शहीद का

आशीष तिवारी "निर्मल" रीवा मध्यप्रदेश ******************** आया पार्थिव शहीद का, दरो - दीवार खिड़कियाँ रोईं, सगे, संबधी, दोस्त, माँ, बहन, पत्नी और बेटियाँ रोईं। वतन पे मिटने वाले अपने लाल पर गर्वित थे सभी किंतु गले तक भर-भर के दर्द भरी सिसकियाँ रोईं। फेरे लेकर खाईं कस्में जीवन भर साथ निभाने की पत्नी की हथेली में अब अरमानों की मेहंदियाँ रोईं। होली, दिवाली, करवाचौथ सब हो गया है सूना-सूना सिंदूर, मंगलसूत्र, पायल संग सुहागन की बिछियाँ रोईं। नेस्तनाबूत हो गया परिवारजनों का सपना 'निर्मल' नाजुक कलाईयों से उतरती हुई रंगीन चूड़ियाँ रोईं। . परिचय :- कवि आशीष तिवारी निर्मल का जन्म मध्य प्रदेश के रीवा जिले के लालगांव कस्बे में सितंबर १९९० में हुआ। बचपन से ही ठहाके लगवा देने की सरल शैली व हिंदी और लोकभाषा बघेली पर लेखन करने की प्रबल इच्छाशक्ति ने आपको अल्प समय में ही कवि सम्मेलन मंच, आकाशवा...
संघर्ष
कविता

संघर्ष

विमल राव भोपाल म.प्र ******************** यूँ ही नही गुज़रता सफर जिंदगी का संघर्ष करना पढ़ता हैं। कामयाबी की राहों में मील का पत्थर बनकर मुश्किलो से अकड़ना पढ़ता हैं॥ वो मांझी खुद कों कमज़ोर समझ लेता तों पहाड़ो से रास्ता कौन बनाता। ठान लेनें से हीं काम नही चलता यारों हौसलों से डटकर लड़ना पढ़ता हैं॥ बागों की हरीयाली पर रीझनें वालों एक माली से पूछो। चंद फूलों की रखवाली की खातिर कितनों से झगड़ना पढ़ता हैं॥ क्या सोचते हों दिन रात इस जद्दोज़हद की दुनियाँ में। फ़कीर बनकर यहाँ दरबदर भटकना पढ़ता हैं॥ यूँ तों कठिनाइयों से सभी घबरा जाते हैं साहब। मंजिल तक पहुँचनें वालों कों निरंतर बढ़ना पढ़ता हैं॥ परिचय :- विमल राव "भोपाल" पिता - श्री प्रेमनारायण राव लेखक, एवं संगीतकार हैं इन्ही से प्रेरणा लेकर लिखना प्रारम्भ किया। निवास - भोजपाल की नगरी (भोपाल म.प्र) कवि, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता एवं प्रदेश सचिव - अ.भा.व...
भटकन ही भटकन
आलेख

भटकन ही भटकन

रामनारायण सुनगरिया भिलाई, जिला-दुर्ग (छ.ग.) ******************** यह ऐसी स्थिति होती है कि कोई भी मृगमरीचिका की तरह दिग्‍भ्रमित होकर इधर-उधर डोलता रहता है। कुछ भी निर्णय लेने में अपने आपको अक्षम पाता है। किसी भी स्थिति में उसे विश्‍वास अपने घेरे में नहीं ले पाता। हर जगह अनिश्‍चय ही अनिश्‍चय प्रतीत होता है। किसी भी व्‍यक्ति, किसी भी सिद्धान्‍त, किसी भी परम्‍परा, किसी भी हालात इत्‍यादि पर वह स्‍पष्‍ट स्थिरता नहीं रख पाता है। इन अदृश्‍य बन्धनों में हम ऐसे जकड़ते चले गए। उन कारणों को ज्ञात करना आज अत्‍यावश्‍यक प्रतीत होता है तथा उन पर अंकुश लगाना हर विचारवान नागरिक का सामाजिक दायित्‍व हो गया है। आज जहॉं-जहॉं छोटे-बड़े स्‍वार्थपरक समूह गठित हो गए है, जो स्‍वलाभ के लिए समाज के शाश्‍वत मूल्‍यों को दीमक की तरह चाट रहे हैं। इनकी सक्रियता हर क्षेत्र में व्‍याप्‍त होती जा रही है। धर्मो के विशेषज...
सूक्ष्म लचीली ज्ञान की खिड़की
कविता

