मां से बड़ी कोई जन्नत नही है…
दामोदर विरमाल
महू - इंदौर (मध्यप्रदेश)
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जब छोटा सा था तब की बात याद आती है।
उस वक्त का मंजर सोच मेरी आँखें भर आती है।
सुना है में बचपन में बहुत रोया करता था।
सारी सारी रात में सोया नही करता था।
सारी रात मां मुझे लोरी सुनाया करती थी।
दिन में नींद के झोंके से रूबरू हुआ करती थी।
दिनभर वो खेतो में काम किया करती थी।
में अकेला हु घर मे इस बात से वो डरा करती थी।
मुझे सीने से लगा रखा जब तक मैं चुप ना हुआ।
पूछती रही बार बार मुझसे लल्ला तुझे क्या हुआ।
मैं बहुत रोता बिलखता मगर चुप नहीं होता था।
और फिर अगले दिन टोटके और नज़र उतारने का चलन होता था।
बहुत याद आते है मुझको वो बीते हुए दिन।
बहुत मुश्किल होता है एक पल भी मां के बिन।
ये तो हुई बचपन की बात अब जवानी की और आता हूँ।
मेरी माँ के त्याग और बलिदान का एक किस्सा सुनाता हूँ।
जैसे जैसे मैं बढ़ता गया मेरी मांग मुझसे बड़ी थी।
मुझे ...






