सूक्ष्म लचीली ज्ञान की खिड़की

विवेक रंजन 'विवेक' रीवा (म.प्र.) ******************** बहुत ही आतुरता से पाने की अभिलाषा, जब संगणक द्वार पर आकर मचलती। सूक्ष्म लचीली ज्ञान की प्रतिमान खिड़की, बस उंगली की एक ही थपकी से खुलती। इस खिड़की संगणक स्फूर्त - सक्रियता से, सब कुछ कितना साफ नज़र आने लगता। जाने कितने मिथक बिखरते टूट टूटकर, हर कोंपल को आकाश नज़र आने लगता। कर तरंगों की सवारी हाथ में दुनिया थमा दी, अंतरिक्ष भी अब अपनी ही मुट्टी में समाता। कितनी ही गणनायें कर देता है पल में, सबके ही तो काम संगणक सरल बनाता। दुनिया कितनी खोज परख करती रहती है और अनवरत होता है विस्तार बोध का। यहाँ प्रतिपल मेधा कितनी और निखरती, सहज सुलभ उपलब्ध मार्ग है नये शोध का। इस खिड़की के साथ साथ ही खुल जाते हैं कुछ बौने से भरमाने वाले नये झरोंखे। दबे पांव चुपके से आकर दांव लगाते, रिझा रिझाकर बहुत दिया करते हैं धोखे। नये नये ये सब्ज़बाग सबको दिखलाते , कल्प...
आठ तरह के प्राणियों से
दोहा

आठ तरह के प्राणियों से

प्रो. आर.एन. सिंह ‘साहिल’ जौनपुर (उ.प्र.) ******************** आठ तरह के प्राणियों से रहिए सदा सतर्क किसी के दुःख या दर्द का पड़े न जिन पर फ़र्क़ राजा नियमों में बंधा ख़ुद में रहता मशगूल मदद करे क्या आप की बाधा बनें वसूल वैश्या से उम्मीद मत करिए कभी जनाब अर्थ चाहिए बस उसे क़ायम रहे शबाब जीवन में यमराज से मत चाहो उपकार जब चाहेगा ले जाएगा सुने न चीख पुकार अग्नि ख़ाक कर डालती मुश्किल बहुत बचाव लोगों के दुःख दर्द से रखती नहीं लगाव चोरों को होता नहीं किसी के कष्ट का एहसास चोरी करना फ़ितरत उनकी रखिए मत कुछ आस निज इच्छा पूरी रहे है बच्चों की रीति इच्छित ही बस चाहिए बेमतलब सब नीति भिक्षु को भिक्षा चाहिए कुछ भी रहे अभाव कभी किसी के कष्ट का पड़ता नही प्रभाव कंटक का उद्धेश्य है देना कष्ट अनंत बन सकता सुखकर नहीं वह साहिल सा संत . परिचय :- प्रोफ़ेसर आर.एन. सिंह ‘साहिल’ निवासी : जौ...
चाइना अब होश में आओ
कविता

चाइना अब होश में आओ

डॉ. रश्मि शुक्ला प्रयागराज उत्तर प्रदेश **************** आज संकल्प के साथ हमें जीना हैं। चाइना धोखेबाज का नाश करना है। चाइना को चैन से नहीं जीने देना है। अब चीन को औकात दिखाना है। हमको समान चीन का नहीँ लेना है। चीन का वहिष्कार सबको करना है। धोखे से किये वार को बदला लेना है। सपूतों को सच्ची श्रद्धांजलि देना है। अर्थिक सहयोग को बन्द करना है। चाइना का सामान अब नहीँ लेना है। चाइना दिये क्षति को नहीं भूलना है। देश की आन बान शान को बनाना है भारतीय जन जन ने यह ठाना है चाइना को आइना दिखाना है। . परिचय :- डॉ. रश्मि शुक्ला निवासी - प्रयागराज उत्तर प्रदेश आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने हेतु अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, हिंदी में ...
पिता के पत्र पुराने परम धरोहर हैं!
कविता

पिता के पत्र पुराने परम धरोहर हैं!

रशीद अहमद शेख 'रशीद' इंदौर म.प्र. ******************** कथन के शब्द सभी स्नेह के सरोवर हैं! पिता के पत्र पुराने परम धरोहर हैं! प्रगाढ़ प्रेम प्रकाशित प्रत्येक स्वर-व्यंजन निजी ममत्व से सुरभित सुबोध संबोधन सटीक सार समर्पित समस्त उदबोधन अतुल्य आत्मीयता, अनूप अपनापन महाविचार सुमुखरित मधुर मनोहर हैं! पिता के पत्र पुराने परम धरोहर हैं ! वे प्रश्न और निहित उनमें व्याप्त चिन्ताएं सुखद सुझाव की छाया में सुप्त इच्छाएं सुवर्तमान के उपयोग के नियम-संयम भविश्य के लिए अगणित असीम आशाएं जो व्यक्त भाव हुए हैं अमिट यशोधर हैं! पिता के पत्र पुराने परम धरोहर हैं! लगे है जैसे कथन पत्र के रहे हैं बोल प्रतीत होते वे दुर्लभ लगें बहुत अनमोल प्रत्येक वाक्य में अनुभूत सूत्र शक्तिमान रहस्य गूढ़ जगत के विविध रहे हैं खोल अकथ संदेश हैं अगणित मगर अगोचर हैं! पिता के पत्र पुराने परम धरोहर हैं! कहीं है क्रोध प्रकट मे...